पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

( Ra, La)

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Yogalakshmi - Raja  (Yogini, Yogi, Yoni/womb, Rakta/blood, Raktabeeja etc. )

Rajaka - Ratnadhaara (Rajaka, Rajata/silver, Raji, Rajju, Rati, Ratna/gem etc.)

Ratnapura - Rathabhrita(Ratnamaalaa, Ratha/chariot , rathantara etc.)

Rathaswana - Raakaa (Rathantara, Ramaa, Rambha, Rambhaa, Ravi, Rashmi, Rasa/taste, Raakaa etc.) 

Raakshasa - Raadhaa  (Raakshasa/demon, Raaga, Raajasuuya, Raajaa/king, Raatri/night, Raadhaa/Radha etc.)

Raapaana - Raavana (  Raama/Rama, Raameshwara/Rameshwar, Raavana/ Ravana etc. )

Raavaasana - Runda (Raashi/Rashi/constellation, Raasa, Raahu/Rahu, Rukmaangada, Rukmini, Ruchi etc.)

Rudra - Renukaa  (Rudra, Rudraaksha/Rudraksha, Ruru, Roopa/Rupa/form, Renukaa etc.)

Renukaa - Rochanaa (Revata, Revati, Revanta, Revaa, Raibhya, Raivata, Roga/disease etc. )

Rochamaana - Lakshmanaa ( Roma, Rohini, Rohita,  Lakshana/traits, Lakshmana etc. )

Lakshmi - Lava  ( Lakshmi, Lankaa/Lanka, Lambodara, Lalitaa/Lalita, Lava etc. )

Lavanga - Lumbhaka ( Lavana, Laangala, Likhita, Linga, Leelaa etc. )

Luuta - Louha (Lekha, Lekhaka/writer, Loka, Lokapaala, Lokaaloka, Lobha, Lomasha, Loha/iron, Lohit etc.)

 

 

रूप

टिप्पणी : डा. फतहसिंह प्रायः कहा करते हैं कि गन्धर्वों के पास ज्ञान है लेकिन रूप नहीं जबकि अप्सराओं के पास रूप है लेकिन ज्ञान नहीं । अतः गन्धर्व रूपकामी हैं जबकि अप्सराएं ज्ञानकामा हैं । इस कथन का आधार शतपथ ब्राह्मण ९.४.१.४ प्रतीत होता है जहां कहा गया है कि गन्ध व रूप से गन्धर्वाप्सरस चारण करते हैं । गन्ध शब्द गं धातु से बना है जिसके अर्थ गमने, ज्ञाने/गम्यते आदि होते हैं । इससे भी आगे बढकर हमें शतपथ ब्राह्मण १४.४.४.१/बृहदारण्यक उपनिषद १.४.१ का यह कथन प्राप्त होता है कि नाम, रूप व कर्म यह तीन हैं । इनमें नामों का उक्थ्य वाक्, रूपों का चक्षु और कर्मों का आत्मा है । उक्थ्य का अर्थ होगा उत्थान करने वाला । फिर इससे आगे कहा गया है कि प्राण विकल्प से अमृत है ( अर्थात् प्राण को प्रयत्न द्वारा अमृत बनाया जा सकता है ) और नामरूप सत्य हैं ( अर्थात् नाम व रूप को प्रयत्न से सत्य बनाया जा सकता है ) । नाम-रूप प्राण को आच्छादित किए हुए हैं । नाम के विषय में कहा गया है कि नाम वह है जो सोते हुए प्राणों को जगा दे । जैसा नाम लिया जाएगा, वैसे ही प्राणों को वह जाग्रत करेगा । यहां प्राण को कर्म के तुल्य माना जा सकता है जिसका उक्थ्य आत्मा कहा गया है । नाम, रूप व कर्म के इस त्रिक के अन्य रूप भी उपलब्ध होते हैं । सरस्वती रहस्योपनिषद ३.२३ में ( समाधि से व्युत्थान पर? ) अंशपंचकों अस्ति, भाति, प्रिय, रूप व नाम की गणना की गई है जिसमें पहले तीन ब्रह्म रूप हैं और अन्तिम २ जगत रूप । यह कहा जा सकता है कि अस्ति, भाति और प्रिय प्राण के तुल्य हैं । डा. फतहसिंह के शब्दों में अस्ति अर्थात् समाधि में केवल अस्तित्व मात्र । फिर समाधि से व्युत्थान पर भाति, भासता है ।

     वर्तमान युग की ठोस अवस्था भौतिकी में साम्यावस्था में स्थित किसी जड तन्त्र में ऊर्जा का सामञ्जस्य निरूपित करने के लिए श्रोडिन्जर समीकरण का आश्रय लिया जाता है । इस समीकरण के माध्यम से स्थैतिज ऊर्जा व गतिज ऊर्जा के योग को एक स्थिरांक के रूप में प्रदर्शित किया जाता है । स्थिरांक का अर्थ होगा कि यदि किसी जड तन्त्र की स्थैतिज ऊर्जा में वृद्धि होती है तो उसकी गतिज ऊर्जा में ह्रास हो जाएगा । यदि गतिज ऊर्जा में वृद्धि होगी तो स्थैतिक ऊर्जा में ह्रास हो जाएगा । इसी समीकरण का अनुप्रयोग जीवित तन्त्रों पर भी किया जा सकता है । लेकिन जीवित तन्त्रों के लिए सारे साहित्य में ऊर्जा के दो रूप नहीं, अपितु तीन रूप निर्धारित किए गए हैं - इच्छा , ज्ञान और क्रिया । ज्ञान को स्थैतिक ऊर्जा तथा क्रिया को गतिज ऊर्जा माना जा सकता है । लेकिन आज के भौतिक विज्ञान में इच्छा के लिए अभी कोई स्थान नहीं है । नाम, रूप व कर्म के संदर्भ में नाम को ज्ञान के समकक्ष, इच्छा को रूप के समकक्ष और क्रिया को कर्म के समकक्ष माना जा सकता है । शिव पुराण के अनुसार तो ज्ञान, क्रिया व इच्छा रूपी दृष्टि - त्रय द्वारा ही रूप का निर्धारण होता है । स्कन्द पुराण में आडि दैत्य द्वारा रूप परिवर्तन पर ही मृत्यु होने का वरदान प्राप्त करने की कथा आती है । अड धातु उद्यमे अर्थ में होती है । आडि दैत्य पार्वती का रूप धारण करता है । पार्वती इच्छा शक्ति के तुल्य कही जा सकती है । अतः इस कथा में कर्म का रूपान्तरण इच्छा/भावना में हो रहा है ।

ऊपर गन्धर्वों व अप्सराओं के संदर्भ में, पुराणों में सार्वत्रिक रूप से गन्धर्वों को सामगान विद्या में निपुण दिखाया गया है । यह सामगान नाम के, ज्ञान के ही तुल्य है । ऋग्वेद १०.१२३.४ में एक गन्धर्व का उल्लेख आता है जो अमृत नामों को जान जाता है । ऋग्वेद ५.४३.१० में उल्लेख है कि नामों द्वारा सारे मरुतों का वर्धन हो जबकि रूपों द्वारा जातवेदा अग्नि का आह्वान हो ।  

