पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

( Ra, La)

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Yogalakshmi - Raja  (Yogini, Yogi, Yoni/womb, Rakta/blood, Raktabeeja etc. )

Rajaka - Ratnadhaara (Rajaka, Rajata/silver, Raji, Rajju, Rati, Ratna/gem etc.)

Ratnapura - Rathabhrita(Ratnamaalaa, Ratha/chariot , rathantara etc.)

Rathaswana - Raakaa (Rathantara, Ramaa, Rambha, Rambhaa, Ravi, Rashmi, Rasa/taste, Raakaa etc.) 

Raakshasa - Raadhaa  (Raakshasa/demon, Raaga, Raajasuuya, Raajaa/king, Raatri/night, Raadhaa/Radha etc.)

Raapaana - Raavana (  Raama/Rama, Raameshwara/Rameshwar, Raavana/ Ravana etc. )

Raavaasana - Runda (Raashi/Rashi/constellation, Raasa, Raahu/Rahu, Rukmaangada, Rukmini, Ruchi etc.)

Rudra - Renukaa  (Rudra, Rudraaksha/Rudraksha, Ruru, Roopa/Rupa/form, Renukaa etc.)

Renukaa - Rochanaa (Revata, Revati, Revanta, Revaa, Raibhya, Raivata, Roga/disease etc. )

Rochamaana - Lakshmanaa ( Roma, Rohini, Rohita,  Lakshana/traits, Lakshmana etc. )

Lakshmi - Lava  ( Lakshmi, Lankaa/Lanka, Lambodara, Lalitaa/Lalita, Lava etc. )

Lavanga - Lumbhaka ( Lavana, Laangala, Likhita, Linga, Leelaa etc. )

Luuta - Louha (Lekha, Lekhaka/writer, Loka, Lokapaala, Lokaaloka, Lobha, Lomasha, Loha/iron, Lohit etc.)

 

 

रथन्तर

अभि त्वा शूर नोनुमोऽदुग्धा इव धेनवः ।

ईशानमस्य जगतः स्वर्दृशमीशानमिन्द्र तस्थुषः ॥ - ऋ. ,०३२.२

गावः शूरस्य इन्द्रस्य स्तुतिं कुर्वन्ति यत् हे शूर, वयं त्वां नमामः। कीदृशा गावः – यथा अदुग्धाः गावः क्षीरपूर्णोधस्त्वेन  दुग्धं पाययितुं स्ववत्सान् आह्वयन्ति। कीदृशः स इन्द्रः अस्ति – यः जंगमस्य जगतः ईशानः, स्वामी अस्ति। न केवलं जंगमस्य, अपितु स्थावरस्य अपि स्वामी अस्ति। शूरः – वृत्रस्य, पापस्य हन्ता। वैदिकग्रन्थानुसारेण मेरुदण्डे नवतिर्नवानि संख्याकानि पर्वाः भवन्ति। तेभ्यः सर्वेभ्यः पापस्य हननकर्ता। सामगाने अयं उल्लेखमस्ति यत् गावः  सूर्यरूपिणं स्ववत्सं मुखे धारयित्वा तदा स्तुवन्ति, अतः भा, भभभा इत्यादि स्तोभाः प्रस्फुटन्ति।

न त्वावां अन्यो दिव्यो न पार्थिवो न जातो न जनिष्यते ।

अश्वायन्तो मघवन्निन्द्र वाजिनो गव्यन्तस्त्वा हवामहे ॥ - ऋ. ,०३२.२३

 

यूट्यूबोपरि रथन्तर साम

अभिमन्थति स हिङ्कारः । धूमो जायते स प्रस्तावः । ज्वलति स उद्गीथः ।

अङ्गारा भवन्ति स प्रतिहारः । उपशाम्यति तन्निधनम् । संशाम्यति तन्निधनम् । एतद्रथंतरमग्नौ प्रोतम् ॥ छा.उ. ,१२.१

