पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX ( Ra, La)
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While puraanic stories depict Revatee as a
constellation or a girl who was daughter of king Raivata and was married to
Balaraama, the elder brother of lord
Vedic texts indicate that Revatee is somehow connected with unconscious
mind. So, when puraanic texts talk of reestablishing Revatee constellation in
moon’s path, it may mean that unconscious mind has to be converted into
conscious mind.
Revatee has been stated to be the daughter of king Raivata whose kingdom
was called Aanarta and the capital was Kushasthalee. Aanarta may be symbolic of
a state of bliss, while Kusha signifies our senses. In normal state, our senses
can not experience this bliss. These senses have to be converted into a sort of
magnet which can attract waves of bliss from the surrounding. At
last, Revatee is married to Balaraama, who is an incarnation of Shesha, the
remainder. Bala may be taken to represent the scattered energy, waves of
scattered bliss. This scattered bliss is concentrated by Balaraama.
Though Revatee has universally been stated to be the wife of Shesha, one
text states Kundalini also as the wife of Shesha. This gives us an opportunity
of comparing Revatee with Kundalini. First publised : 31 May 2008 AD(Jyeshtha krishna ekaadashee, Vikrama samvat 2065)
रेवती टिप्पणी : पृष्ठ्य षडह नामक सोमयाग के छह सुत्या दिनों में से छठे दिवस की संज्ञा रैवत होती है । इसका एक मुख्य कारण यह है कि इस दिन गाए जाने वाले पृष्ठ स्तोत्र की संज्ञा 'रेवतीषु वारवन्तीयम्' या रैवत साम होती है( रेवतीर्नः सधमाद इत्यादि ) । इससे पहले पांच दिनों की संज्ञा क्रमशः रथन्तर, बृहत्, वैरूप, वैराज तथा शाक्वर होती है । जैमिनीय ब्राह्मण २.१६ का कथन है कि वाक् रथन्तर है, इळा वैरूप है, वही शक्वर्य है, वही रेवतयः है । इससे अनुमान होता है कि रेवती का रूप किसी प्रकार से इळा से सम्बन्धित है, अथवा कि इळा को किसी प्रकार से रेवत में रूपान्तरित करना है । पूर्व वेद चिन्तकों अरविन्द, फतहसिंह आदि के अनुसार इळा अचेतन मन का प्रतिनिधित्व करती है । षष्ठम् अह में गाए जाने वाले साम 'रेवतीषु वारवन्तीयम्' के संदर्भ में जैमिनीय ब्राह्मण ३.१५४ में रेवतीषु वारवन्तीयम् साम की आवश्यकता के बारे में कहा गया है कि पृष्ठ्य षडह यज्ञ प्रजापति? से दूर चला गया । उसको वापस लाने के लिए रथन्तर, बृहत्, वैरूप, वैराज, शाक्वर, रैवत आदि सामों का प्रयोग किया गया लेकिन वह वापस नहीं आया । वारवन्तीयम् साम के प्रयोग से वह वापस आ गया/वारयण हो गया । अन्यत्र ( तैत्तिरीय ब्राह्मण १.१.८.३) में कहा गया है कि अग्नि अश्व वार होकर पलायन कर गया । उसका वारवन्तीयम् से वारयण किया गया । इस संदर्भ में 'अश्व वार' शब्द ध्यान देने योग्य है । वार का अर्थ होगा वाल, फैली हुई, बिखरी हुई ऊर्जा, उच्च अव्यवस्था या एण्ट्रांपी वाली ऊर्जा । इस बिखरी हुई ऊर्जा को वारवन्तीयम् द्वारा एकत्रित किया जा सकता है । व्यावहारिक रूप में यह कार्य किस प्रकार सम्पन्न किया जा सकता है, इसका अनुमान पौराणिक और वैदिक साहित्य के आधार पर लगाया जा सकता है । यह विचारणीय है कि वारवन्तीयम् के अर्थ का अनुमान ऋग्वेद ८.९१ के निम्नलिखित सूक्त के आधार पर लगाया जा सकता है या नहीं - क॒न्या॒३॒॑ वार॑वाय॒ती सोम॒मपि॑ स्रु॒तावि॑दत् । अस्तं॒ भर॑न्त्यब्रवी॒दिन्द्रा॑य सुनवै त्वा श॒क्राय॑ सुनवै त्वा ।। इस सूक्त की पृष्ठभूमि में कहा गया है कि अपाला कन्या अपने दांतो से कोई ओषधि चबा रही थी कि इन्द्र ने समझा कि वह यज्ञ में सोम कूटने के पत्थरों से मेरे लिए सोम का सवन कर रही है और वह सोमपान करने के लिए अपाला के पास आ गया । उसने अपाला व उसके पिता के रोगों को दूर कर दिया इत्यादि । इस प्रकार रेवतीषु वारवन्तीयम् साम के संदर्भ में यह कल्पना की जा सकती है कि रेवतियों के माध्यम से सोम का शोधन करना है जिससे वह इन्द्र के पान योग्य बन सके । पुराणों में रेवती कन्या का जन्म सार्वत्रिक रूप से राजा रैवत से कहा गया है । बहुत से पुराणों के अनुसार सूर्य वंश में राजा शर्याति का पुत्र रेव था, रेव से रैवत ककुद्मी उत्पन्न हुआ जो १०० पुत्रों में ज्येष्ठ था । उसे आनर्त्त प्रदेश में कुशस्थली का राज्य मिला । वह अपनी कन्या रेवती को लेकर कन्या हेतु योग्य वर की पृच्छा के लिए सत्यलोक में ब्रह्मा के पास गया और वहां ब्रह्मा की सभा में