     द्वादशाह संज्ञक १२ दिवसीय सोमयाग में प्रथम छह दिनों में पृष्ठ्य षडह नामक याग के कृत्यों को सम्पन्न किया जाता है और उसके पश्चात् तीन दिनों की संज्ञा छन्दोम होती है । तैत्तिरीय संहिता ७.४.२.३ का कथन है कि ऊर्ध्व पृष्ठों व ऊर्ध्व छन्दोमों से दोनों रूपों की प्राप्ति होती है । देवताओं की प्राप्ति पृष्ठों से होती है जबकि पशुओं की छन्दोमों से । ओज व वीर्य पृष्ठ हैं जबकि पशु छन्दोम हैं । पशुओं को ओज, वीर्य में स्थापित करते हैं । ऐसा अनुमान है कि भागवत पुराण के प्रथम छह स्कन्ध पृष्ठ्य षडह से और उसके पश्चात् के तीन स्कन्ध छन्दोमों के तुल्य हैं । भागवत पुराण के सातवें स्कन्ध में हिरण्यकशिपु व प्रह्लाद का आख्यान है । यह सर्वविदित है कि प्रह्लाद को भगवन्नाम स्मरण में बहुत रुचि थी । प्रह्लाद एक आह्लाद विशेष की अवस्था हो सकती है जबकि हिरण्यकशिपु समाधि का कोई रूप हो सकता है । प्रह्लाद समाधि से व्युत्थान की कोई अवस्था । इस स्कन्ध को नाम का प्रतीक कहा जा सकता है । इसके पश्चात् आठवें स्कन्ध में गज - ग्राह का आख्यान, समुद्र मन्थन व मोहिनी द्वारा अमृत कलश धारण करने और देवों व असुरों को अमृत वितरण का आख्यान है । यह स्कन्ध रूप से सम्बन्धित हो सकता है । इस स्कन्ध में गज - ग्राह आख्यान में ग्राह रूप का प्रतीक हो सकता  है । महाभारत में वर्गा आदि ५ अप्सराओं की एक कथा आती है जो शापवश ग्राह बन गई थी । अर्जुन ने उनका उत्थान करके उद्धार किया । भागवत पुराण की गज - ग्राह कथा में भी ग्राह रूप का प्रतीक हो सकता है । भागवत में गज को एकान्तिक साधना में रत इन्द्रद्युम्न का शापित रूप कहा गया है । अन्यत्र पुराणों में गज - ग्राह को जय - विजय, हाहा - हूहू गन्धर्व आदि कहा गया है । यह रथन्तर - बृहत् साम भी हो सकते हैं । हा शब्द को त्याग के अर्थ में और हू शब्द को ग्रहण के, आह्वान के, आहूत करने के अर्थ में लिया जा सकता है । बृहदारण्यक उपनिषद के कथन के आधार पर समुद्र मन्थन को क्रिया शक्ति का प्रतीक मान सकते हैं जिसके द्वारा आत्मा को, प्राणों को चेतन बनाना है ( प्राणो अमृतम् ) । इससे १४ रत्नों का आविर्भाव होता है । इन १४ रत्नों को रूपों में सर्वश्रेष्ठ रूप मान सकते हैं । यह रूप की पराकाष्ठा है । यदि यह दो स्कन्ध नाम व रूप से सम्बन्धित हैं तो इससे पहले ६ स्कन्ध मर्त्य प्राणों को अमृत कैसे बनाना है, इससे सम्बन्धित होने चाहिएं । छठे स्कन्ध के आरम्भ में अजामिल का उपाख्यान आता है जो अनजान में नारायण का नाम लेने से स्वर्गलोक गया था । स्कन्ध में आगे चित्रकेतु की कथा आती है जिसने विमान पर आरूढ होकर शिव - पार्वती की गुह्य रति के दर्शन कर लिए थे और इस कारण वह वृत्र बन गया था । यह दर्शन रूप का प्रतीक हो सकते हैं । जैमिनीय ब्राह्मण ३.२२० में पृष्ठ्य षडह व छन्दोमों के उभय रूपों का उल्लेख आया है । अतः भागवत के छठे स्कन्ध तक एक रूप होना चाहिए और उसके पश्चात् दूसरा । पृष्ठ्य षडह याग के ६ दिनों से तुलना करने पर, याग में पांचवें दिन महानाम्नी साम होता है जिसमें प्रजापति नाम व रूप? प्रदान करते हैं । छठे दिन नाराशंसी ऋचाओं, वृषाकपि सूक्त आदि के रूप में शिल्प संज्ञक कृत्य का आयोजन होता है । इस कृत्य में ऋचाओं को विभिन्न प्रकार से त्रुटित करके उच्चारित किया जाता है । ऐसा अनुमान है कि यह आह्लाद की एक विशेष अवस्था होती होगी । वैदिक निघण्टु में रूप के १६ पर्यायवाची नामों में से एक शिल्प भी है । शतपथ ब्राह्मण ३.२.१.५ का कथन है कि जो प्रतिरूप है, वही शिल्प है । प्रतिरूप को ऐसे समझा जा सकता है कि यह मर्त्य स्तर पर रूप की छाया है । ऋग्वेद ६.४७.१८ की प्रसिद्ध ऋचा रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव है जिसकी व्याख्या बृहदारण्यक उपनिषद २.५.१९ में उपलब्ध है । इस व्याख्या के अनुसार जब यह पृथिवी सब भूतों के लिए मधु बन जाए और सब भूत इस पृथिवी के लिए मधु बन जाएं तो वह मधु विद्या है । दूसरे शब्दों में, जहां उच्चतर और निम्नतर में संघर्ष की स्थिति समाप्त हो जाती है, वह मधु विद्या है और मधु विद्या की स्थिति ही रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव की स्थिति है । प्रतिरूप से अगली स्थिति अनुरूप कही गई है । जैमिनीय ब्राह्मण ३.८५ के अनुसार प्राण स्तोत्रिय हैं जबकि अपान अनुरूप है । शांखायन ब्राह्मण १५.४ के अनुसार आत्मा स्तोत्रिय है, प्रजा अनुरूप है । तैत्तिरीय संहिता ७.४.१७.१ तथा ऋग्वेद १०.१६९.३ में गायों के सम्बन्ध में कथन है कि जो सरूपा, विरूपा, एकरूपा हैं, जिनका अग्नि इष्टि द्वारा नाम जानता है, जिन्हें अङ्गिरसों ने तप द्वारा उत्पन्न किया है, पर्जन्य उन्हें शान्ति प्रदान करे । जिनका सोम विश्वा रूपों को जानता है, जो देवों में तनु को धारण? करती हैं, वह हमारे लिए पयः को दें तथा इन्द्र गोष्ठ में उन्हें स्थापित करे । यह कथन संकेत करता है कि एक स्थिति ऐसी है जब रूप स्पष्ट नहीं हुआ है, एकरूप है । वह नाम की स्थिति है । दूसरी स्थिति में रूप प्रकट हुआ है । यह उल्लेखनीय है कि इस कथन में अग्नि का सम्बन्ध नाम से और सोम का सम्बन्ध रूप से जोडा गया है । नाम और रूप के संदर्भ में ऐसा सम्बन्ध दुर्लभ है ।

     ऋग्वेद ५.८१.२ तथा १०.१३९.३ में सविता देव द्वारा विश्वा रूपों के निर्माण का उल्लेख है । ऋग्वेद ७.५५.१ में वास्तोष्पति के, ८.१५.१३ में इन्द्र के, ९.२५.४ में सोम के विश्वा रूपों में प्रवेश का उल्लेख है । ऋग्वेद ९.६४.८ में सोम द्वारा विश्वा रूपों के सिंचन का उल्लेख है । ९.८५.१२, ९.१११.१, १०.१३६.४१०.१६९.३ आदि में भी विश्वा रूपों का उल्लेख है । अथर्ववेद १३.१.११ में ऊर्ध्वमुखी रोहित के नाक लोक से ऊपर स्थित होने पर विश्व रूपों का जन्म होता है । अतः विश्वा रूपों को समझना अनिवार्य हो जाता है । ऋग्वेद १०.१२१.१० की ऋचा प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव इत्यादि है जिसका सार्वत्रिक रूप से उल्लेख हुआ है । शतपथ ब्राह्मण ५.४.२.९ में यह ऋचा प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा रूपाणि परि ता बभूव के रूप में प्रकट हुई है । अथर्ववेद ७.८५.३/७.८०.३ में यह ऋचा  प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा रूपाणि परिभूर्जजान के रूप में प्रकट हुई है । अथर्ववेद ७.८४.४/७.७९.४ में प्रजापते के स्थान पर अमावास्ये शब्द आया है । ऐतरेय ब्राह्मण २.१७ का कथन है कि संवत्सर ही प्रजापति है जिसके जन्म लेने पर यह सारा विश्व रूप जन्म लेता है । जैमिनीय ब्राह्मण   १.७४ के अनुसार यज्ञ ही विश्वा रूपाणि है । संवत्सर की परिभाषा वर्तमान टिप्पणियों में बाह्य जगत में सूर्य, पृथिवी व चन्द्रमा के आपेक्षिक परिभ्रमण के आधार पर आन्तरिक सूर्य/प्राण, पृथिवी/वाक् और चन्द्रमा/मन के परस्पर परिभ्रमण के आधार पर की गई है । यही वास्तविक यज्ञ हो सकता है जब यह एक दूसरे से स्वतन्त्र परिभ्रमण न कर पाएं । शतपथ ब्राह्मण ६.७.२.४ में उखा से शिक्य पाश मोचन के संदर्भ में मन्त्र विश्वा रूपाणि प्रति मुञ्चते कवि: इति ( ऋग्वेद ५.८१.२) की व्याख्या की गई है । यहां द्युलोक में स्थित आदित्य को कवि कहा गया है और शिक्य को विश्वा रूपा कहा गया है । पौराणिक साहित्य में विश्वा रूपाणि क्या हो सकते हैं, यह विचारणीय है । क्या विश्वा रूपा वही हैं जिनका दर्शन गीता के ११ वें अध्याय में अर्जुन ने किया था, जिनका दर्शन धतृराष्ट्र ने विशेष चक्षुओं द्वारा किया था ?

      ऋग्वेद १.१८८.९, ८.१०२.८, १०.१८४.१, अथर्ववेद ५.२६ .८, ५.२५.५, ५.२५.१०, ५.२६.८, ९.४.६ आदि में त्वष्टा द्वारा रूप के पिंशन/पीसने के उल्लेख आए हैं । यह रहस्यमय प्रतीत होता है कि त्वष्टा रूप का पिंशन किस प्रकार करता है । त्वष्टा शब्द त्विष - दीप्तौ धातु से बना है । तैत्तिरीय संहिता २.४.६.१ व २.६.१०.३ के अनुसार सोम द्वारा रेतः का धारण किया जाता है और  त्वष्टा उस रेतः से रूपों का वि-करण करता है । तैत्तिरीय ब्राह्मण   १.८.१.२ का कथन है कि त्वष्टा रेतः में रूपों को विकरोति/निर्माण करता है । वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से कहा गया है कि पर्जन्य वृष्टि द्वारा पृथिवी पर रेतः सिंचन होता है । वृष्टि पृथिवी के लिए योनि में रेतः सिंचन जैसी है । उस रेतः से अन्न की सृष्टि होती है । अथर्ववेद ११.९.१/११.७.१ में उल्लेख आता है कि उच्छिष्ट में नाम व रूप आहित हैं, छिपे हुए हैं । डा. फतहसिंह का कहना है कि उच्छिष्ट/जूठन शरीर में अतिरिक्त ऊर्जा का, संचित वीर्य आदि का प्रतीक है । पुराणों में उल्लेख आता है कि जब सूर्य का तेज बहुत प्रखर हो गया तो त्वष्टा ने अपने चक्र पर सूर्य को रखकर उसके तेज को काटा - छांटा । इस काट - छांट से जो तेज निकला, उससे देवों के अस्त्रों का निर्माण किया । जैमिनीय ब्राह्मण १.२५९ का कथन है कि प्रजापति ही उद्गाता है, वही त्वष्टा है, वही रेतस् का सिंचन करने वाला है, वही रूपों का विकर्ता है । उद्गाता शब्द की टिप्पणी में यह उल्लेख किया गया है कि हमारे सभी प्राण दिव्य अन्न की प्राप्ति की अभीप्सा करते हैं, जैसे मण्डूक पर्जन्य वर्षण की । लेकिन आवश्यकता इस बात की होती है कि मुख्य प्राण इस अभीप्सा में सम्मिलित हो जाए । वही उद्गाता कहलाता है । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.१२.४ के अनुसार त्वष्टा इन्द्र में यश और श्री का भरण करता है ।