अयं प्रतीयते यत् रथन्तर सामः पुरुषार्थस्य प्रतीकमस्ति। प्रथमतः, दृढ संकल्पेन कार्यारम्भः मन्थनमस्ति। तदोपरि तस्य मन्थनस्य परिणामाः धूम्र, ज्वाला, अंगार रूपेण प्रकटयन्ति।

स य एवमेतद्रथंतरमग्नौ प्रोतं वेद । ब्रह्मवर्चस्यन्नादो भवति । सर्वमायुरेति ।

ज्योग्जीवति । महान् प्रजया पशुभिर्भवति । महान् कीर्त्या । न प्रत्यङ्ङग्निमाचामेन्न निष्ठीवेत् । तद्व्रतम् ॥छा.उ. ,१२.२ ॥

 

सोमक्रयणम्1

सोमक्रयणस्य अयं चित्रः गार्गेयपुरम्, कर्नूल मध्ये २० जनवरीतः २ फरवरी यावत् अनुष्ठितस्य अप्तोर्याम सोमयागस्य श्री राजशेखरशर्मणः महोदयस्य संग्रहात् गृहीतमस्ति।

सोमक्रयणम्2

     सोमयागे प्रथमतः शूद्रात् सोमं क्रयित्वा, उष्णीषेण बन्धयित्वा तं सोमं शकटे स्थापयित्वा यज्ञवेदीं प्रति आनयन्ति। यदा एकः अनड्वान् शकटे बद्धः भवति, अन्यः मुक्तः भवति, तदा तं सोमं राजानं यज्ञवेदी मध्ये आसन्दीमुपरि स्थापयन्ति एवं प्रवर्ग्य – उपसद इष्टेः आयोजनं कुर्वन्ति। प्रवर्ग्य इष्ट्यां महावीर पात्रे घृतं भरित्वा तं अग्न्योपरि तापयन्ति। तत्पश्चात् तस्मिन् पात्रे घृतोपरि पयः प्रक्षेपणं कुर्वन्ति येन कारणेन अत्युच्च ज्वालानां आविर्भावं भवति। अयं प्रतीयते यत् अयं कृत्यं यज्ञस्य शीर्षस्य स्थापनं, ब्रह्मौदनं अस्ति। डा. दयानन्द भार्गवानुसारेण

यज्ञ का अर्थ है-आदान-प्रदान। हम किसी से कुछ लें तो किसी को कुछ दें भी। जब हम लेते हैं तो हम अग्नि हैं, जब हम देते हैं तो हम सोम हैं। दोनों के मिश्रण से यज्ञ होता है। प्रश्न होता है कितना लें और कितना दें। उत्तर है कि अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए जितना आवश्यक है उतना लें, शेष बचा हुआ दूसरों को दें। अपनी आवश्यकता पूरी करने पर बच जाता है उसे वेद ने उच्छिष्ट कहा है। इसे यज्ञशेष भी कहा जाता है। आज की भाषा में इसे प्रसाद कहते हैं। अपने लिए जो आवश्यक है, ब्राह्मण ग्रंथ उसे ब्रह्मौदन कहते हैं, जो बच जाए उसे प्रवर्ग्य कहते हैं। एक का प्रवर्ग्य दूसरे का ब्रह्मौदन बने-यह अहिंसक जीवन शैली का मार्ग है। हम दूसरे का ब्रह्मौदन छीनें, यह हिंसक जीवन शैली है।

     उल्लेखमस्ति यत् मित्रस्य कृत्यानि पयसा अनुष्ठीयन्ते, वरुणस्य सोमेन। प्रवर्ग्य कृत्ये सोमः उष्णीषेण बद्धः आसन्द्योपरि अतिथिरूपेण विराजमानः भवति, तस्य न कोपि अन्य उपयोगः भवति। यदा प्रवर्ग्य कृत्यस्य पुनरावृत्तयः पूर्णा भवन्ति, तदा तस्य सोमस्य स्थान्तरणं उत्तरवेद्यां कुर्वन्ति एवं शोधनान्तरं ग्रहसंज्ञक पात्रेभिः विभिन्न देवताभ्यः तस्य आहुतिप्रदानस्य कृत्यं भवति।