चल रहे संगीत को सुनने बैठ गया । संगीत के अन्त में उसने ब्रह्मा के सामने अपना प्रश्न रखा । ब्रह्मा ने बताया कि जब से वह मर्त्य लोक से आया है, वहां बहुत समय बीत चुका है, यद्यपि सत्य लोक में कुछ क्षण का समय ही व्यतीत हुआ है । ब्रह्मा ने बताया कि जहां उसका राज्य कुशस्थली थी, अब वहां द्वारका नामक नगरी है जहां कृष्ण, बलराम आदि निवास करते हैं । उसे अपनी कन्या का विवाह बलराम से कर देना चाहिए जो शेषनाग का अवतार है । रैवत ककुद्मी ने ऐसा ही किया और उसके पश्चात् तपस्या करने चला गया । इस कथा में आनर्त्त प्रदेश और कुशस्थली क्या हैं, यह समझने की आवश्यकता है । सामान्य अर्थों में, आनर्त्त जल वाले स्थान को कहते हैं । वर्तमान संदर्भ में, आनर्त्त वह हो सकता है जहां आ - नर्त्त, सब ओर से नृत्य की, आनन्द ही आनन्द की स्थिति हो, कोई दुःख न हो । कुशस्थली से तात्पर्य यह हो सकता है कि जहां संसार में बिखरी ऊर्जा को एकत्रित किया जा सकता हो, वैसे ही जैसे चुम्बक अपने में आसपास विद्यमान सारी चुम्बकीय शक्ति को केन्द्रित कर लेता है । हमारे शरीर के संदर्भ में, यह स्थिति सत्ययुग की है । द्वापर में हमारी ज्ञानेन्द्रियां, कर्मेन्द्रियां प्रबल हो जाती हैं । वही हमारे शरीर के द्वार हैं - इन्द्रिय द्वार झरोखा नाना । जहं तहं सुर बैठे करि थाना ।। - रामचरितमानस में तुलसीदास इन इन्द्रियों में इतनी सामर्थ्य नहीं है कि वे चुम्बक की भांति शक्ति को ग्रहण कर सकें । इन इन्द्रियों से जो कार्य सम्पन्न होता है, उसके कारण विश्व की अव्यवस्था में वृद्धि होती है । इन्द्रियों को अक्ष भी कहते हैं । इसका कारण यह हो सकता है कि यह अक्ष की भांति ब्रह्माण्ड से ऊर्जा का ग्रहण करती हैं । उदाहरण के लिए, हमारी अक्षि/चक्षु बाहर से आ रहे प्रकाश को एकत्रित करके संवेदनशील तन्त्र तक पहुंचाने का कार्य करते हैं और अक्ष के अच्छे उदाहरण हैं । लेकिन इस अक्ष प्रकृति में और बहुत से सुधार किये जा सकते हैं, ऐसा प्रतीत होता है । इन्द्रिय रूपी अक्षों में कमी यह है कि यह आनन्द के स्रोत के बारे में कोई जानकारी नहीं देती, बहुत सीमित जानकारी ही दे पाती हैं । आनन्द अश्व की भांति फैला हुआ है । यह आनर्त्त प्रदेश है । इसमें राजा रैवत की कुशस्थली है जिसमें कुश अक्ष का कार्य करते हैं । कथा यह संकेत करती है कि अश्व के उसी भाग का अक्ष द्वारा ग्रहण करना है जो वाल बन गया हो, अव्यवस्थित बन गया हो । रैवत/रेवती की अक्ष प्रकृति की पुष्टि महाभारत अनुशासन पर्व ११०.५ के इस कथन से भी होती है कि शरीर के अङ्गों के रूप सौभाग्य के संदर्भ में रेवती नक्षत्र में अक्षि मण्डल की पुष्टि होती है । सामान्य अर्थों में अक्षि आंख का वाचक है लेकिन गूढ अर्थों में इसे अक्ष का वाचक माना जा सकता है । पुराण कथाओं में कहा गया है कि बलराम से विवाह के पश्चात् रेवती ऊंची होती चली गई । बलराम ने उसको हल की नोक से खींच कर छोटा कर लिया । इस संदर्भ में हल को कुश का, अक्ष का ही रूपान्तर समझा जा सकता है । रेवती के ऊंची होने से क्या तात्पर्य है, यह अन्वेषणीय है । ऐसा कहा जा सकता है कि एण्ट्रांपी, अव्यवस्था में ह्रास होना ही रेवती का ऊंची होना है जिसे बलराम हल रूपी अक्ष का प्रयोग करके ग्रहण करने में समर्थ होते हैं । छान्दोग्य उपनिषद २.१८.१ में रैवत साम की प्रकृति के सम्बन्ध में कहा गया है कि अजा हिंकार है, अवियां प्रस्ताव हैं, गौ उद्गीथ, अश्व प्रतिहार और पुरुष निधन हैं । इस प्रकार रैवत साम पशुओं में ओतप्रोत है । जैसा कि अन्यत्र भी टिप्पणियों में उल्लेख किया जा चुका है, ऐसी संभावना है कि अजा सूर्योदय से पूर्व की स्थिति है, अवि सूर्योदय की स्थिति, गौ मध्याह्न की, अश्व अपराह्न की तथा पुरुष सूर्यास्त की स्थिति है । इस प्रकार रैवत साम में सूर्य की पांच अवस्थाएं अन्तर्निहित हैं जिनकी तुलना पांच पशुओं से की गई है । यह ध्यान रखना होगा कि वैदिक साहित्य के इस कथन का व्यावहारिक रूप क्या हो सकता है । व्यावहारिक रूप का अनुमान अभिधान राजेन्द्र कोश में उदय शब्द पर दिए गए वर्णन के आधार पर लगाया जा सकता है । हमारे जीवन में नित्यप्रति हमारे पूर्व कर्मों के फलों का उदय होता रहता है । लेकिन यह उदय अचानक नहीं होता । जब किसी कर्म के फल के उदय के लिए सारी अनुकूल परिस्थितियां बन जाती हैं, तभी उसका उदय होता है । अतः यह हमारे हाथ में है कि किसी कर्म के फल का उदय हो या न हो । अब हम वैदिक साहित्य के कथन पर विचार करते हैं । वहां उदयास्त के पूरे पथ को ५ पशुओं में विभाजित कर दिया गया है । सबसे पहले अज/अजा स्थिति है जो सूर्योदय से पहले की स्थिति है । इस अज स्थिति की पराकाष्ठा सोमयाग में प्रातरनुवाक नामक कृत्य में होती