      शतपथ ब्राह्मण ५.१.३.९, ५.२.५.८ में श्याम के २ रूपों का उल्लेख है - शुक्ल लोम व कृष्ण लोम । शतपथ ब्राह्मण ७.३.२.१ में चर्म, लोम व रोहित को रूप कहा गया है । रोहित में सब रूप होते हैं । शतपथ ब्राह्मण ६.७.१.७ के अनुसार शुक्ल व कृष्ण लोम ऋक् - साम रूप हैं । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.८.१७.४ में अश्व के अञ्जि, कृष्ण व श्वेत रूपों का उल्लेख है । जैमिनीय ब्राह्मण १.१६० के अनुसार पहले एकरूप ही थे - रोहित ही । फिर पौष्कल साम से रूपों का सृजन किया - श्वेत, रोहित व कृष्ण का । जैमिनीय ब्राह्मण ३.३४६ में प्रजा के २ रूपों का उल्लेख है - नील और सुवर्ण । पर्जन्य वर्षण पर जो कृष्ण होता है, वह नील है । जो आपः के अन्दर विद्योतित होता है, वह सुवर्ण है । ऋग्वेद ७.९७.६ में नभ के अरुष रूप का उल्लेख है । ऋग्वेद १०.९६.३ में इन्द्र में हरित रूपों के समावेश? का उल्लेख है । ऋग्वेद १०.२१.३ में कृष्ण व अर्जुन रूपों का उल्लेख है ।  अथर्ववेद   १३.२.२८ में हरित से दो रूपों की उत्पत्ति का तथा १३.२.४२ में शुक्र से २ रूपों की उत्पत्ति का उल्लेख है । अथर्ववेद १०.८.३१ के अनुसार अवि ऋत से आवृत है और उसके रूप से वृक्ष हरित हैं । तैत्तिरीय संहिता २.१.३.३ में सौम्य बभ्रु के अन्न का रूप होने का उल्लेख है । तैत्तिरीय संहिता २.१.६.२ में मारुत पृश्नि के अन्न का रूप, ऐन्द्र अरुण के इन्द्र का रूप होने का उल्लेख है । तैत्तिरीय संहिता २.१.८.५ में प्राजापत्य कृष्ण पशु के वृष्टि का रूप होने का उल्लेख है । तैत्तिरीय संहिता २.४.९.१ में कृष्ण वास: के वृष्टि का रूप होने का उल्लेख है । तैत्तिरीय संहिता ३.३.४.१ में अदाभ्य अंशु ग्रह के संदर्भ में उल्लेख है कि रात्रि अह का रूप है । अह के रूप द्वारा सूर्य की रश्मियों द्वारा द्युलोक से वृष्टि का च्यवन होता है । तैत्तिरीय संहिता ५.२.४.२ में कृष्ण को निर्ऋति का रूप कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ६.१.३.१ में कृष्णाजिन दीक्षा के संदर्भ में उल्लेख है कि ऋचाओं का वर्ण शुक्ल है और सामों का वर्ण कृष्ण है । तैत्तिरीय संहिता ६.१.६.५ के अनुसार वाक् रोहित रूप धारण करके गन्धर्वों से दूर भाग गई । वही रोहित का जन्म है । तैत्तिरीय संहिता ६.१.६.७ के अनुसार अरुण पिङ्गाक्षी द्वारा सोम का क्रय करते हैं क्योंकि यह सोम का रूप है । भागवत पुराण ११.५ में रूपों का ४ युगों में विभाजन किया गया है । कृतयुग में शुक्ल रूप होता है, हंस, सुपर्ण, वैकुण्ठ, धर्म, योगेश्वर, ईश्वर, पुरुष, अव्यक्त, परमात्मा आदि नाम हैं, जटिल, वल्कलाम्बर, कृष्णाजिन, उपवीत आदि लक्षण हैं । त्रेता में रक्त वर्ण होता है , हिरण्यकेश, त्रय्यात्मा, स्रुक् - स्रुवा लक्षण हैं । हरि, ३ विद्याएं, विष्णु, यज्ञ, पृश्निगर्भ, सर्वदेव, उरुक्रम, वृषाकपि, जयन्त, उरुगाय नाम हैं । द्वापर में श्याम, पीतवासा वर्ण है , वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, विश्वेश्वर, विश्वा, सर्वभूतात्मा नाम हैं । कलियुग में उपासनीय ईश्वर का कृष्ण वर्ण, त्विषाकृष्ण, साङ्गोपांग, अस्त्र, पार्षद आदि लक्षण हैं ।

     पुराणों में कुरूप राजा पुरूरवा द्वारा ४० दिनों तक नक्षत्र इष्टि द्वारा रूप प्राप्ति के आख्यान के संदर्भ में अथर्ववेद ९.१२.१५/९.७.१५ में गौ के संदर्भ में उल्लेख आया है कि विश्वव्यचा चर्म है, ओषधियां लोम हैं और नक्षत्र रूप है । तैत्तिरीय संहिता ५.२.१२.२ में नक्षत्रों सहित द्यौ द्वारा रूप करण का उल्लेख है । तैत्तिरीय संहिता   ५.७.२०.१ में द्युलोक को रूप द्वारा और नक्षत्रों को प्रतिरूप द्वारा प्राप्त करने का उल्लेख है । तैत्तिरीय संहिता ७.५.१६.१ में उल्लेख है कि पृथिवी महिमा है, ओषधि - वनस्पति रूप हैं, अग्नि तेज है । द्यौ महिमा है, नक्षत्र रूप हैं, आदित्य तेज है । इस प्रकार वैदिक साहित्य में द्युलोक  व नक्षत्रों द्वारा रूप प्राप्ति के उल्लेख तो स्पष्ट हैं लेकिन अग्नि के ८ रूपों का उल्लेख गौण रूप में ही आया है । शतपथ ब्राह्मण ६.१.३.१८, ६.५.१.३ आदि में आपः से फेन, फेन से मृदा, मृदा से सिकता, सिकता से अश्मा, अश्मा से अयः, अयः से हिरण्य की उत्पत्ति के उल्लेख आते हैं । यह अग्नि के ८ पूर्व रूप कहलाते हैं । कुमार अग्नि का नवां रूप है ।

     अथर्ववेद १.२२.३ व १९.१.३ में रूपं रूपं वयो वयः का उल्लेख आया है । तैत्तिरीय संहिता १.४.४३.२ में हिरण्य का होम करके फिर उसे ग्रहण करने के संदर्भ में रूप से रूप का ग्रहण और वयः से वयः का ग्रहण करने का उल्लेख है । शतपथ ब्राह्मण १०.२.१.१ में उल्लेख आता है कि प्रजापति ५ पशुओं के रूपों द्वारा स्वर्गलोक जाने में असफल हुए । वयों/पक्षियों द्वारा सफल हुए । इसलिए कहा गया है कि रूपं रूपं वयो वयः । पौराणिक साहित्य में जहां रूप और वयः का साथ - साथ उल्लेख आता है, वहां वयः का अर्थ यौवन लिया जाता है ( उदाहरण के लिए, महाभारत आदि पर्व २१६.२, उद्योग पर्व १०३.२१, वन पर्व १२३.२१) ।

प्रथम प्रकाशन : २-१०-२००५ ई.

Puraanic literature is full of incidences where the celestial girls called Apsaraas  are stated to be extremely beautiful who try to entice those who are involved in penances. On the other hand, gandharvaas are adept in the art of singing. Those who are pious gandharvaas, they always sing name of god. Gandharvaas are supposed to be husbands of apsaraas. Dr. Fatah Singh often states that Gandharvaas have knowledge/name, but not emotion/love/form, while the celestial girls have form but not knowledge. Hence, gandharvaas  aspire for form, while apsaras aspire for name. This statement is supported by quotation from vedic text. In vedic texts, we have a trio of three, not two. These three are action, name and form, or action, knowledge and emotion. One vedic text states that Aatman is the abode of action, just like a super eye is the abode of all forms. The purpose of aatman seems to be to activate all life forces, praanas by action, so that the main prana may become immortal. Then name and form, or knowledge and emotion, have been stated to be encircling/covering this immortal praana. Just like praana can be mortal or immortal, in the same way name and form can be true or untrue. It is universally understood  in vedic texts that  the purpose of name is to awaken the praana, just like a sleeping person awakens on being called by his name. In the same way, vedic texts state that different types of praanas can be awakened by different names. So much so, that vedic and puraanic texts have prescribed hundred specific names called Shatarudriya. What effect form has on praanas, is not yet clear.

One upanishada states that it is not the trio of action, name and form, but it is fivefold entity. The first three are asti/pure existence, bhaati/appearance and priya/fondliness. These are of the nature of Brahman. The other two are form and name, whose nature is worldly. This indicates that the context is of coming down from the trance when there is only existence. Then subsequently, appearence etc. develop gradually. Modern solid state physics, while dealing with inanimate objects, specifies only kinetic and potential energy. There is an equation called Shrodinger equation which expresses the balance of kinetic and potential energy in a balanced system. One type of energy can be converted into the other, but the sum will remain constant. Kinetic energy can be equated with action, while potential energy can be equated with knowledge. There is not yet any room for emotion/form in modern physics.

Shiva puraana states that form is determined by all the three – knowledge, action and emotion. In one puraanic story, action can be killed only by converting it into emotion. This is an important statement, as there are frequent talks in upanishadic literature of becoming actionless.

It is noteworthy that in the sacrifice of 6 days, the name is invoked on the fifth day by a special saama called Mahaanaamni saama. The speciality of the sixth day is the recitation of mantra in a specially broken form. This may be the state of ecxtacy when one is unable to express properly.  This ritual is called Shilpa. In common parlance, Shilpa means to cut the rock to give it a special form. In vedic texts, it has been stated that Shilpa is not the actual form, but only an image. There are statements in vedic literature what is suitable for whom. Aatman is supposed to see the real form, while the surrounding praanas can be satisfied with image only. Form and image can become one when there is no struggle between lower and higher praanas.

There is a rare statement in a vedic text that name is connected with fire/agni, while form is connected with moon/soma.