     अयं प्रतीयते यत् सोमस्य क्रयणं, तस्य यज्ञवेदेः यावत् आनयनम् ओंकारस्य अ मात्रायाः, आदानस्य प्रतीकमस्ति। प्रवर्ग्य कृत्ये सोमस्य अतिथिरूपे संधारणं ओंकारस्य उ मात्रायाः प्रतीकमस्ति एवं प्रवर्ग्योपरि सोमस्य शोधनं ओंकारस्य म मात्रायाः प्रतीकमस्ति। अ मात्रायाः अधिपतिः ब्रह्मा अस्ति, उ मात्रायाः विष्णुः एवं म मात्रायाः शिवः। सोमस्य क्रयणकाले ये कृत्याः सम्पन्नाः भवन्ति, तेषां ब्रह्मणः देवता कृत्येभ्यः सार्धं किंचित् सम्बन्धस्य स्थापनस्य आवश्यकता अस्ति। क्रीतं सोमं रथे अथवा शकटे स्थापयन्ति। रथस्य सार्थकता रसरूपे परिवर्तने अस्ति। यत्किंचिदपि कार्यं वयं कुर्मः, यदा तत् कार्यं प्रभूतं आनंदस्य स्रोतं भवति, तदैव तस्य रथोपरि आरोहणं भवति।  ब्रह्मणः कृत्यं सृष्टिकरणं, सृष्टिहेतु यत्किंचित् आवश्यकमस्ति, तस्य पूर्तनं अस्ति। रथन्तर सामे सृष्टिकरणं स्वर्दृशं शब्देन संकेतितं अस्ति, अयं प्रतीयते। यावत् द्रव्यस्य सममितिः अपूर्णमस्ति, तावत् तस्य स्वः दर्शनं स्थितिरपि दुर्लभमस्ति।

स्वधा

दूसरी संभावना जैमिनीय ब्राह्मण .१५९ के इस कथन से है कि प्रजापति ने रथन्तर द्वारा इस लोक में नष्ट स्वधा का अनुविन्दन किया / खोजा, वामदेव्य के द्वारा अन्तरिक्ष में नष्ट स्वधा का और बृहत् द्वारा उस लोक में नष्ट स्वधा का । रथन्तर, वामदेव्य व बृहत् के स्वरूप क्या होते हैं, इसकी एक झलक अथर्ववेद .११./.१०.४ से मिल सकती है जहां उल्लेख है कि रथन्तर से देवों ने ओषधि को दुहा, वामदेव्य से आपः को और बृहत् से व्यच को ।