है जहां अपने अन्दर की उस आवाज को सुनने का प्रयत्न किया जाता है जिसका बाह्य स्तरों पर अभी उदय नहीं हुआ है । अज पशु का विकार शरभ पशु होता है ( द्रष्टव्य - शरभ पर टिप्पणी) जिसके आठ पाद होते हैं जिनमें से चार नीचे की ओर तथा चार ऊपर की ओर होते हैं । अज अग्नि का वाहन है और अग्नि देवों तक हवि पहुंचाने का माध्यम बनती है । दूसरी ओर अनुमान है कि शरभ केवल क्षर , मर्त्य भाग का ही भरण कर पाता है, अमर्त्य देव स्तर का यह भरण नहीं करता । अतः यह कहा जा सकता है कि सूर्योदय से पूर्व की व्यावहारिक स्थिति यह है कि हमें अपनी अन्तरात्मा की कोई आवाज सुनाई नहीं पडती, न ही हमारा देवों से कोई सम्पर्क हो पाता है । हम केवल अपने शरीर की पुष्टि में ही लगे रहते हैं । दूसरा चरण सूर्योदय का है जिसका प्रतिनिधित्व अवि नामक पशु करता है । सोमयाग में अवि के बालों से सोम का शोधन किया जाता है । सूर्योदय के समय उषा जड जगत में चेतना का समावेश करती है( द्रष्टव्य - उषा पर टिप्पणी ) । उषा के लिए यह अपेक्षित है कि उसकी ऊर्जा का प्रतिदिन क्षय न हो, वह ३६० दिन ऐसी ही बनी रहे । अवि पशु का विकार उष्ट्र पशु है ( द्रष्टव्य - उष्ट्र पर टिप्पणी ) । उष्ट्र को उषा का विकृत रूप कहा जा सकता है । इसी कारण कहा गया है कि एक आंखों को छोडकर उष्ट्र पशु के किसी भी अंग में सौष्ठव नहीं है । उदय की घटना को समझने का एक विकल्प पौराणिक साहित्य में राजा वत्सराज उदयन और उसकी प्रिय रानी वासवदत्ता का है । राजा उदयन के पास एक दिव्य घोषवती वीणा है और उज्जयिनी का राजा अपनी कन्या वासवदत्ता को संगीत की शिक्षा देने के लिए उदयन को आमन्त्रित करता है । वहां से उदयन वासवदत्ता का अपहरण कर लेता है । यहां वासवदत्ता को गौरी/पार्वती/प्रकृति का रूप कहा गया है । अतः यह कहा जा सकता है कि उदय के अन्तर्गत प्रकृति पुरुष से संगीत की, अपने अन्दर निहित रव को कम करने की शिक्षा प्राप्त कर रही है (अथवा करनी चाहिए) । तीसरा चरण मध्याह्न का है जिसका प्रतिनिधित्व गौ नामक पशु करता है(द्रष्टव्य - गौ पर टिप्पणी ) । कहा जाता है कि मध्याह्न काल में एक क्षण ऐसा होता है जब सूर्य अपने रथ से अश्वों को खोल कर अलग कर देता है, ठहर जाता है । गौ को इस प्रकार समझा जा सकता है कि यह सारी ऊर्जा को संभाल कर रखने का एक उपाय है जिसे ओम कहा जा सकता है । ऊर्जा को इस प्रकार संभालना है कि उससे कोई क्षरण न हो पाए । चौथा चरण अपराह्न का है जिसका प्रतिनिधित्व अश्व करता है । यह कहा जा सकता है कि जिस ऊर्जा को गौ नामक तत्त्व ने संभाल कर रखा था, उसमें से सीमित मात्रा में ऊर्जा का ग्रहण करके उसका प्रसारण मर्त्य स्तर तक करना है । पांचवां चरण पुरुष पशु का है । कहा गया है कि पहले चार चरणों में तो चार पाद वाले पशु होते हैं जो चार दिशाओं का, तिर्यक् गति का प्रतिनिधित्व करते हैं । परन्तु यह पांचवां स्तर दो पाद वाला है जिसके ऊर्ध्वमुखी और अधोमुखी दो पाद हैं । इसे सूर्यास्त की स्थिति कहा गया है । ब्राह्मण ग्रन्थों में रेवती को क्षुद्र पशुओं से सम्बद्ध किया गया है ( तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.१.२.९), जबकि रेवती नक्षत्र का अधिपति पूषा गौ व अश्व से सम्बद्ध है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.१.२.१० में रेवती से हमारे क्षुद्र पशुओं की रक्षा करने की प्रार्थना की गई है । तैत्तिरीय ब्राह्मण १.५.२.४ के अनुसार रेवती नक्षत्र ही ऐसा नक्षत्र है जिसमें पशुओं का प्राभवन हो सकता है । जो कुछ सोम से नीचे है, उसका प्राभवन् होता है, ऐसा कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता १.५.८.२ में 'रेवती(र उदात्त) रमध्वम्' की व्याख्या में कहा गया है कि पशु ही रेवती (व उदात्त) हैं, पशुओं का ही स्वयं(आत्मन्) में रमण करना होता है । ताण्ड्य ब्राह्मण १७.७.१ में रेवती के रमण के संदर्भ में कहा गया है कि यदि पशु रेवती हैं तो पशुओं का रमण तो तब होता है जब उन्हें ओषधि रूप भोजन मिले । ओषधि की उत्पत्ति पृथिवी के सार रूप अग्नि से होती है । जहां ओषधि नहीं वहां पशु भी नहीं । अतः रेवती के रमण के लिए यह आवश्यक है कि अग्नि और पशुओं का अस्तित्व हो । ऐसा ही कथन तैत्तिरीय संहिता ३.५.२.४ में भी उपलब्ध है ( रेवदसि ओषधीभ्यस्त्वौषधीर्जिन्व इत्याह ओषधीषु एव पशून् प्रतिष्ठापयति ) । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.१.२.१० में नक्षत्रेष्टि के संदर्भ में निम्नलिखित यजु का विनियोग है - पू॒षा रे॒वत्यन्वे॑ति॒ पन्था॑म् । पु॒ष्टि॒पती॑ पशु॒पा वाज॑वस्त्यौ । इ॒मानि॑ ह॒व्या प्रय॑ता जुषा॒णा । सु॒गैर्नो॒ यानै॒रुप॑यातां य॒ज्ञम् ।। क्षु॒द्रान्प॒शून्र॑क्षतु रे॒वती॑ नः। गावो॑ नो॒ अश्वाँ॒ अन्वे॑तु पू॒षा। अन्नँ॒ रक्ष॑न्तौ बहु॒धा विरू॑पम्। वाजँ॑ सनुतां॒ यज॑मानाय यज्ञ॒म्॥ अथर्ववेद ३.४.७ का मन्त्र है - प॒थ्या रे॒वती॑र्बहु॒धा विरू॑पाः॒ सर्वाः॑ स॒ङ्गत्य॒ वरी॑यस्ते अक्रन् । तास्त्वा॒ सर्वाः॑ संविदा॒ना ह्व॑यन्तु दश॒मीमु॒ग्रः सु॒मना॑ वशे॒ह ।। पूषा, पथ्या, रेवती आदि शब्दों का परस्पर सम्बन्ध ध्यान देने योग्य है । सोमयाग के आरम्भ से लेकर अन्त तक के पथ को पथ्या स्वस्ति, पथ का कल्याण करने वाला कहा जाता है । पूषा देवता की पत्नी के रूप में पथ्या का उल्लेख किया जाता है ( तैत्तिरीय आरण्यक ३.९.१, गोपथ ब्राह्मण २.२.९ आदि ) । यह कल्याणकारी पथ कौन सा हो सकता है, इसका उत्तर उपरोक्त पांच पशुओं से निर्मित पथ के रूप में दिया जा सकता है । ऋग्वेद १०.३०.१२ ऋचा 'आपो रेवतीः क्षयथा हि वस्वः' इत्यादि का विनियोग सोमयाग में प्रातरनुवाक् नामक कृत्य में किया गया है( ऐतरेय ब्राह्मण २.१६) । इसका अर्थ है कि रेवती प्रकार के आपः हमारे लिए वसुओं का भरण करें । यह रेवती प्रकार के आपः कौन से हो सकते हैं, यह स्पष्ट नहीं है । लेकिन पुराणों में एक शुष्क रेवती की कल्पना की गई है जो बाल ग्रह है । महाभारत वनपर्व २३०.२९ में कहा गया है - अदितिं रेवतीं प्राहुर्ग्रहस्तस्यास्तु रैवतः । सोऽपि बालान् महाघोरो बाधते वै महाग्रहः ।। यहां बाल से तात्पर्य उसी अश्व वाल ऊर्जा से हो सकता है जो ब्रह्माण्ड में बिखरी हुई है । जैमिनीय ब्राह्मण १.१४० के अनुसार आपः संज्ञक देवपत्नियों ने मित्रावरुण से मिथुन किया जिससे रेवत् प्रकार के पशुओं की उत्पत्ति हुई । जैमिनीय ब्राह्मण ३.१३२ के अनुसार पशु ही सिमाः ( डा. फतहसिंह के अनुसार सिमाः अंग्रेजी भाषा के semi, अर्ध के तुल्य है ) हैं, पशु ही रेवत हैं । जैमिनीय ब्राह्मण ३.१३५ का कथन है कि सिमा और रेवत्यों का समान रूप है । सिमाओं से ही रेवत्यों का निर्माण होता है । जैमिनीय ब्राह्मण ३.१४५ का कथन है कि रेवतयः पयः हैं और पशु पंचम अह हैं । जब पशु अपने वत्सों के साथ रंभाते हैं, तभी कामों का दोहन होता है । इस प्रकार रेवतयः कामदुघा बन जाते हैं । तैत्तिरीय ब्राह्मण १.५.१.५ में रेवती नक्षत्र के संदर्भ में कहा गया है कि रेवती का अधिपति पूषा है - पूष्णोः रेवती । गावः परस्तात् वत्सा अवस्तात् ।। यहां वत्स कौन हो सकता है, इसकी व्याख्या सोमयाग के आधार पर इस प्रकार की जा सकती है कि मर्त्य स्तर ही वत्स है जिसका पीछा रेवती रूपी गौ करती है( सोमयाग/प्रवर्ग्य के कृत्यों में गौ का यज्ञ कार्य हेतु प्रतिदिन क्रमिक रूप से अधिक से अधिक दोहन किया जाता है और उसके वत्स को पयः से वंचित ही रखा जाता है जो सामान्य दृष्टि से एक क्रूर कर्म है ) । और यह भी ध्यान देने योग्य है कि जहां अन्यत्र रेवती को क्षुद्र पशुओं से सम्बद्ध किया गया है, इस संदर्भ में रेवती नक्षत्र को गौ कहा जा रहा है । अतः यह रेवती की कोई उच्च स्थिति प्रतीत होती है । जैमिनीय ब्राह्मण ३.१४४ का कथन है कि पशु रेवत्य हैं, आत्मा माध्यन्दिन है । आत्मा में पयः की प्रतिष्ठा की जाती है । जैसा कि पयः शब्द की टिप्पणी में कहा जा चुका है, पयः की उत्पत्ति तभी संभव है जब सारे बन्धनों का, तनावों का निराकरण हो चुका हो । अन्यथा, प्रकृति में जितना पयः उत्पन्न होता है, वह तनावों के कारण तन्तुओं में परिवर्तित हो जाता है । ऋग्वेद १०.१८०.१ में इन्द्र के लिए कहा गया है कि 'पतिः सिन्धूनामसि रेवतीनाम्' । जैसा कि सिन्धु की टिप्पणी में कहा गया है, सिन्धु प्राण का प्रतीक है । अतः रेवती मन का प्रतीक हो सकता है । अचेतन मन को चेतन मन में रूपान्तरित करना ही रेवत/रेवती का लक्ष्य हो सकता है । मार्कण्डेय पुराण में रेवती से रैवत मनु के जन्म की जो कथा दी गई है, उस कथा के अनुसार ऋतवाक् मुनि ने रेवती नक्षत्र का पात इसलिए किया क्योंकि रेवती नक्षत्र के तीसरे चरण में उत्पन्न उसका पुत्र दुष्ट था । रेवती नक्षत्र के कुमुद पर्वत पर पतन से वह पर्वत हिरण्मय हो गया और वहां से एक कन्या का जन्म हुआ । कन्या का पालन प्रमुच ऋषि ने किया और उसका विवाह राजा दुर्दम से करने का प्रस्ताव किया । रेवती ने अपने पालक पिता के सामने शर्त रखी कि उसका विवाह रेवती नक्षत्र में किया जाए । उसके पिता के ऐसा कहने पर कि चन्द्रपथ में रेवती नक्षत्र स्थित नहीं है, उसने कहा कि उसके पिता अपने तपोबल से ऐसा कर सकते हैं । रेवती नक्षत्र को चन्द्रपथ में स्थित किया गया । रेवती ने अपने पिता से मनु पुत्र को जन्म देने का वर प्राप्त किया और रैवत मनु को जन्म दिया । रैवत मनु का प्रसंग पृष्ठ्य षडह के छठे दिन को समझने का एक और अवसर प्रदान करता है । इस कथा में रेवती नक्षत्र को चन्द्रपथ में स्थापित करना यह संकेत करता है कि मन को चन्द्रमा बनाना है, अचेतन मन को चेतन मन बनाना है । पुराणों की एक अन्य कथा में वडवा संज्ञा और अश्व सूर्य से उत्पन्न पुत्र रैवत ही कालान्तर में रैवत मनु रूप में जन्म लेता है । यह कथा सूर्य वंश से चन्द्र वंश में संक्रमण का संकेत देती है, क्योंकि मनु मन के उच्च रूप, सोम से सम्बन्धित है । रेवती के नक्षत्र रूप होने के संदर्भ में, तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.