The rigvedic mantras frequently talk of Vishwaa rupa, the form which is introvert. What does it may mean? Does it mean the vast sight of god which Arjuna was able to see in the 11th chapter of Gita? Or the sight which king Dhritaraashtra had with special eyes? It has been stated that this inner form develops only from Prajaapati who is in a way year/samvatsara also. As has been stated elsewhere also, year in vedic literature may mean the special rotation of praana/sun, vaak/earth and mind/moon. The wheel of lord Vishnu called Sudarshana may also express the same.

Twashtaa has been stated universally to shape the form. For this, it is necessary that soma/moon impregnates with divine showers of semen. Then only Twashtaa is able to give it a shape. There is a famous story in puraanas where Twashtaa cuts the redundant lusture of  sun and shapes different weapons out of it for gods. It is expected that this redundant lusture is the same extra energy in the body which has been called semen. Twashtaa has been stated to be one who can invoke praanas, just like a frog who always invokes divine rain for himself.

Various types of forms have been stated in vedic literature, like white, dark, red/ascending etc. The statement in 11th chapter of Bhaagavata puraana becomes import when it classifies these types in 4 yugas viz. Krita, Tretaa, Dwaapara and Kali.. White is connected with Krita while dark is connected with Kali. The other rohita may be placed in between. The nature of dark form is still to be investigated, as there are so many stories in puraanas of goddess Kaali. The statements of vedic literature about the nature of these forms have also to be kept in mind.

There is the story of King Puruuravaa who gains beauty by special worship of constellations. This is supported by vedic literature. Not only that, vedic literature states that this is the highest form of beauty. What are the lower forms, one is yet to investigate properly.

 

 

संदर्भ

 

*यानीन्द्राग्नी चक्रथुर्वीर्याणि यानि रूपाण्युत वृष्ण्यानि - ऋ. १.१०८.५

*स्थात्रे रेजन्ते विकृतानि रूपशः - ऋ. १.१६४.१५

*त्वष्टा रूपाणि हि प्रभु: पशून्विश्वान्त्समानजे - ऋ. १.१८८.९

*रूपं रूपं मघवा बोभवीति - ऋ. ३.५३.८

*अरूक्षितं दृश आ रूपे अन्नम् - ऋ. ४.११.१

*आ नामभिर्मरुतो वक्षि विश्वाना रूपेभिर्जातवेदो हुवानः - ऋ. ५.४३.१०

*अधा पारावता इति चित्रा रूपाणि दर्श्या - ऋ. ५.५२.११

*विश्वा रूपाणि प्रति मुञ्चते कविः - ऋ. ५.८१.२

*रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव तदस्य रूपं प्रतिचक्षणाय । इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते युक्ता ह्यस्य हरयो शता दश ॥ - ऋ. ६.४७.१८

*अमीवहा वास्तोष्पते विश्वा रूपाण्याविशन् - ऋ. ७.५५.१

*नभो न रूपमरुषं वसानाः - ऋग्वेद ७.९७.६

*अरं क्षयाय नो महे विश्वा रूपाण्याविशन् - ऋ. ८.१५.१३

*- - - -वेद नामानि गुह्या । स कविः काव्या पुरु रूपं द्यौरिव पुष्यति नभन्तामन्यके समे - ऋ. ८.४१.५

*रूपा रोहिण्या कृता - ऋ. ८.१०१.१३

*त्वष्टा रूपेव तक्ष्या - ऋ. ८.१०२.८

*पुनानो रूपे अव्यये विश्वा अर्षन्नभि श्रियः । - ऋ. ९.१६.६

*विश्वा रूपाण्याविशन् पुनानो याति हर्यतः - ऋ. ९.२५.४

* सं रूपैरज्यते हरि: - ऋ. ९.३४.४

*विश्वा रूपाभ्यर्षसि ( सोमा) - ऋ. ९.६४.८

*ऊर्ध्वो गन्धर्वो अधि नाके अस्थाद्विश्वा रूपा प्रतिचक्षाणो अस्य - ऋ. ९.८५.१२

*विश्वा यद्रूपा परियात्यृक्वभिः - ऋ. ९.१११.१

*कृष्णा रूपाण्यर्जुना वि वो मदे - ऋ. १०.२१.३

*सूर्यायाः पश्य रूपाणि तानि ब्रह्मा तु शुन्धति - ऋ. १०.८५.३५

*इन्द्रे नि रूपा हरिता मिमिक्षिरे - ऋ. १०.९६.३

*य इमे द्यावृथिवी जनित्री रूपैरपिंशद्भुवनानि विश्वा - ऋ. १०.११०.९

*हरित्वचा वर्चसा सूर्यस्य श्रेष्ठै रूपैस्तन्वं स्पर्शयस्व - ऋ. १०.११२.३

*- - - जानन्तो रूपमकृपन्त विप्रा - - - विदद् गन्धर्वो अमृतानि नाम - ऋ. १०.१२३.४

*कविः कवित्वा दिवि रूपमासजत् - ऋ. १०.१२४.७

*विश्वा रूपावचाकशत - ऋ. १०.१३६.४

*विश्वा रूपाभि चष्टे शचीभिः - ऋ. १०.१३९.३

*या देवेषु तन्वमैरयन्त यासां सोमो विश्वा रूपाणि वेद ( गावः ) - ऋ. १०.१६९.३

*विष्णुर्योनि: कल्पयतु त्वष्टा रूपाणि पिंशतु । आ सिंचतु प्रजापतिर्धाता गर्भं दधातु ते - ऋ. १०.१८४.१

*घोषा इदस्य शृण्विरे न रूपं तस्मै वाताय हविषा विधेम - ऋ. १०.१६८.४

*ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वा रूपाणि बिभ्रतः । - अथर्ववेद १.१.१

*रूपं रूपं वयोवयस्ताभिष्ट्वा परि दध्मसि - अ. १.२२.३

*तदासुरी युधा जिता रूपं चक्रे वनस्पतीन् - अथर्ववेद १.२४.१

*श्यामा सरूपंकरिणी पृथिव्या अध्युद्भृता - अ. १.२४.४

*त्वष्टा येषां रूपधेयानि वेदास्मिन् तान् गोष्ठे सविता नि यच्छतु - अ. २.२६.१

*अश्विनो रूपं परिधाय मायाम् - अथर्व २.२९.६

*इन्द्रो रूपेणाग्निर्वहेन प्रजापतिः परमेष्ठी विराट् - अ. ४.११.७

*आविष्कृणुष्व रूपाणि मात्मानमप गूहथा: । अथो सहस्रचक्षो त्वं प्रति पश्या: किमीदिनः ॥- - - - - - -  - अ. ४.२०.५

*विष्णुर्योनिं कल्पयतु त्वष्टा रूपाणि पिंशतु - अ. ५.२५.५

*धातः श्रेष्ठेन रूपेणास्या नार्या गवीन्यो: । पुमांसं पुत्रमा धेहि दशमे मासि सूतवे ॥ त्वष्टा श्रेष्ठेन रूपेणास्या नार्या गवीन्यो: । पुमांसं - - - - - । सवित: श्रेष्ठेन रूपेणास्या नार्या गवीन्यो: । पुमांसं - - - - - । प्रजपते श्रेष्ठेन रूपेणास्या नार्या गवीन्यो: । पुमांसं पुत्रमा धेहि दशमे मासि सूतवे ॥ - अ. ५.२५.१०-१३

*त्वष्टा युनक्तु बहुधा नु रूपा अस्मिन् यज्ञे सुयुजः स्वाहा । - अ. ५.२६.८

*जगतु क्रव्याद् रूपं यो अस्य मांसं जिहीर्षति - अ. ५.२९.१५

*अयं यो अभिशोचयिष्णुर्विश्वा रूपाणि हरिता कृणोषि - अ. ६.२०.३

*इहैव स्त मानु गात विश्वा रूपाणि पुष्यत - अ. ७.६२.७ह्न७.६०.७

*अमावास्ये न त्वदेतान्यन्यो विश्वा रूपाणि परिभूर्जजान - अ. ७.८४.४ह्न७.७९.४

*प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा रूपाणि परिभूर्जजान - ७.८५.३ह्न७.८०.३

*साहस्रत्वेष ऋषभः पयस्वान् विश्वा रूपाणि वक्षणासु बिभ्रत् - अ. ९.४.१

*सोमेन पूर्णं कलशं बिभर्षि त्वष्टा रूपाणां जनिता पशूनाम् । - अ. ९.४.६

*इन्द्रस्य रूपं ऋषभो वसानः - अ. ९.४.७

*इदमिदमेवास्य रूपं भवति तेनैनं संगमयति - अ. ९.५.२४

*विश्वव्यचाश्चर्मौषधयो लोमानि नक्षत्राणि रूपम् ( गौः ) - अ. ९.१२.१५ह्न९.७.१५

*वि यस्तस्तम्भ षडिमा रजांस्यजस्य रूपे किमपि स्विदेकम् - अ. ९.१४.७

*स्थात्रे रेजन्ते विकृतानि रूपशः - अ. ९.१४.१६

*ध्राजिरेकस्य ददृशे न रूपम् - अ. ९.१५.२६ह्न९.१०.२६

*को अस्मिन् रूपमदधात् को मह्मानं च नाम च - अ. १०.२.१२

*अहोरात्रे प्र जायेते अन्यो अन्यस्य रूपयोः - अ. १०.८.२३

*अविर्वै नामे देवतर्ऋतेनास्ते परीवृता । तस्या रूपेणेमे वृक्षा हरिता हरितस्रजः ॥ - अ. १०.८.३१