पुष्कर

ऐसा प्रतीत होता है कि पुष्कर का सम्बन्ध सामगान के रथन्तर नामक सामगान से है । इसका आभास इस तथ्य से होता है कि पद्म पुराण में पुष्कर द्वीप के राजा पुष्पवाहन का वर्णन रथन्तर कल्प के अन्तर्गत कहा गया है । इस कथा में कहा गया है कि राजा पुष्पवाहन को देवों ने एक दिव्य पुष्कर प्रदान किया था जिस पर आरू होकर वह कहीं भी भ्रमण कर सकता था । अतः उसका नाम पुष्पवाहन पडा । पुष्कर व रथन्तर के अर्थों में कितनी समानता या असमानता है, यह नीचे वर्णित है । कहा गया है कि मनुष्यों के लिए रथ होता है, देवों के लिए रथन्तर । वैदिक साहित्य के रथन्तर को इस प्रकार समझा जा सकता है कि ६ या १२ दिवसीय पृष्ठ्य षडह नामक सोमयाग में ६ दिवसों को एक विशेष संज्ञा दी गई है जो उन दिवसों में गाए जाने वाले पृष्ठ साम पर आधारित है । प्रथम दिवस में गाए जाने वाले साम को रथन्तर साम कहते हैं । दूसरे दिवस के साम को बृहत् साम, तीसरे दिवस के साम को वैरूप साम, चौथे को वैराज, पांचवें को शाक्वर तथा छठे को रैवत कहते हैं । रथन्तर साम की आरम्भिक पंक्ति है - अभि त्वा शूर नोनुमो ऽदुग्धा इव धेनव: इत्यादि । ऐसा कहा जा सकता है कि तीसरे दिवस का वैरूप साम तथा पांचवें दिवस का शाक्वर साम भी रथन्तर साम के ही रूप हैं ( ऐतरेय ब्राह्मण .१३, ताण्ड्य ब्राह्मण १२.., , १३.. आदि ) । इस प्रकार रथन्तर साम के तीन रूप हो गए जो पुष्कर के तीन प्रकारों से सम्बन्धित हो सकते हैं । प्रथम प्रकार के रथन्तर में अग्नि की प्रधानता होती है । तप? की  अग्नि को मन्थन द्वारा उत्पन्न करना होता है । इससे धूम, अंगार आदि की स्थितियां उत्पन्न होती हैं ।  दूसरे वैरूप प्रकार (यद्याव इन्द्र ते शतम् इत्यादि ) में वायु की प्रधानता होती है जो अभ्र, गर्जन, विद्युत, वर्षा आदि उत्पन्न करती है । और तीसरे शाक्वर प्रकार( विदा मघवन् विदा गातुमनुशंसिषो दिशः इत्यादि ) में आपः की प्रधानता होती है । शाक्वर प्रकार को आपः में स्थित अवाक् स्थिति कहा गया है । इस साम के वर्णन के संदर्भ में कहा जाता है कि शक्वरियों ने अपने पिता प्रजापति से पांच बार नाम देने की मांग की । पुष्कर का निरुक्ति होगी - पू: - कर, एक पुर का निर्माण जहां हम बिल्कुल सुरक्षित रहें, मृत्यु आदि से कोई भय न हो । शतपथ ब्राह्मण ...१३ में आख्यान है कि वृत्र वध के पश्चात् इन्द्र भय से आपः में छिप गया । वहां भय निवारण के लिए आपः के रस से एक पुर का निर्माण किया गया । वही रसन्तर/रथन्तर है । वायु पुराण .२१.७० का कथन है कि रथन्तर स्थिति में एक अभेद्य सूर्यमण्डल की स्थिति होती है । इस अभेद्य सूर्यमण्डल का भेदन बृहत् साम द्वारा होता है (रथन्तरन्तुविज्ञेयं परमं सूर्य्यमण्डलम्। तस्मादण्डन्तु विज्ञेयमभेद्यं सूर्यमण्डलम् ।।)

इन्द्रजाल

जैमिनीय ब्राह्मण १.१३५ के अनुसार बृहत् जाल की साधना से पूर्व रथन्तर की साधना करनी पडती है। रथन्तर द्वारा अन्न प्राप्त होता है जो रथ रूपी अशना/क्षुधा को शान्त करता है। रथन्तर तथा अन्तरिक्ष आदि को स्व-निरीक्षण, अपने अन्दर प्रवेश करना, एकान्तिक साधना का प्रतीक कहा जा सकता है। योगवासिष्ठ में राजा लवण का आख्यान यह संकेत करता है कि एकान्तिक साधना में तो वासनाएं अपना सिर नहीं उठाती, लेकिन जब अश्व पर आरूढ होकर बृहत् की साधना करनी होती है तो अतृप्त पडी सारी वासनाओं का सामना करना पडता है।

 

ककुद्मी

सोमयाग में माध्यन्दिन सवन के पश्चात् अन्त में पृष्ठ स्तोत्र होते हैं । ६ दिवसीय सोमयाग में प्रथम दिन के पृष्ठ स्तोत्र क्रमशः रथन्तर, वामदेव्य, श्यैत व नौधस साम होते हैं । दूसरे दिन रथन्तर के बदले बृहत् साम होता है, शेष ३ वही रहते हैं । इसी प्रकार तीसरे दिन वैरूप, चौथे दिन वैराज, पांचवें दिन शक्वर तथा छठे दिन रैवत साम होता है । यज्ञ की क्रियाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि आकाश, वायु, अग्नि, जल व पृथिवी नामक ५ महाभूतों तथा रथन्तर आदि ६ सामों में कोई सम्बन्ध है ।