१९.१ में उल्लेख है कि ऊर्ध्वा दिशा, शैशिरेण ऋतुना - -अतिछन्दा छन्दसा, सविता देवता, अजातशत्रु - -सत्येन रेवती क्षत्रं - - । इसका अर्थ होगा कि यहां न-क्षत्र सत्य का रूप है । इस यजु का विनियोग आश्वलायन श्रौत सूत्र ४.१२.२ के अनुसार अश्वमेध हेतु किया जाता है । इससे पहले पांच यजुओं का विनियोग रथन्तर, बृहत्, वैरूप, वैराज और शक्वर अहों के लिए है । यहां यह ध्यान देने योग्य है कि अतिछन्दा छन्द क्या हो सकता है । ताण्ड्य ब्राह्मण ८.९.१४ में कहा गया है कि 'अर्द्धेडा शक्वरीणां अतिस्वारो रेवतीनां ।' तथा कि अर्द्धेडा द्वारा असुरों का हनन किया जाता है, अतिस्वार्य द्वारा स्वर्ग लोक को गमन किया जाता है । तैत्तिरीय ब्राह्मण १.५.१२.१ से संकेत मिलता है कि वाक् का धारण ७ छन्दों द्वारा किया जाता है, अन्यथा इस वाक् का पतन हो जाता है । यह वाक् वही अन्तरात्मा की आवाज हो सकती है जिसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है । लेकिन यहां इन ७ छन्दों से अतिरिक्त अतिछन्दा तथा अतिस्वार्य का उल्लेख है । शांखायन ब्राह्मण २५.११ में अतिरिक्त १३वें मास के संदर्भ में अच्छावाक् नामक ऋत्विज की वाक् को रैवत प्रकार की कहा गया है ( मैत्रावरुण ऋत्विज की शाक्वर प्रकार की और ब्राह्मणाच्छंसी ऋत्विज की वैरूप प्रकार की ) । ताण्ड्य ब्राह्मण १३.७.२ का कथन है कि छन्दों में गायत्री छन्द ज्योति रूप है , सामों में रेवती साम ज्योति है, स्तोमों में ३३ वां स्तोम ज्योतिस्वरूप है । यहां ज्योति से तात्पर्य जडता से रहितता हो सकता है । शतपथ ब्राह्मण ३.८.१.१२ का कथन है कि जब वाक् बहुत बोलती है तो उसे रेवती वाक् समझना चाहिए । जैमिनीय ब्राह्मण ३.१४९ का कथन है कि - 'मृज्यमानस् सुहस्त्यो समुद्रे वाचम् इन्वसि। रयिम् इति(साम १०७९) रु इति रेवतीनां रूपम् ।' इस कथन से ऐसा प्रतीत होता है कि रयि वाक् का एक रूप है जिसे रेवती प्रकार की वाक् कहा जा सकता है । जैमिनीय ब्राह्मण ३.१६१ आदि में रेवती का सम्बन्ध रायः से जोडा गया है । ऋग्वेद २.२.६ में रेवत् का रयि से सम्बन्ध प्राप्त होता है( स नो रेवत् समिधानः स्वस्तये संददस्वान् रयिमस्मासु दीदिहि ), जबकि ऋग्वेद ३.२३.२ तथा १०.२२.१५(महश्च रायो रेवतस्कृधी नः ) में रायः से । ऋग्वेद १०.१८०.१ में रेवती के राति से सम्बन्ध का उल्लेख है । पारमात्मिकोपनिषद ७.१० का कथन है - रायां पतत्त्रे रयिमादधात्रे रायो बृहन्तं रयिमत्सुपुण्यं - - - रतये रमन्तम् - - । अर्थात् रायः का पतन होकर रयि की स्थापना हो । डा. फतहसिंह के अनुसार राति, रायः और रयि तीन स्तरों - स्थूल, सूक्ष्म और कारण स्तर के धनों के सूचक हैं । प्रश्नोपनिषद १.९ में प्राण और रयि के सम्बन्धों की व्याख्या की गई है जिसके अनुसार प्राण देवयान पथ है जबकि रयि पितृयान, धीरे - धीरे प्रगति का पथ है । तैत्तिरीय ब्राह्मण १.५.२.९ में उल्लेख है कि रेवती नक्षत्र में देवों ने रव किया(रेवत्यामरवन्त), अतः रेवती नाम हुआ । यह कहा जा सकता है कि रेवती की सबसे अधिक अविकसित अवस्था रव या शोर की है । जैसे - जैसे विकास होगा, यह शोर संगीत बनता जाएगा । रव वाली रेवती का विवाह पुराणों में बलराम से होता है जो शेषनाग के अवतार हैं । इसका अर्थ हुआ है कि रव वाली प्रकृति का किसी प्रकार से शेष ऊर्जा से मिश्रण कराना है । पुराणों की रैवत - रेवती की यह कथा क्या पृष्ठ्य षडह के छठे दिन की प्रकृति को समझने और भागवत पुराण के छठे स्कन्ध से उसका सामञ्जस्य बैठाने में कोई सहायता करती है ? भागवत पुराण के छठे स्कन्ध के महत्त्वपूर्ण तथ्यों में से एक तथ्य दधीचि ऋषि द्वारा देवों के अस्त्रों के तेज को अपनी अस्थियों में समाहित करने और फिर इन अस्थियों से इन्द्र द्वारा वज्र का निर्माण करना है । इस संदर्भ में अस्थियां भी उपरोक्त अक्षों का प्रतीक हो सकती हैं जो विश्व में विरल रूप में प्रवाहित हो रही ऊर्जा का संचयन करने में समर्थ हो गई हैं । शिव - पार्वती की रति के संदर्भ में रति की राति से तुलना अन्वेषणीय है । पुराणों में 'रैवत' नाम के साथ 'ककुद्मी' विशेषण के संदर्भ में, जैमिनीय ब्राह्मण १.