*बालेभ्यः शफेभ्यो रूपायाहन्ये ते नमः - अ. १०.१०.१

*त्वचे रूपाय संदृशे प्रतीचीनाय ते नमः - अ. ११.२.५

*उच्छिष्टे नाम रूपं चोच्छिष्टे लोक आहितः - अ. ११.९.१ह्न११.७.१

*श्वन्वतीरप्सरसो रूपका उतार्बुदे - अ. ११.११.१५ह्न११.९.१५

*पृथग् रूपाणि बहुधा पशूनामेकरूपो भवसि संसमृद्ध्या - अ. १२.३.२१

*त्वष्ट्रेव रूपं सुकृतं स्वधिति - अ. १२.३.३३

*आविष्कृणुष्व रूपाणि यदा स्थाम जिघांसति (वशा) - अ. १२.४.१९

*आयुश्च रूपं च नाम च कीर्तिश्च - अ. १२.६.३ह्न१२.५.९

*ऊर्ध्वो रोहितो अधि नाके अस्थाद् विश्वा रूपाणि जनयन् युवा कविः । - अ. १३.१.११

*उद्यन् रश्मीना तनुषे विश्वा रूपाणि पुष्यसि - अ. १३.२.१०

*अतन्द्रो यास्यन् हरितो यदास्थाद् द्वे रूपे कृणुते रोचमानः १३.२.२८

*आरोहन्छुक्रो बृहतीरतन्द्रो द्वे रूपे कृणुते रोचमानः - अ. १३.२.४२

*सूर्यायाः पश्य रूपाणि तानि ब्रह्मोत शुम्भति - अ. १४.१.२८

*इदं तद् रूपं यदवस्त योषा जायां जिज्ञासे मनसा चरन्तीम् - अ. १४.१.५६

*अहं वि ष्यामि मयि रूपमस्या वेदवित्पश्यन् मनसः कुलायम् - अ. १४.१.५७

*रुक्मप्रस्तरणं वह्यं विश्वा रूपाणि बिभ्रतम् - अ. १४.२.३०

*रूपं रूपं वयोवयः संरभ्यैनं परि ष्वजे - अ. १९.१.३

*अश्वस्य ब्रध्नं पुरुषस्य मायुं पुरु रूपाणि कृणुषे विभाती ( रात्रिः ) - अ. १९.४९.४

*ततः स्वप्नेदमध्या बभूविथ भिषग्भ्यो रूपमपगूहमानः - अ. १९.५६.२

*इन्द्रे नि रूपा हरिता मिमिक्षिरे - अ. २०.३०.३

*तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्यो रूपं कृणुते द्योरुपस्थे - अ. २०.१२३.२

*विश्वा रूपाणि प्रति मुञ्चते कवि इति रराट्यामीक्षमाणो - ऐतरेय ब्राह्मण १.२९

*संवत्सरः प्रजापतिर्यं प्रजायमानं विश्वं रूपमिदमनु प्रजायते - ऐ.ब्रा. २.१७

*मद्वद्वै तृतीयसवनस्य रूपं - ऐ.ब्रा. ३.२९

*तीन अग्नियां पवमानä पावक व शुचि पृथिवीä अन्तरिक्ष व द्युलोक के रूप - शतपथ ब्राह्मण २.२.१.१४

*देवों ने अग्नि में ग्राम्य व आरण्य रूप रखे । त्वष्टा ने पुनराधेय देखा व रूपों का पुनः सृजन किया - शतपथ २.२.३.२

*कृष्णाजिन दीक्षा : ऋक्सामयोः शिल्पे स्थः इति । यद्वै प्रतिरूपम् - तच्छिल्पम् । ऋचां च साम्नां च प्रतिरूपे स्थः - इत्येवैतदाह - श.ब्रा. ३.२.१.५

*सप्त पदान्यनु निक्रामति - - - स वै वाच एव रूपेणानु निक्रामति - - - वस्व्यस्यदितिरस्यादित्याऽसि चन्द्राऽसि - श.ब्रा. ३.३.१.२

*प्रवर्ग्यकर्मणि अवान्तरदीक्षा : राक्षसों के वध हेतु अग्नि का रूप धारण - श.ब्रा. ३.४.३.८

*शाला में बैठकर अभिमन्त्रण : रूपेण वो रूपमभ्यागाम् इति । पशुओं का कथन - श.ब्रा. ४.३.४.१४

*द्वे वै श्यामस्य रूपं - शुक्लछ चैव लोमä कृष्ण च । द्वन्द्वं वै मिथुनम् प्रजननम् - श.ब्रा. ५.१.३.९ä ५.२.५.८

*भूमा वा एतद्रूपाणां - यत् पृषतो गो: - श.ब्रा. ५.३.१.६ä ५.५.१.१०

*प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा रूपाणि परि ता बभूव । - श.ब्रा. ५.४.२.९

*वरुण द्वारा सोए भर्ग की प्राप्ति - - - - - त्वष्ट्रा रूपै: - श.ब्रा. ५.४.५.२

*त्वाष्ट्रं दशकपालं पुरोडाशं निर्वपति । त्वष्टा वै रूपाणामीष्टे । - श.ब्रा. ५.४.५.८

*तान्येतान्यष्टावाग्निरूपाणि । कुमारो नवमः । सैवाग्नेस्त्रिवृत्ता । यद्वेवाष्टावग्नि रूपाणि । अष्टाक्षरा गायत्री । - तस्मादाहुः - गायत्रोऽग्निरिति । सोऽयं कुमारो रूपाण्यनुप्राविशत् । न वा अग्निं कुमारमिव पश्यन्ति - एतान्येवास्य रूपाण्यनु प्राविशत् । - श.ब्रा. ६.१.३.१८

*प्रजापति द्वारा अग्नि रूपों का ध्यान । कुमार का । अग्नि का ५ पशुओं में प्रवेश । - श.ब्रा. ६.२.१.१

*अषाढेष्टका : तामूर्ध्वामुद्गृह्णञ्जुहोति । इमां तदूर्ध्वां रूपैरुद्गृह्णाति । - श.ब्रा. ६.३.१.४

*पशुर्वाऽअग्निः । पशुभिरिममन्विच्छाम । स स्वाय रूपायाविर्भविष्यसीति ( रासभä अजä अश्वä कपाल ) - श.ब्रा. ६.३.१.२२

*एतेभ्यो वाऽएष रूपेभ्योऽग्रेऽसृज्यत । तेभ्यो एवैनमेतज्जवयति - श.ब्रा. ६.३.१.२८

*यदेव तत्फेनो द्वितीयं रूपमसृज्यत - तदेवैतद्रूपं करोति - श.ब्रा. ६.५.१.३

*शुक्ल कृष्ण लोम ऋक् साम रूप - श.ब्रा. ६.७.१.७

*शिक्य पाश मोचनम् : विश्वा रूपाणि प्रतिमुञ्चते कविः । असौ वा आदित्यः कविः । विश्वा रूपा शिक्यं - श.ब्रा. ६.७.२.४

*निवेशनः संगमनो वसूनाम् । विश्वा रूपाऽभिचष्टे शचीभिः । - श.ब्रा. ७.२.१.२०

*चर्म पर चिति : तद् यत् चर्मणि । चर्म वै रूपम् । रूपाणां उपाप्त्यै । लोमतः । लोम वै रूपम् । रूपाणां उपाप्त्यै । रोहिते । रोहिते ह सर्वाणि रूपाणि । - श.ब्रा. ७.३.२.१

*अस्यां ह्यापो यन्ति । अस्यां तां सादयति । तद्या अस्यैतेभ्यो रूपेभ्य आप आयन् - ता अस्मिन्नेतत्प्रतिदधाति । अथोऽएतान्येवास्मिन्नेतद्रूपाणि दधति - श.ब्रा. ७.५.२.५०

*तस्य मनो वैश्वकर्मणम् । मनस्तस्माद्रूपाद्वायोर्निरमिमीत - श.ब्रा. ८.१.१.८

*चक्षुस्तस्माद् रूपादादित्यान्निरमिमीत - श.ब्रा. ८.१.२.२

*श्रोत्रं तस्माद्रूपाद्दिग्भ्यो निरमिमीत - श.ब्रा. ८.१.२.५

*वाचं तस्माद् रूपाच्चन्द्रमसो निरमिमीत - श.ब्रा. ८.१.२.८

*ऋतव्येष्टका : रूपै: समायामेति । त एकैकम् ऋतुं रूपै: समायन् । तस्मादेकैकस्मिनृतौ सर्वेषामृतूनां रूपम् । - श.ब्रा. ८.७.१.४

*गन्ध व रूप से गन्धर्वाप्सरसश्चरन्ति - श.ब्रा. ९.४.१.४

*प्रजापति ५ पशु रूपों द्वारा स्वर्ग लोक जाने में असफल । वयांसि द्वारा गए । - श.ब्रा. १०.२.१.१

*मित्रविन्देष्टि : त्वष्टा रूपाणां रूपकृद् रूपपती रूपेण पशूनस्मिन्यते मयि दधातु स्वाहा । - श.ब्रा. ११.४.३.१७

*शुक्रं त्वा शुक्र आधूनोमि । अह्नो रूपे सूर्यस्य रश्मिषु - श.ब्रा. ११.५.९.९

*त्वष्टा वै पशूनां मिथुनानां रूपकृत् - - - - त्वष्ट्रे पुरुरूपाय स्वाहा - श.ब्रा. १३.१.९.७

*त्रयं वा इदं । नाम रूप कर्म । तेषां नाम्नां वागित्येतदेषामुक्थ्यम् । - - - -अथ रूपाणां । चक्षुरित्येतदेषामुक्थ्यम् । - - - - अथ कर्मणाम् । आत्मेत्येतदेषामुक्थ्यम् । - - - - प्राणो वा अमृतम् । नामरूपे सत्यम् । - श.ब्रा. १४.४.४.१

*अथ रूपाणां । चक्षुरित्येतदेषामुक्थम् । अतो हि सर्वाणि रूपाणि उत्तिष्ठन्ति । - श.ब्रा. १४.४.४.२

*द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे - मूर्तं चैवामूर्तं च । मर्त्यं चामृतं च । स्थितं च यच्च । सच्च त्यच्च । - श.ब्रा. १४.५.३.१