गौ

अभिप्लव षडह के छह दिनों की संज्ञा क्रमशः रथन्तर, बृहत्, रथन्तर, बृहत्, रथन्तर, बृहत् होती है जबकि पृष्ठ्य षडह के ६ दिनों की संज्ञा क्रमशः रथन्तर, बृहत्, वैरूप, वैराज, शक्वरी व रेवती होती है । जैमिनीय ब्राह्मण २.३४ के अनुसार गौ रथन्तर से, अश्व बृहत् से, अजा वैरूप से, अवि वैराज से, व्रीहि शक्वरी से और यव रैवत से सम्बद्ध हैं । रथन्तर और बृहत् के बारे में भ्रम की स्थिति रहती है कि  यह क्या हैं । ऐतरेय ब्राह्मण .२७ का कथन है कि रथन्तर द्वारा पृथिवी द्युलोक को प्रसन्न करती है, प्रभावित करती है जबकि बृहत् द्वारा द्युलोक पृथिवी को ।

नौका

ऐतरेय ब्राह्मण ४.१३ का कथन है कि सोमयाग में बृहद् व रथन्तर साम ही यज्ञ की नौका - द्वय हैं जिनके द्वारा संवत्सर को तरा जाता है । यही दो पाद हैं । इन कथनों को समझने के लिए यह जानना आवश्यक होगा कि रथन्तर साम का क्या अर्थ हो सकता है । कहा गया है कि जो रथन्तर है, वह रसन्तम:, रसों में सर्वोपरि है । रस का अर्थ होगा न्यूनतम एण्ट्रांपी वाला । रथन्तर साम द्वारा पृथिवी अपना सार सूर्य में स्थापित करती है, जबकि बृहत् साम द्वारा सूर्य अपनी ऊर्जा पृथिवी में स्थापित करता है । यह रसन्तमः रूप ही वह बीज हो सकते हैं जिनका उल्लेख मनु के आख्यान में किया जा रहा है । अतः जब ३६० अस्थियों के प्राणों को अग्निहोत्र रूपी नौका द्वारा तरने का या अग्निहोत्र द्वारा इन प्राणों को नाव का रूप देने का उल्लेख आता है तो उसका अर्थ यह हो सकता है कि प्रत्येक अस्थि( डा. फतहसिंह के अनुसार अस्ति, अस्तित्व मात्र समाधि का रूप ) के प्राणों को रसन्तमः रूप देकर उन्हें सूर्य में स्थापित करना है । सूर्य का अर्थ होगा बृहत् चेतना की स्थिति, समाधि की स्थिति ।

     आधुनिक विज्ञान के अनुसार बृहद् और रथन्तर के महत्त्व को श्री जे. ए. गोवान की वैबसाईटों के आधार पर समझा जा सकता है । श्री गोवान के अनुसार सूर्य पृथिवी पर सममिति की स्थापना करता है । जड जगत में इलेक्ट्रान आदि सूक्ष्म कणों पर जो आवेश विद्यमान है, वह सृष्टि के आरम्भ में विद्यमान सूर्य की ऊर्जा का अंश है । इसका कारण यह दिया गया है कि सृष्टि के आरम्भ में, बिग बैंग की घटना से पूर्व, यह ब्रह्माण्ड सममित था । बिग बैंग के पश्चात् पृथिवी आदि जड द्रव्यों की सममिति खोई गई (श्रीमती नोईथर की परिकल्पना के अनुसार सममिति को नष्ट नहीं किया जा सकता, जैसे ऊर्जा को नष्ट नहीं किया जा सकता । वह कहीं खो सकती है ) । लेकिन विद्युत आवेश के रूप में यह सममिति अभी भी विद्यमान है । दूसरी ओर, पृथिवी अपने गुरुत्वाकर्षण द्वारा सूर्य की रश्मियों को फैलने से रोकती है जिसके कारण प्रकाश की गति से वर्धित हो रहे ब्रह्माण्ड के विस्तार पर रोक लग जाती है । यह कहा जा सकता है कि यदि ब्रह्माण्ड के विस्तार पर अंकुश लग गया तो इससे ब्रह्माण्ड के अव्यवस्था की ओर बढने पर, एण्ट्रांपी में वृद्धि होने पर भी रोक लग जाएगी । श्री गोवान की भौतिक परिकल्पनाओं का अध्यात्म में क्या महत्त्व हो सकता है, इसे रथन्तर और बृहत् सामों के आधार पर समझा जा सकता है ।