१४४ का यह कथन उपयोगी हो सकता है कि षष्ठम् अह से आगे ककुद बनता है । श्री श्वेताश्व चौहान द्वारा दी गई सूचना के अनुसार, गाय में जो ककुद होता है, वह सूर्य से किरण विशेष को ग्रहण करने में सहायक होता है । स्कन्द पुराण में राजा रैवत और उससे उत्पन्न कन्या रेवती की जो कथा दी गई है, वह कुछ भिन्न प्रकार से है । इस कथा में तक्षक नाग शाप प्राप्त करने के पश्चात् पृथिवी पर सौराष्ट्र देश का राजा रैवत बनता है । दूसरी ओर, उसकी पत्नी शापित होने के कारण पृथिवी पर आनर्त्त देश के राजा प्रभञ्जन की कन्या क्षेमङ्करी के रूप में जन्म लेती है । कन्या का क्षेमङ्करी नाम इसलिए पडा क्योंकि उसके गर्भ में आते ही राजा प्रभञ्जन के शत्रु समाप्त होने लगे । रैवत और क्षेमङ्करी से रेवती कन्या का जन्म हुआ जिसका बलराम से विवाह हुआ । इस कथा में रैवत को तक्षा का रूप देने की आवश्यकता क्यों पडी, इसका उत्तर इस प्रकार दिया जा सकता है कि शिल्पी का कार्य तक्षण, काट - छांट करना है । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, रैवत के संदर्भ में आनन्द के पर्वत को काटना - छांटना पडता है । पृष्ठ्य षडह नामक सोमयाग के छठे दिन तृतीय सवन में जिन स्तोत्रों का गायन किया जाता है, उन्हें शिल्प संज्ञा दी गई है । शांखायन ब्राह्मण में कहा गया है कि हस्ती, कंस, अश्व, हिरण्य आदि सब शिल्प हैं । शिल्प संज्ञक स्तोत्रों के गायन की प्रक्रिया में इन स्तोत्रों की पंक्तियों को विभिन्न प्रकार से स्थांतरित किया जाता है, शब्दों के बीच में न्यूंखन की प्रक्रिया होती है जिसमें दो शब्दों के बीच में ओ ओ ओ ॐ ॐ इत्यादि का उच्चारण किया जाता है । उदाहरण के लिए, 'आपो रेवती क्षयथा हि वस्वः' का उच्चारण इस प्रकार किया जाता है - आपो३ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ओ ओ ओ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ओ ओ ओ ॐ ॐ ॐ रेवतीः क्षयथा हि वस्वः - - - आश्वलायन श्रौत सूत्र ७.११.७ ऐसा प्रतीत होता है कि आनन्दातिरेक में पूरे स्तोत्र का गायन कठिन हो जाता है जिसके कारण इन अतिरिक्त अक्षरों का उच्चारण करना पडता है । शिल्प कहने से ऐसा अनुमान होता है कि इस आनन्दातिरेक को एक निश्चित आकार देना होता है, वैसे ही जैसे एक शिल्पी पत्थर को तराश कर एक मूर्ति का निर्माण करता है । ऋग्वेद की ऋचाओं में रैवत शब्द का नहीं, रेवत शब्द का प्रयोग हुआ है जहां व उदात्त है । रेवत शब्द के संदर्भ में ऋचाओं के निम्नलिखित पद उल्लेखनीय हैं - स इ॑धा॒नो वसु॑ष्क॒विर॒ग्निरी॒ळेन्यो॑ गि॒रा । रे॒वद॒स्मभ्यं॑ पुर्वणीक दीदिहि - ऋ. १.७९.५ उषो॑ अ॒द्येह गो॑म॒त्यश्वा॑वति विभावरि । रे॒वद॒स्मे व्यु॑च्छ सूनृतावति - ऋ. १.९२.१४ ताः प्र॑त्न॒वन्नव्य॑सीर्नू॒नम॒स्मे रे॒वदु॑च्छन्तु सु॒दिना॑ उ॒षासः॑ - ऋ. १.१२४.९ रे॒वदु॑च्छ म॒घव॑द्भ्यो मघोनि रे॒वत्स्तो॒त्रे सू॑नृते जा॒रय॑न्ती ॥१.१२४.१० स नो॑ रे॒वत् स॑मिधा॒नः स्व॒स्तये॑ संदद॒स्वान् र॒यिम॒स्मासु॑ दीदिहि - ऋ. २.२.६ अद॑ब्धो गो॒पा उ॒त नः॑ पर॒स्पा अग्ने॑ द्यु॒मदु॒त रे॒वद् दि॑दीहि - ऋ. २.९.६ पृ॒क्षप्र॑यजो द्रविणः सु॒वाचः॑ सुके॒तव॑ उ॒षसो॑ रे॒वदू॑षुः ।।- ऋ. ३.७.१०
अम॑न्थिष्टां॒ भार॑ता रे॒वद॒ग्निं दे॒वश्र॑वा दे॒ववा॑तः सु॒दक्ष॑म् । अग्ने॒ वि प॑श्य बृह॒ताभि रा॒येषां नो॑ ने॒ता भ॑वता॒दनु॒ द्यून् ।। - ऋ. ३.२३.२ दृ॒षद्व॑त्यां॒ मानु॑ष आप॒यायां॒ सर॑स्वत्यां रे॒वद॑ग्ने दिदीहि - ऋ. ३.२३.४ स मर्तो॑ अग्ने स्वनीक रे॒वानम॑र्त्ये॒ य आ॑जु॒होति॑ ह॒व्यम् - ऋ. ७.१.२३ उ॒त त्रा॑यस्व गृण॒तो म॒घोनो॑ म॒हश्च॑ रा॒यो रे॒वत॑स्कृधी नः - ऋ. १०.२२.१५ इ॒यं न॑ उ॒स्रा प्र॑थ॒मा सु॑दे॒व्यं॑ रे॒वत् स॒निभ्यो॑ रे॒वती॒ व्यु॑च्छतु - ऋ. १०.३५.४ रे॒वत् स वयो॑ दधते सु॒वीरं॒ स दे॒वाना॒मपि॑ गोपी॒थे अ॑स्तु - ऋ. १०.७७.७ इन ऋचाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि रेवत् को प्रकट करने का, उसे चमकाने का कार्य अग्नि, उषा आदि का है । रेवत् स्वयं अग्नि का विशेषण भी है । मार्कण्डेय पुराण की कथा में रैवत पर्वत की उत्पत्ति तब होती है जब ऋतवाक् मुनि अपने शाप से रेवती नक्षत्र का भूमि पर पात करते हैं । वह नक्षत्र कुमुद पर्वत पर गिरता है और उससे रैवत पर्वत का जन्म होता है जो हिरण्मय है । फिर उस रैवत पर्वत से रेवती कन्या का जन्म होता है ।