*एवं सर्वेषां रूपाणां चक्षुरेकायनम् । - श.ब्रा. १४.५.४.११ä १४.७.३.१२

*मधु विद्या आने पर रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव - बृहदारण्यक उपनिषद २.५.१९

*आदित्य चक्षु में प्रतिष्ठित । कस्मिन्नु चक्षुः प्रतिष्ठितं भवतीति । रूपेष्विति । कस्मिन्नु रूपाणि - हृदये इति - श.ब्रा. १४.६.९.२१

*सिकता - एतद्वा अग्नेर्वैश्वानरस्य रूपम् । - तैत्तिरीय ब्राह्मण १.१.३.१

*अग्निर्देवेभ्यो निलायत । आखू रूपं कृत्वा । - तै.ब्रा. १.१.३.३

*प्रजापति द्वारा वराह रूप धारण करके पृथिवी को लाना - तै.ब्रा. १.१.३.६

*अग्निर्देवेभ्यो निलायत । अश्व रूप करके । - तै.ब्रा. १.१.३.९ä १.२.१.५

*अग्नीधे ददाति । अग्निमुखानेवर्तून्प्रीणाति । उपबर्हणं ददाति । रूपाणामवरुद्ध्यै । - तै.ब्रा. १.१.६.९

*पुष्ट्यै वा एतद्रूपम् । यदजा । - तै.ब्रा. १.३.७.७

*(यूप का विरोहण नहीं होना चाहिए) । त्वाष्ट्रं बहुरूपमालभेत । त्वष्टा वै रूपाणामीशे । य एव रूपाणामीशे । सोऽस्मिन्पशून्वीर्यं यच्छति । - तै.ब्रा. १.४.७.१

*लोहितायसेन निवर्तयति । - - - - एतदेवैनां रूपं कृत्वा निवर्तयति - तै.ब्रा. १.५.६.५

*कृष्णं वासः कृष्णतूषं दक्षिणा । एतद्वै निर्ऋत्यै रूपम् । - तै.ब्रा. १.६.१.४

*आण्डस्य वा एतद्रूपम् । यदामिक्षा - तै.ब्रा. १.६.२.४

*( वरुण का वीर्य दशधा गिरा ) । त्वष्टा रूपेण नवमे । - - - - अन्तरा त्वाष्ट्रेण । रेत एव हितं त्वष्टा रूपाणि विकरोति । - तै.ब्रा. १.८.१.२

*त्वाष्ट्रं अष्टाकपालम् । रूपाण्येव तेन कुर्वते । - तै.ब्रा. १.८.४.२

*उद्वद्वा अनुष्टुभो रूपम् - तै.ब्रा. १.८.८.२

*अपो निनयति । अवभृथस्यैक रूपमकः । - तै.ब्रा. २.१.४.९

*पयसा पशुकामाय । एतद्वै पशूनां रूपम् । - तै.ब्रा. २.१.५.५

*ता रूपेणानुप्राविशत् । तस्मादाहुः । रूपं वै प्रजापतिः । ता नाम्नाऽनुप्राविशत् । तस्मादाहुः । नाम वै प्रजापतिः । - तै.ब्रा. २.२.७.१

*( चक्षु व श्रोत्र की पराकाष्ठा ) । यया रूपाणि बहुधा वदन्ति । पेशांसि देवाः परमे जनित्रे । सा नो विराडनपस्फुरन्ती । वाग्देवी जुषतामिदं हविः । - तै.ब्रा. २.५.१.२

*त्वष्टा रूपाणि दधती सरस्वती - तै.ब्रा. २.५.३.३

*इयमेव सा या प्रथमा व्यौच्छत् । सा रूपाणि कुरुते पञ्च देवी । - तै.ब्रा. २.५.५.३

*उषाओं द्वारा ५ रूप - तै.ब्रा. २.५.६.५

*अश्विना भेषजं मधु । भेषजं नः सरस्वती । इन्द्रे त्वष्टा यशः श्रियम् । रूपं रूपमधुः सुते । - तै.ब्रा. २.६.१२.४

*( नवम प्रयाजदेवः ) । होता यक्षत्सुरेतसम् । त्वष्टारं पुष्टिवर्धनम् । रूपाणि बिभ्रतं पृथक् । - तै.ब्रा. २.६.१७.६

*अथ यत्त्वाष्ट्र: । त्वष्टा हि रूपाणि विकरोति । - तै.ब्रा. २.७.२.१

*प्रजापते रोहिणी वेतु पत्नी । विश्वरूपा बृहती चित्रभानुः । - तै.ब्रा. ३.१.१.१

*रोहिणी देवी उदगात्पुरस्तात् । विश्वा रूपाणि प्रतिमोदमाना । - तै.ब्रा. ३.१.१.२

*त्वष्टा नक्षत्रमभ्येति चित्राम् । सुभंससं युवतिं रोचमानाम् । निवेशयन्नमृतान्मर्त्यांश्च । रूपाणि पिंशन्भुवनानि विश्वा । - तै.ब्रा. ३.१.१.१०

*शुक्रमसि ज्योतिरसि तेजो ऽसीत्याह । रूपमेवास्यैतन्महिमानं व्याचष्टे । - तै.ब्रा. ३.३.४.४

*अथाज्यवतीभ्यामपः । रूपमेवाऽऽसामेतद्वर्णं दधाति । अपि वा उताऽऽहुः । यथा ह वै योषा सुवर्णं हिरण्यं पेशलं बिभ्रती रूपाण्यास्ते । - तै.ब्रा. ३.३.४.५

*य इमे द्यावापृथिवी जनित्री । रूपैरपिंशद् भुवनानि विश्वा । तमद्य होतरिषितो यजीयान् । देवं त्वष्टारमिह यक्षि विद्वान् । - तै.ब्रा. ३.६.३.४

*त्वष्ट्रे स्वाहा त्वष्ट्रे तुरीपाय स्वाहा त्वष्ट्रे पुरुरूपाय स्वाहा । त्वष्टा वै पशूनां मिथुनानां रूपकृत् । रूपमेव पशुषु दधाति । अथो रूपैरेवैनमुद्यच्छते । - तै.ब्रा. ३.८.११.२

*अञ्ज्येताय स्वाहा । कृष्णाय स्वाहा । श्वेताय स्वाहेत्यश्वरूपाणि जुहोति । रूपैरेवैनं समर्धयति । - तै.ब्रा. ३.८.१७.४

*विश्वा रूपाणि संभृतम् इति यज्ञो वै विश्वा रूपाणि - जै.ब्रा. १.७४

*एकरूपासु स्तुवन्ति । तस्माद् आरण्याः पशवः एकरूपाः - जै.ब्रा. १.८९

*पौष्कल साम से रूपाणि व्यकरोत् । पहले एकरूप थे - रोहित ही । फिर नाना रूप श्वेत रोहित कृष्ण । - जै.ब्रा. १.१६०

*खे रथस्य खे अनसः खे युगस्य शतक्रतो । अपालां इन्द्र त्रिष् पूत्वय् अकृणोस् सूर्यत्वचम् । तस्यै ह तत् कल्याणतमं रूपाणां तद् रूपम् आस । - जै.ब्रा. १.२२१

*प्रजापतिर~ एष यद्उद्गाता । स त्वष्टा स रेतसस् सेक्ता स रूपाणां विकर्ता - जै.ब्रा. १.२५९

*यत्र वै बहुवर्षी पर्जन्यो भवति कल्याणो ह वै तत्र बलीवर्दो हस्ती अश्वतरो पुरुषो आजायते । रूपं रूपं वाव तत्र कल्याणं आजायते । - जै.ब्रा. १.२७४

*अथैतेभ्यस् त्रिभ्यो रूपेभ्यो मध्यंदिनान् नेयात् अन्धस्वतो मरुत्वतः प्रत्नवतः । - जै.ब्रा. १.३०३

*चतुर्णां साम्नां षड~ रूपाणि व्यतिषजति - जै.ब्रा. १.३०८

*सर्वं ह खलु निधना जामि कल्पयति यो वै रूपा जामि कल्पयेत् - जै.ब्रा. १.३०८

*महं इन्द्रो य ओजसेत्य् ऐन्द्रं भवति । निष्कस्य हैतन् मणे रूपम् । तद् इद् आस भुवनेषु ज्येष्ठम् रथस्य हैतद् रूपम् । मह स्तवानो अद्रिव इति हस्तिनो हैतद् रूपम् । महद्रूपाणि - जै.ब्रा. २.१२

*आरम्भणीये ऽहन् सर्वाणि रूपाणि क्रियन्ते सर्वाणि रूपाणि वाचि । - जै.ब्रा. २.५७

*तद् होतारं ब्रूयात् उभे रूपे शंस यच् च राथन्तरं यच्च बार्हतम् । - जै.ब्रा. २.३४८

*प्रेति व ऐति गायत्री के रूप - जैमिनीय ब्राह्मण ३.१२

*अभि रथन्तरस्य रूपम् मरुत्वद् मध्यन्दिनस्य रूपम् - जै.ब्रा. ३.१३

*ता वा एता भवन्ति जगत्यस् त्रिष्टुब् वर्णा अह्नो रूपेण समृद्धा । यत्र वा अहारूपेण समृद्ध्यन्ति सं तत्रर्ध्यते । पवमानस्य विश्ववित् इत्य् अनुरूपो भवति । विश्ववित् इति सिमानां रूपम् । तद् आहुस् साम्न एव रूपं स्तोत्रियेण आरभन्ते ऽनुरूपेण अह्न इति । प्राणो वै स्तोत्रियो अपान अनुरूपः । - जै.ब्रा. ३.८५

*सुकन्या - च्यवन आख्यान - जै.ब्रा. ३.१२३

*उभयं शृणवच् च न इत्य् उभे एवैतेन रूपे समारभते यच् च पृष्ठ्यस्य षडहस्य यद् उ च छन्दोमानाम् - जै.ब्रा. ३.२२०