      बृहत् साम को समझने के लिए जैमिनीय ब्राह्मण १.७ का यह कथन उपयोगी हो सकता है कि सायंकालीन अग्निहोत्र के संदर्भ में सूर्य पृथिवी के द्रव्यों में किस प्रकार समाहित होता है । उदाहरण के लिए, सायंकालीन सूर्य ब्राह्मण में श्रद्धा के रूप में, पशुओं में पयः रूप में, अग्नि में तेज रूप में, ओषधियों में ऊर्क् रूप में, आपः में रस रूप में और वनस्पतियों में स्वधा के रूप में छिप जाता है । फिर प्रातःकाल वह उन द्रव्यों से उदित होता है । श्री गोवान के अनुसार जड पदार्थों में सूर्य की ऊर्जा की उपस्थिति, विद्युत आवेश की स्थिति जड पदार्थ की सममिति में वृद्धि करती है । इसी कथन को जैमिनीय ब्राह्मण के कथन पर घटित कराया जा सकता है । मनुष्य देह रूपी नौका यदि असममित है तो उच्चतर चेतना के अवतरण द्वारा उसकी सममिति में वृद्धि होनी चाहिए ।

अत्रि

     जैमिनीय ब्राह्मण २.२८१ के अनुसार पहले चार(अन्नमय, प्राणमय, मनोमय व विज्ञानमय कोश?) मिथुन हैं। यह बृहद् और रथन्तर (बहिर्मुखी व अन्तर्मुखी चेतना?) के दिव्य मिथुन हैं। पांचवें हिरण्यय कोश का मिथुन नहीं होता।

ययाति

वैदिक साहित्य में कईं स्थानों पर बृहद् - रथन्तर द्वारा यातन के उल्लेख आते हैं ( उदाहरण के लिए, ऐतरेय ब्राह्मण ५.३०, जैमिनीय ब्राह्मण ३.३५) । ऐतरेय ब्राह्मण ५.३० में इन्हें रथ के दो चक्र कहा गया है ।

पशु

ताण्ड्य ब्राह्मण ७.६.१७ का कथन है कि "ऐरं बृहत् ऐडं रथन्तरं" । ताण्ड्य ब्राह्मण ७.७.१ का कथन है कि "पशवो बृहद्रथन्तरे" । इससे संकेत मिलता है कि जब पशुओं का रथन्तर रूप होता है, उनकी समता इडा से की जा सकती है । पशुओं का यह रथन्तर रूप स्व: रूपी स्वर्ग को प्राप्त करने में आधार का काम करता है ( वैदिक साहित्य में उल्लेख आता है कि मनु की पुत्री इडा मनु का हाथ पकड कर उनको स्वर्ग ले जाती है ) । रथन्तर और बृहत् शब्दों के स्वरूप को ठीक तरह समझ लेने की आवश्यकता है । जब पृथिवी या अन्य कोई वस्तु सूर्य (या चन्द्रमा) में अपनी ऊर्जा का समावेश करती है तो वह रथन्तर होता है । इसके विपरीत, जब सूर्य अपनी ऊर्जा का समावेश पृथिवी आदि में करता है तो वह बृहद् स्थिति होती है ।