ऋग्वेद १०.३५.४ में उल्लेख है कि रेवती सनियों से रेवत् को प्रकट करे ( रे॒वत् स॒निभ्यो॑ रे॒वती॒ व्यु॑च्छतु) । सायणाचार्य द्वारा रेवत का अर्थ सार्वत्रिक रूप से धन किया गया है जो संतोषजनक नहीं है । सनि को ऐसा धन समझा जा सकता है जो सूर्य(सन) के कारण उत्पन्न धन है । इस सूर्य के धन से रेवत नामक चन्द्र - धन उत्पन्न करना है । ऋग्वेद १.७९.५ में कहा गया है कि 'रे॒वद॒स्मभ्यं॑ पुर्वणीक दीदिहि ।' ऋग्वेद १.९२.१४ में उषा के लिए कहा गया है - 'रे॒वद॒स्मे व्यु॑च्छ सूनृतावति' । ऋग्वेद १.१२४.९ - १० में कहा गया है - 'रे॒वदु॑च्छन्तु सु॒दिना॑ उ॒षासः॑ ।' यह उल्लेखनीय है कि श्री जे.ए.गोवान ने अपनी वैबसाइटों में परिकल्पना की है कि जड पदार्थ में जो विद्युत विद्यमान है, जैसे इलेक्ट्रान नामक कण पर, वह सूर्य का अंश है । यह अंश जड पदार्थ की सममिति को पूरा करता है, उसे सममित बनाता है । लेकिन वैदिक साहित्य इससे भी आगे जाकर चन्द्रमा को भी सममिति में भागीदार बनाता है । वैदिक निघण्टु में रेव॑त्यः ( र अक्षर उदात्त) शब्द का वर्गीकरण नदी नामों में किया गया है । रैव॒तः ( त उदात्त ) का वर्गीकरण मेघ नामों में हुआ है । ऋग्वेद में प्रायः रेवत शब्द में व उदात्त है, जबकि रेवती में भी व उदात्त है । ऋग्वेद १०.८६.१३ में 'वृषा॑कपायि॒ रेव॑ति॒' में र उदात्त है । तैत्तिरीय संहिता १.५.८.२ में 'रेव॑ती(र उदात्त) रमध्वम्' की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि 'पशवो वै रेवतीः ( व उदात्त) पशूनेवात्मन् रमयत । तैत्तिरीय संहिता २.३.७.३ में उल्लेख आता है कि 'यदिन्द्रा॑य रैव॒ताय॒( त उदात्त) यदे॒व बृह॒स्पते॒स्तेज॒स्तदे॒वाव॑रुन्द्ध ।' रेवती से सम्बन्धित मन्त्रों का विनियोग : ऐतरेय ब्राह्मण २.२० तथा आश्वलायन श्रौत सूत्र ५.१.१९ आदि के अनुसार एमा अ॑ग्मन् रे॒वती॑र्जी॒वध॑न्या॒ अध्व॑र्यवः सा॒दय॑ता सखायः । नि ब॒र्हिषि॑ धत्तन सोम्यासो॒ ऽपां नप्त्रा॑ संविदा॒नास॑ एनाः ।। - ऋ. १०.३०.१४ इस ऋचा का विनियोग उस समय किया जाता है जब वेदी पर वसतीवरी और एकधना पात्रों के जलों को रखा जाता है । यह उल्लेखनीय है कि वसतीवरी के जल का उपयोग भविष्य के कल के यज्ञ के लिए होता है(अङ्गिरसों का यज्ञ, धीरे - धीरे प्रगति करने वाला), जबकि एकधना के जल का उपयोग आज ही पूरे होने वाले यज्ञ के लिए होता है (देवों का यज्ञ, त्वरित गति से प्रगति करने वाला ) । इससे संकेत मिलता है कि दोनों प्रकार के जलों में कोई विरोधाभास है जिसको दूर करने की आवश्यकता है । 'रेवतीर्नः सधमाद इन्द्रे सन्तु तुविवाजा' से भी संकेत मिलता है कि रेवती को अपने अनुकूल बनाना है(सधमाद) । पुराणों की कथाओं में शेषनाग - पत्नी रेवती दंशन भी करती है ) । आपो॑ रेवतीः॒ क्षय॑था॒ हि वस्वः॒ क्रतुं॑ च भ॒द्रं बि॑भृ॒थामृतं॑ च । रा॒यश्च॒ स्थ स्व॑प॒त्यस्य॒ पत्नीः॒ सर॑स्वती॒ तद्गृ॑ण॒ते वयो॑ धात् ।। ( ऋग्वेद १०.३०.१२) का विनियोग प्रातरनुवाक् में होता है (ऐतरेय ब्राह्मण २.१६, आश्वलायन श्रौत सूत्र ७.११.७) । आपः रेवतीः क्या हो सकता है, इस संदर्भ में स्कन्द पुराण ६.११७ में अम्बारेवती की कथा का उल्लेख किया जा सकता है जिसमें शेषनाग - पत्नी अपने श्रेय के लिए अम्बा देवी की स्थापना करती है । लक्ष्मीनारायण संहिता २.२४१.६१ में शेष की पत्नी के रूप में कुण्डलिनी का उल्लेख है । अतः कुण्डलिनी के संदर्भ में भी रेवती के चरित्र का अनुशीलन करने की आवश्यकता है ।
प्रथम प्रकाशन – ३१-५-२००८ई.(ज्येष्ठ कृष्ण एकादशी, विक्रम संवत् २०६५)
रेवत्- पशु- २८१ द्र । रेवती- १. तासु सौषावम् । अभ्यासो वै सिमानां रेवतयः । जै ३, १४९ । २. आप उ रेवतयः । जै ३, १५५ । ३ ज्योती रेवती साम्नाम् । तां १३, ७,२ । ४. पशवो रेवतीः (रेवतयः [जै.]) । काठ २६, ७, क ४१, ५ जै ३, १३१, २१३ २१३ , २५० । ५. पूषा देवता रेवती नक्षत्रम् । काठ ३९, १३ । ६. यद्वै विराजस्तेजस्तदाग्नेयो यच्छक्वर्यास्तदैन्द्रो यद्रेवत्यास्तत् सौर्यः। काठ २९,७ ।
७.
रेवतीषु वारवन्तीयं पृष्ठं भवति।
अपां वा एष रसो यद्रेवत्यो रेवतीनां रसो यद्वारवन्तीयं सरसा एव तद्रेवतीः
प्रयुङ्क्ते यद्वारवन्तीयेन पृष्ठेन स्तुवते ऋषभो रैवतो भवति। पशवो वै रैवत्यः पशुष्वेव तन्मिथुनमप्यर्जति – तां १३.१०.१० ८ रेवतीनां च सौर्यः (अतिग्राह्यो ग्रहः) मै ४,७, ३ । ९. रेवतीर्निरमिमीत ( प्रजापतिः) शान्त्यै । काठ १०, १० । १०. रेवत्यः आपः । माश १, २., २, २ ११. रेवत्यः सर्वा देवताः । ऐ २, १६ । १२. ....रेवत्यामरवन्त । अश्वयुजोरयुञ्जत । तै १, ५,२, ९ । १३ रेवत्यो मातरः । तां १३, ९, १७ । १४. प्रजापतिर्वा इन्द्राय वज्रं प्रत्यमुञ्चन्महानाम्नीस्तेन व्यजयत ततो वै सोऽभवत् सोऽबिभेद्वज्रो मेऽशान्तो ग्रीवा अपिधक्ष्यतीति ततो रेवतीर्निरमिमीत शान्त्या ...... रेवत्यनुवाक्या शक्करी याज्या वज्रो वै रेवती वज्रश्शक्करी वज्रमेव संदधाति तेन विजयते। काठ १०, १० । माश ३, ८, १, १२ । १५. शैशिरेण ऋतुना देवास्त्रयस्त्रिंशे ऽमृतं स्तुतम् । सत्येन रेवतीः क्षत्रम् । मै ३, ११, १२; काठ ३८, ११ । १६. वज्रो वै शक्वरी स एनं वज्रो भूत्या ऐन्द्ध । सो ऽभवत् सो ऽबिभेद् भूतः प्र मा धक्ष्यतीति स प्रजापतिम् पुनर् उपाधावत् स प्रजापतिः शक्वर्या अधि रेवतीं निरमिमीत शान्त्या अप्रदाहाय । तैसं २,२, ८, ६ । १७. स रथन्तरमसृजत तद्रथस्य घोषोऽन्वसृज्यत। स बृहदसृजत तत् स्तनयित्नोर्घोषोऽन्वसृज्यत। स वैरूपमसृजत तद्वा तस्य घोषोऽन्वसृज्यत। स वैरूपमसृजत तदग्नेर्घोषोऽन्वसृज्यत। स शक्वरीरसृजत तदपां घोषोऽन्वसृज्यत। स रेवतीरसृजत तद्गवां घोषोऽन्वसृज्यत। तां ७, ८, १३ । १८. सा ( वाक्) षष्ठमहः प्राप्य रेवती भवति, ययान्नाद्यं प्रदीयते । जै २, १ । तद् अब्रुवन् सृजस्वैवेति। तद् रैवतम् असृजत। तद् पशुघोषो ऽन्वसृज्यत। ते ऽब्रुवन्न् अरात्स्मानेन स्तोत्रेणेति। तस्माद् रैवतस्य स्तोत्रे पशुघोषं कुर्वन्ति वत्सान् मातृभिस् संवाशयन्ति। अरात्स्मानेन स्तोत्रेणेत्य् एव तद् विद्यात्॥ तद् अब्रुवन् । सृजस्वैवेति। तन् नासृजत। तद् ऊर्ध्वम् उदैषद् यथा पृष्ठं यथा ककुद् एवम्। तद् देवास् संगृह्योर्ध्वा उदायन्। - जै १.१४४ ते रेवतीमुपातिष्ठन्त। ते रेवत्यां प्राभवन् । तस्माद्रेवत्यां पशूनां कुर्वीत । - तै १.५.२.५ रेवतीषु वामदेव्येन पशुकामः स्तुवीत। आपो वै रेवत्यः पशवो वामदेव्यमद्भ्य एवास्मै पशून् प्रजनयति – तां ७.९.२० रेवतीषु वारवन्तीयं पृष्ठं भवति। अपां वा एष रसो यद्रेवत्यो रेवतीनां रसो यद्वारवन्तीयं सरसा एव तद्रेवतीः प्रयुङ्क्ते यद्वारवन्तीयेन पृष्ठेन स्तुवते रेवद्वा एतद्रैवत्यं यद्वारवन्तीयमास्य रेवान् रैवत्यो जायते – तां १३.१०.५ मै ४.१.९, जै २.१३६, तै ३.२.८.२ मै ४.२.१० कामदुघा जै ३.१४६ [ ०ती- अप्- २ ७; १०९; १७२; २३१ कामदुघा- ५ गायत्री- ४३ तां १६.५.१९, ११० तां १६.५.२७; जगती-तैसं. १.१.८.१ देवा असुराणां वेशत्वमुपायन् , इन्द्रस्तु नाप्युपैत् , तेषां वा इन्द्रियाणि वीर्याण्यपाक्रामन् , अग्ने रथंतरम् , इन्द्रस्य बृहत् , विश्वेषां देवानां वैरूपं , सवितुर्वैराजं , त्वष्टू रेवती, मरुतां शक्वरी, तानि वा इन्द्रोऽन्वपाक्रामत् ,- मै २.३.७, इन्द्राय रैवतायानुब्रूहि ॥ इति रेवतीमनूच्य शक्वर्या यजेत् ॥ इन्द्राय शाक्वरायानुब्रूहि ॥ इति शक्वरीमनूच्य रेवत्या यजेत् – मै २.३.७ देवा वा असुराणां वेशत्वमुपायँस्तदिन्द्रोऽपि नोपैत् तेषां वीर्याण्यपाक्रामन्नग्ने रथन्तरमिन्द्राद्बृहद्विश्वेभ्यो देवेभ्यो वैरूपँ सवितुर्वैराजं मरुताँ शक्वरी त्वष्टू रेवती तानीन्द्रोऽवरुरुत्समानोऽन्वचरत् - काठ १२.५; पयो वै रेवतयः। पशवः पञ्चमम् अहः। ता यद् अन्तर्हिता अन्येन साम्ना स्युर् अन्तर्हितं पयः पशुभ्य स्यात्। ता यद् अनन्तर्हिता भवन्ति तेन पयः पशुभ्यो ऽनन्तर्हितं भवति। तद् आहुर् जामीव वा एतत् क्रियते यद् एता इळाभिर् इळा उपयन्ति। इषोवृधीयेनैवारभ्यम् अजामिताया इति। अन्तर्हितं ह तु तथा पयः पशुभ्य स्यात्। - जै ३.१४५ आपो वै रेवतयः। आप उ रैवतं साम। तद् यद् रेवतीषु रैवतं पृष्ठं कुर्युर् अगाधे मज्जेयुर् न प्रतितिष्ठेयुः। तद् यद् वारवन्तीयं पृष्ठं भवति प्रतिष्ठित्या एव। जीर्यन्तीव वा एतत् पृष्ठानि यदा षष्ठम् अहर् आगच्छन्ति। न वै जीर्णे रेतः परिशिष्यते। तद् यद् वारवन्तीयं पृष्ठं भवत्य् उत्तरेषाम् एव यज्ञक्रतूनां प्रजात्यै॥जै ३.१४५॥ पशु- ८५ मै ४.२.९, तैसं १.५.८.२, मै ३.९.६, काठ ७.७, ११.२, काठसंक १४०.७ १७३, तां १३.७.३, ९.२५, १०.११ १७४; माश २.३.४.२६, ३.७.३.१३ २८२
पूषन्-
२४ तै ३.१.२.९; ४० तै १.५.१.५,
४८ तैसं ४.४.१०.३, मै २.१३.२०; यव- १५ जै १.३३३, २.३४ रेतस्- ३५. जै ३.१४४। रैवत (सामन्- - १. ……..त ओम् इत्य् एतेनैवाक्षरेणास्या ऊर्ध्वायै दिशश् शाक्वरं भा असृजन्त। तद् अपां घोषो ऽन्वसृज्यत। तस्माच् छाक्वरस्य स्तोत्रे ऽप उपनिधाय स्तुवन्ति। त ओमित्येतेनैवाक्षरेणास्यै (ध्रुवायै) दिशो रैवतं भा असृजन्त तत्पशुघोषो ऽन्वसृज्यत । तस्माद् रैवतस्य स्तोत्रे पशुघोषं कुर्वन्ति वत्सान् मातृभिः संवाशयन्ति । जै ३, ३५६ ।
२.
तद् रैवतमसृजत तत्पशुघोषो ऽ न्वसृज्यत'..
तस्माद् रैवतस्य स्तोत्रे पशुघोषं कुर्वन्ति ३. यद् इन्द्राय शाक्वराय यद् एव मरुतां तेजस् तद् एवाव रुन्द्धे यद् इन्द्राय रैवताय यद् एव बृहस्पतेस् तेजस् तद् एवाव रुन्द्धे । । तैसं २, ३, ७, ३ ४. यद्रथंतरं तच्छाक्वरं यद्बृहत्तद्रैवतमेवमेते उभे अनवसृष्टे भवतः।। ऐ ४, १३ । स वै नु मे प्रयच्छेमौ नु मे शैशिरौ मासौ प्रयच्छेति। एतौ ते प्रयच्छानीत्य् अन्नम् अन्नम् इत्य् एव पतित्वास्यै दिशो रैवतं भा आदत्त। तद् इतो ऽधत्त। जै ३.३६६; अथ गोष्ठः शक्वरीणां च वा एष रेवतीनां च गोष्ठः। पशूनां धृत्यै गोष्ठः। .... पशवो वै सिमाः। पशवो रैवतम्। जै ३.१५३ द्र. ।
रेवतीर् नस् सधमाद इति रेवतयो भवन्ति। समाद् एवैतत् समम् उपयन्ति।.....
एतद् वै बृहद् रैवत्यम् यद् रेवतीषु वारयन्तीयम्। बार्हतं षष्ठम् अहः।....
तद् यद् वारवन्तीयं पृष्ठं भवत्य् अग्नेर् एव वैश्वानरस्य शान्त्या अप्रदाहाय॥जै
३.१५४॥
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