*सुरूपं रूपस्यैव समृद्ध्यै । सुरूप आङ्गिरस द्वारा - जै.ब्रा. ३.२२३

*प्रजा द्वाभ्यां रूपाभ्यां प्रत्याद्रवन् नीलेन च सुवर्णेन च । यत् पर्जन्यस्य वर्षिष्यतः कृष्णं तत् नीलम् । यद् अप्सु अन्तर~ विद्योतते तत् सुवर्णम् । यद् अश्नाति ओदनस्य तद् रूपंä यत् पिबति मन्थस्य तत् - जै.ब्रा.३.३४६

*तं पितरः पितृलोके ऽन्वैच्छन् यममुखः । ते ऽन्वविन्दन् यद् अपां रूपं तत् । तं मनुष्यास् अन्वैच्छन् मृत्युमुखा: । ते ऽन्वविन्दन् यत् क्षीरौदनस्य रूपं तत् । - जै.ब्रा. ३.३८३

*ऊर्ध्व दिशा । सर्वै रूपैस् सहासीनम् अन्वविन्दत् । - जै.ब्रा. ३.३८४

*शुक्रं ते अन्यद्यजतं ते अन्यत् । विषुरूपे अहनी द्यौरिवासि । - - - एतद्वै संवत्सरस्य प्रियतमम् रूपम् । योऽस्य महानर्थ उत्पत्स्यमानो भवति । - तैत्तिरीय आरण्यक १.२.४

*शिशिरः :- नैव रूपं न वासांसि । न चक्षुः प्रतिदृश्यते । - तै.आ १.६.१

*इन्द्रघोषा वो वसुभिः पुरस्तादुपदधताम् । मनोजवसो वः पितृभिर्दक्षिणत उपदधताम् । प्रचेता वो रुद्रैः पश्चादुपदधताम् । विश्वकर्मा च आदित्यैरुत्तरत उपदधताम् । त्वष्टा वो रूपैरुपरिष्टादुपदधताम् - तै.आ. १.२०.१

*चत्वारि वा अपां रूपाणि । मेघो विद्युत् । स्तनयित्नुर्वृष्टि: । तान्येवावरुन्धे । - तै.आ. १.२४.१

*वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम् । आदित्यवर्णं तमसस्तु पारे । सर्वाणि रूपाणि विचित्य धीरः । नामानि कृत्वाऽभिवदन्यदास्ते । - तै.आ. ३.१२.७

*द्वयं वा अग्ने रूपं निरुक्तं चानिरुक्तं च - शांखायन ब्राह्मण १.५

*तिसृधन्वं दक्षिणा तत्स्वस्त्ययनस्य रूपम् - शां.ब्रा. ४.२

*दण्डोपानहं दक्षिणा तदभयस्य रूपम् । - शां.ब्रा. ४.३

*तद्यदध्वर्यु हवींषि प्रजनयति तत्प्रजात्यै रूपम् - शां.ब्रा. ४.६

*यन्मिथुनौ गावौ ददाति तत्प्रजात्यै रूपम् । - शा.ब्रा. ५.४

*यच्छ~वेता दक्षिणैतमेव तत्प्रीणात्येतयैव तद्रूपं क्रियते - शां.ब्रा. ५.८

*शंय्वन्तं भवत्यभिक्रान्त्यै तद्रूपं - शां.ब्रा. ७.९

*इडान्तं भवत्यभिक्रान्त्यै तद्रूपं - शां.ब्रा. ८.२

*अस्तवती च संनवती चाभिरूपे अभिष्टौति - - - - इति तिस्रस्तपस्वतीरभिरूपा अभिष्टौति - यद्ययज्ञे अभिरूपं तत्समृद्धं - शां.ब्रा. ८.४

*अभि द्वयोरदधा उक्थ्यं वचो इत्यैन्द्र्यावभिरूपे अभिष्टौति - - - - - -पौष्णी च रौद्री चाभिरूपे अभिष्टौति - शां.ब्रा. ८.४

*इमां ते अग्ने समिधमित्यपराह्ने तद्रात्रे रूपं - - - - इमां ते अग्ने समिधमिति पूर्वाह्ने तदह्नो रूपं - शां.ब्रा. ८.८

*यमे इव यतमाने यदैतमित्यभिरूपया हविर्धाने अनुस्तौति - शां.ब्रा. ९.३

*- - -विश्वा रूपाणि प्रतिमुञ्चते कविरिति यच्छदिस्तृतीयमभिनिदधति तत्पूर्वया ऽनुवदति - शां.ब्रा. ९.३

* स (यूपः) नापनत एव स्यादशनायतो वा एतद्रूपं - - - - - - अभिनत इवोदरेण - - - तद्वै सुहितस्य रूपं - शां.ब्रा. १०.१

*त्र्यरत्निः स्याल्लोकानां रूपेण चतुरत्निः पशूनां रूपेण - - - - शां.ब्रा. १०.१

*शुक्लं च कृष्णं चाहोरात्रयोरूपेण शुक्लं वाऽथ लोहितं वाऽग्नीषोमयोरूपेणेति - शां.ब्रा. १०.३

*स्तोत्रियं शस्त्वा ऽनुरूपं शंसत्यात्मा वै स्तोत्रियः प्रजानुरूपः । तस्मात् प्रतिरूपमनुरूपं कुर्वीत प्रतिरूपो हैवास्य प्रजायामाजायते - शां.ब्रा. १५.४

*सुरूपकृत्नुं शंसत्यन्नं वै सुरूपमन्नमेव तदात्मन्धत्ते ऽथो रूपाणामेवैष सोमपीथो रूपमेव तदात्मन्धत्त - शां.ब्रा. १६.३

*द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चामूर्तं च । अथ यन्मoर्तं तदसत्यं यदमूर्तं तत्सत्यं - मैत्रायणी उपनिषद ६.३

*द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे कालश्चाकालश्च - मैत्रायणी उपनिषद ६.१५

*सर्वेषां रूपाणां चक्षुरेकायनम् - बृहदारण्यक उपनिषद २.४.११

*दिवं गच्छ सुवः पत रूपेण वो रूपमभ्यैमि वयसा वयः ( हिरण्यं हुत्वोद्गृह्णाति ) - तैत्तिरीय संहिता १.४.४३.२

*सोमस्याहं देवयज्यया सुरेता रेतो धिषीय त्वष्टुरहं देवयज्यया पशूनां रूपं पुषेयं - तै.सं. १.६.४.४ä १.७.४.५

*१० यज्ञायुधानि : द्वे द्वे संभरति याज्यानुवाक्ययोरेव रूपं करोत्यथो मिथुनमेव - तै.सं. १.६.८.२

*यच्छ्मश्रुणस्तत् पुरुषाणां रूपं यत् तूपरस्तदश्वानां यदन्यतोदन् तद्गवां यदव्या इव शफस्तदवीनां यदजस्तदजानां एतावन्तो वै ग्राम्याः पशवस्तान् रूपेणैवावरुन्द्धे । - तै.सं. २.१.१.५

*सौम्य बभ्रु - अन्न का रूप - तै.सं. २.१.३.३

*इन्द्राय वृत्रतुरे ललामं प्राशृङ्गमालभेत - - - एतद्वै वज|स्य रूपं समृद्ध्यै - तै.सं. २.१.३.५

*मारुतं पृश्निमालभेत अन्नकामो - - - पृश्निर्भवति एतद्वा अन्नस्य रूपं - तै.सं. २.१.६.२

*ऐन्द्रमरुणमा लभेत इन्द्रियकामो - - - अरुणो भ्रूमान् भवत्येतद्वा इन्द्रस्य रूपं - तै.सं. २.१.६.३

*वैश्वदेवं बहुरूपमा लभेतान्नकामो - - - - ग्रामकामो - तै.सं. २.१.६.४

*द्विरूपा वशा - मित्रावरुण - तै.सं. २.१.७.१

*प्राजापत्यं कृष्णमालभेत वृष्टिकामः । - - - कृष्णो भवत्येतद्वै वृष्ट्यै रूपं रूपेणैव वृष्टिमव रुन्द्धे - तै.सं. २.१.८.५

*दधि मधु घृतमापो धाना भवन्त्येतद्वै पशूनां रूपं रूपेणैव पशूनवरुन्द्धे - तै.सं. २.३.२.८

*आज्यमवेक्षते रूपमेवास्यैतन्महिमानं व्याचष्टे - तै.सं. २.३.११.२

*रेतः सौम्येन दधाति रेत एव हितं त्वाष्टा रूपाणि वि करोति - तै.सं. २.४.६.१

*मारुतमसि मरुतामोज इति कृष्णं वासः कृष्णतूषं परिधत्त एतद्वै वृष्ट्यै रूपं स्वरूप एव भूत्वा पर्जन्यं वर्षयति - तै.सं. २.४.९.१

*पुरोडाशः यवमयो मध्य एतद्वा अन्तरिक्षस्य रूपं समृद्ध्यै - तै.सं. २.४.११.५

*वेदिः - दक्षिणतो वर्षीयसी करोति देवयजनस्यैव रूपमकः - तै.सं. २.६.४.३

*सोमं यजति रेत एव तद्दधाति त्वष्टारं यजति रेत एव हितं त्वष्टा रूपाणि वि करोति - तै.सं. २.६.१०.३

*ककुहं रूपं वृषभस्य रोचते - तै.सं. ३.३.३.२

*अदाभ्यांशुग्रह मन्त्राः :- शुक्रं ते शुक्रेण गृह्णामीत्याह एतद्वा अह्नो रूपं यद्रात्रिः सूर्यस्य रश्मयो वृष्ट्या ईशते । अह्न एव रूपेण सूर्यस्य रश्मिभिः दिवो वृष्टिं च्यावयति - तै.सं. ३.३.४.१

*ककुहं रूपं वृषभस्य रोचते बृहदित्याह एतद्वा अस्य ककुहं रूपं यद्वृष्टी रूपेणैव वृष्टिमव रुन्द्धे - तै.सं. ३.३.४.२