छन्द

 त्रिष्टुप् छन्द को और अधिक स्पष्ट रूप में समझने के लिए हम स्तोभ शब्द पर ध्यान देते हैं । कहा गया है कि भ आदित्य का तेज रूप है तथा कि चक्षु ही स्तोभ का स्तोभ है ( जैमिनीय ब्राह्मण ३.३७० )और रथन्तर साम का गान करते हुए स्तोभ उच्चारण करते हुए इस आदित्य रूपी वत्स को मुख में धारण कर लिया जाता है । यह भ जलाए नहीं, अतः इसको ग्रहण करने के लिए, इसे शान्त करने के लिए विशेष प्रबन्ध करना होता है । ऋग्वेद की ऋचाओं में मरुत इन्द्र का परिस्तोभन करते हैं । जैमिनीय ब्राह्मण ३.७० में ३ पूर्व स्तोभों और ३ उत्तर स्तोभों प्राण, अपान और व्यान का उल्लेख है ।

 

अच्छावाक

सोमयाग में माध्यन्दिन सवन के पश्चात् चार पृष्ठ स्तोत्र होते हैं जिनका गान सामवेदी ऋत्विज करते हैं। प्रथम पृष्ठ स्तोत्र का नाम रथन्तर, द्वितीय का बृहत्, तीसरे का नोधस व चौथे का कालेयम् साम है। कालेयम् साम का निधन ऐळं होता है।

हस्ती

पुराणों में ऐसा भी कहा गया है कि जो अण्डकपाल - द्वय थे, उनको लेकर रथन्तर सामगान करने पर एक हस्ती का प्राकट्य हुआ जिसे इरा को दे दिया गया । उस इरा से ८ या ४ हस्तियों सुप्रतीक, वामन, अंजन आदि का जन्म हुआ । यहां अण्डकपाल द्यौ और पृथिवी रूप हो सकते हैं । रथन्तर साम द्वारा पृथिवी के तेज की द्युलोक में स्थापना की जाती है, जैसे भौतिक रूप में चन्द्रमा में दिखाई देने वाला कृष्ण भाग पृथिवी का रूप है । रथन्तर साम द्वारा तो ऊर्ध्व - अधो दिशा का रूपान्तरण होता है । लेकिन इस प्रकार उत्पन्न हस्ती से जिन ८ हस्तियों का जन्म होता है, उनका विस्तार ८ दिशाओं में, तिर्यक रूप में होता है ।

संदर्भ

१०,०४७.०१  जगृभ्मा ते दक्षिणमिन्द्र हस्तं वसूयवो वसुपते वसूनाम् ।

१०,०४७.०१ विद्मा हि त्वा गोपतिं शूर गोनामस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दाः ॥

१०,०९८.१०  एतान्यग्ने नवतिर्नव त्वे आहुतान्यधिरथा सहस्रा ।

१०,०९८.१० तेभिर्वर्धस्व तन्वः शूर पूर्वीर्दिवो नो वृष्टिमिषितो रिरीहि ॥

रथन्तर

रथ-

. तं वा एतं रसं सन्तं रथ इत्याचक्षते । गो १, ,२१ ।

. तदिदास भुवनेषु ज्येष्ठमिति रथस्य हैतद्रूपम् । तस्मात्तमभिहायैव तिष्ठन्ति । जै २,१२ ।
. तस्माद्रथः पर्युतो दर्शनीयतमो भवति । माश १३, ,,८ ।

. यदनो यद्रथं ददाति, शरीराणि तेन स्पृणोति । क ४४,५ ।

. रथमुष्णिहाभिः (प्रीणामि) । तैसं ५,,१४,; काठ ५३, ४ ।

. रथस् (चतुर्द्धा विभक्तस्य वज्रस्य तृतीयं (तृतीयोंऽशः) वा यावद्वा । माश १...१ ।

. वज्रो (वीर्यं [कठ ३७,१२) वै रथः । तैसं ५,,११, , काठ २१, १२, ३७, १२
तै १,,, , ,१२, ,; माश ५,,, (तु. काठ २९,)

. वैश्वानराय रथम् । तैआ ३, १०,४ ।

. वैश्वानरो वै देवतया रथः । तै २,, ,४ ।

१० हंसः शुचिषद्वसुरन्तरिक्षसदिति, रथं  वा एतत् परिवदति । मै ४..५ ।। [ - अशनया-
; आदित्य- ४७, दक्षिण,णा- ४२; यज्ञ- ११५ द्र.