*रूपमसि वर्णो नाम बृहस्पतेराधिपत्ये प्रजां मे दा - तै.सं. ३.३.५.१ä ३.३.५.३

*त्वष्टा रूपाणां ( अधिपतिः ) - तै.सं. ३.४.५.१

* - - - -एतद्वै स्रnचां रूपं यस्यैवं रूपाः स्रnचो भवन्ति सर्वाण्येवैनं रूपाणि पशूनामुप तिष्ठन्ते मास्यापरूपमात्मञ्जायते - तै.सं. ३.५.७.४

*सर्वासां वा एतद्देवतानां रूपं यद्दधि ग्रहो यस्यैष गृह्यते सर्वाण्येवैनं रूपाणि पशूनामुपतिष्ठन्त - तै.सं. ३.५.९.१

*विश्वा रूपाणि प्रति मुञ्चते कविः प्रासावीद् भद्रं द्विपदे चतुष्पदे - तै.सं. ४.१.१०.४

*नक्तोषासा समनसा विरूपे धापयेते शिशुमेकं समीची - तै.सं. ४.१.१०.४

*५ उषाएं : तासामु यन्ति प्रयवेण पञ्च नाना रूपाणि क्रतवो वसानाः - ४.३.११.२

*भद्रं ते अग्ने सहसिन्ननीकमुपाक आ रोचते सूर्यस्य । रुशद्दृशे ददृशे नक्तया चिदरूक्षितं दृश आ रूपे अन्नम् ॥ - तै.सं. ४.३.१३.२

*अश्वस्तोमीया मन्त्राः :- अत्रा ते रूपमुत्तममपश्यं जिगीषमाणमिष आ पदे गो: - तै.सं. ४.६.७.३

*प्रतूर्तं वाजिन्ना द्रवेत्यश्वमभि दधाति रूपमेवास्यैतन्महिमानं व्याचष्टे । - तै.सं. ५.१.२.१

*द्यौस्ते पृष्ठं पृथिवी सधस्थमित्याह ऐभ्यो वा एतं लोकेभ्यः प्रजापतिः समैरयद्रूपमेवास्यैतन्महिमानं व्याचष्टे - तै.सं. ५.१.२.६

*सुपर्णोऽसि गरुत्मानित्यवेक्षते रूपमेवास्यैतन्महिमानं व्याचष्टे - तै.सं. ५.१.१०.५

*स्तोमस्येव खलु वा एतद्रूपं यद्वात्सप्रं - तै.सं. ५.२.१.६

*सिकता निवपति एतद्वा अग्नेर्वैश्वानरस्य रूपं - तै.सं. ५.२.३.२

*निर्ऋत्यै रूपं कृष्णं रूपेणैव निर्ऋतिं निरवदयत - तै.सं. ५.२.४.२

*शंयुं बार्हस्पत्यं मेधा नापानमत्साऽग्निं प्राविशत् सो ऽग्ने कृष्णो रूपं कृत्वोदायत सोऽश्वं प्राविशत् - - - -तै.सं. ५.२.६.५

*(उखां) सिकताभिः पूरयति एतद्वा अग्नेर्वैश्वानरस्य रूपं - तै.सं. ५.२.९.१

*पृथिवी ते ऽन्तरिक्षेण वायुश्छिद्रं भिषज्यतु । द्यौस्ते नक्षत्रैः सह रूपं कृणोतु साधुया । - तै.सं. ५.२.१२.२

*वृष्टिसनि : पुरोवातसनिरसीत्याह एतद्वै वृष्ट्यै रूपं रूपेणैव वृष्टिमवरुन्धे - तै.सं. ५.३.१०.१

*अप्सुषदसि श्येनसदसीत्याह एतद्वा अग्ने रूपं - तै.सं. ५.३.११.२

*ब्रह्मण एतद्रूपं यत्कृष्णाजिनं - तै.सं. ५.४.४.४

*वसुधारा : अन्नं च मे घर्मश्च म इत्याहैतद्वै ब्रह्मवर्चसस्य रूपं - तै.सं. ५.४.८.४

*गर्भाश्च मे वत्साश्च म इत्याहैतद्वै पशूनां रूपं - तै.सं. ५.४.८.५

*वाजप्रसवीयं : समुद्रोऽसि नभस्वानिति एतद्वै वातस्य रूपं - तै.सं. ५.४.९.४

*श्मश्रुणः पुरुषाणां रूपं तूपर अश्वानां अन्यतोदन् गवां अव्या इव शफ अवीनां अज - अजानां - तै.सं. ५.५.१.३

*अग्नेः स्तोमं मनामह इत्याह मनुत एवैनमेतानि वा अह्नां रूपाणि - तै.सं. ५.५.६.१

*मृदा खननम् : अपां वा एतत्पृष्ठं यत्पुष्करपर्णं रूपेणैवैनदा हरति - तै.सं. ५.१.४.२

*ऋक् च मे साम च म इत्याह एतद्वै छन्दसां रूपं रूपेणैव छन्दांसि अवरुन्धे - तै.सं. ५.४.८.५

*समुद्रोऽसि नभस्वानित्याह एतद्वै वातस्य रूपं - तै.सं. ५.४.९.४

*प्रजापतिर्वा एष यदग्निस्तस्य प्रजाः पशवश्छन्दांसि रूपं सर्वान्वर्णानिष्टकानां कुर्यात् रूपेणैव प्रजां पशून्छन्दांसि अवरुन्धे - तै.सं. ५.७.८.३

*व्युष्टिं रूपेण निम्रुक्तिमरूपेण - तै.सं. ५.७.१९.१

*दिवं रूपेण नक्षत्राणि प्रतिरूपेण - तै.सं. ५.७.२०.१

*कृष्णाजिन द्वारा दीक्षा : ऋक्सामे वै देवेभ्यो यज्ञायाऽतिष्ठमाने कृष्णो रूपं कृत्वाऽपक्रम्यातिष्ठतां - - - - ते अहोरात्रयोः महिमानं अपनिधाय देवानुपावर्तेतामेष वा ऋचो वर्णो यच्छुक्लं कृष्णाजिनस्यैष साम्नो यत्कृष्णं ऋक्सामयोः शिल्पे स्थ । अह - रात्रि - तै.सं. ६.१.३.१

*सा( वाक्) रोहिद्रूपं कृत्वा गन्धर्वेभ्यः अपक्रम्यातिष्ठत् तद्रोहितो जन्म - तै.सं. ६.१.६.५

*अरूपया पिङ्गाक्ष्या क्रीणात्येतद्वै सोमस्य रूपं - तै.सं. ६.१.६.७

*त्वष्टा वै पशूनां मिथुनानां रूपकृद् रूपमेव पशुषु दधाति - तै.सं. ६.१.८.५

*यं कामयेत पशुमान्त्स्यात् इति लोमतस्तस्य मिमीतैतद्वै पशूनां रूपं रूपेणैवास्मै पशूनवरुन्धे - तै.सं. ६.१.९.३

*वेदी : दध्नोन्नयेतैतद्वै पशूनां रूपं - तै.सं. ६.२.४.१

*इन्द्रः सालावृकी रूपं कृत्वेमां त्रिः सर्वतः परिक्रामत्तदिमामविन्दन्त - तै.सं. ६.२.४.४

*क्रूर इव राजन्यो वज्रस्य रूपं - तै.सं. ६.२.५.२

*आमिक्षा वैश्यस्य पाकयज्ञस्य रूपं पुष्ट्यै - तै.सं. ६.२.५.३

*प्रातश्च सायं चासुराणां निर्मध्यं क्षुधो रूपं - तै.सं. ६.२.५.४

*तेभ्य उत्तरवेदिः सिंही रूपं कृत्वोभयानन्तराऽपक्रम्या तिष्ठत्ते - - - - - तै.सं. ६.२.७.१

*मेदसा स्रnचौ प्रोर्णोति मेदोरूपा वै पशवो - तै.सं. ६.३.११.१

*( आग्नीध्रे ) दिवं गच्छ सुवः पतेति हिरण्यम् हुत्वोद्गृह्णाति सुवर्गमेवैनं लोकं गमयति रूपेण वो रूपमभ्यैमीत्याह रूपेण ह्यासां रूपमभ्यैति - तै.सं. ६.६.१.२

*अरुणपिशङ्गोऽश्वो दक्षिणेतद्वै वज्रस्य रूपं - तै.सं. ६.६.११.६

*अग्निना तपोऽन्वभवद् वाचा ब्रह्म मणिना रूपाणि - तै.सं. ७.३.१४.१

*ऊर्ध्वानि पृष्ठानि भवन्त्यूर्ध्वाश्छन्दोमा उभाभ्यां रूपाभ्यां सुवर्गं लोकं यन्ति - - - - देवता एव पृष्ठैरव रुन्धते पशूञ्छन्दोमै: ओजो वै वीर्यं पृष्ठानि पशवः छन्दोमा ओजस्येव वीर्ये पशुषु प्रति तिष्ठन्ति - तै.सं. ७.४.२.३

*ये द्वे अहोरात्रे एव ते उभाभ्यां रूपाभ्यां - तै.सं. ७.४.४.३

*तस्य त्रीणि च शतानि षष्ठिश्च स्तोत्रीयास्तावतीः संवत्सरस्य रात्रय उभे एव संवत्सरस्य रूपे आप्नुवन्ति - तै.सं. ७.५.१.४

*याः सरूपा विरूपा एकरूपा यासामग्निरिष्ट्या नामानि वेद । या अङ्गिरसस्तपसेह चक्रुस्ताभ्यः पर्जन्य महि शर्म यच्छ । या देवेषु तनुवमैरयन्त यासां सोमो विश्वा रूपाणि वेद । ता अस्मभ्यं पयसा पिन्वमानाः प्रजावतीरिन्द्र गोष्ठे रिरीहि ( गावः ) । - तै.सं. ७.४.१७.१

*तस्य ते पृथिवी महिमौषधयो वनस्पतयो रूपम् अग्निस्ते तेजः । तस्य ते द्यौर्महिमा नक्षत्राणि रूपमादित्यस्ते तेजस्तस्मै त्वा महिम्ने - तै.सं. ७.५.१६.१