रथकार- तक्षरथकार- द्र. । रथगृत्स- अग्नि - ५०८ द्र.

रथचक्र- रथचक्रं वै वज्रं कृत्वा देवा असुरेभ्य उपप्रावर्तयन् । मै ३, ,७ ।


रथ-प्रोत- आदित्य- २३९ द्र. । रथस्वन- ग्रैष्म- २ द्र.

रथाऽक्ष- रथाक्षेण विमिमीते । मै ४,.९ ।

रथे-चित्र- ग्रैष्म- २ द्र.

रथे-ष्ठा- जिष्णू रथेष्ठाः ( आजायताम्) । तैसं ७,,१८, ; मै ३,१२,६ ।

रथौजस् - अग्नि- ५०८ द्र.

 

रथन्तर ( सामन्-)-

. अथ रथन्तरम् । रेतः सिक्तिरेव सा । जै १, ३०५ ।

. अन्नं वै रथन्तरम् । ऐ ८, ; जै २,१४९; १७० (तु. जै २,४१६)

. अभ्येव रथन्तरेण क्रन्दति । जै २. २ ।

. अहर्वै बृहद् । रात्री रथन्तरम् । जै २.९८ ।

. इयं वै पृथिवी रथन्तरम् । काठ ३३,, ऐ ८,१ ।

. उप वै रथन्तरम् । तां १६,.१४ ।

. ऊर्ध्वा वै रथन्तरस्य देवहूतिः... तद्यद् रथन्तरस्य ऋचैवापरिष्टुभ्योर्ध्वमिव प्रस्तौति तस्मादयमूर्ध्वो लोक ऊर्ध्वोऽयमग्निर्दीप्यत ऊर्ध्वा ओषधय ऊर्ध्वा वनस्पतयस्सर्वमेवोर्ध्वम् । - जै १, २९६ ।

. ओ वा हा रथन्तरम् । जै १, १३३ ।

. चतुरक्षरं रथन्तरम् । तै २...७ ।

१०. तस्माद् रथन्तरस्य स्तोत्रे रथघोषं कुर्वन्ति । जै १ १४३, .११८ ।

११. तेजो रथन्तरं  साम्नाम् । तां १५,१०,६ ।

१२. परिमितं वाव रथन्तरम् । तैसं ३, ..३ ।

१३ प्राच्यै दिशो रथन्तरं भा असृजन्त (देवाः) । तद् अग्नेर्घोषोऽन्वसृज्यत । जै ३.३५६ ।

१४. यत् तिर्यग् इव (गीयते) तद् रथन्तरस्य (रूपम्) । जै ३,१०५ ।

१५. यद्रथन्तरं तच्छाक्वरम् । ऐ ४,१३ ।

१६. यद्वै रथन्तरं तद्वैरूपम् (साम) । ऐ ४.१३ ।

१७. यस्ते अग्नौ महिमा यस्ते अप्सु रथे यस्ते महिमा स्तनयित्नौ य उ ते वाते यस्ते महिमा तेन संभव रथन्तर! द्रविणस्वन् न एधि । जै १,१२८ ।

१८. रथन्तरं वै सम्राट् । तै १...९ ।

१९. रथन्तरं सामभिः पात्वस्मान् गायत्री छन्दसां विश्वरूपा । त्रिवृन्नो विष्ठया स्तोमो अह्नां  समुद्रो वात इदमोजः पिपर्तु । तैसं ४,,१२,१ ।

२०. रथन्तरं सामासृजत ( प्रजापतिः शीर्षत एव मुखतः) । जै १.६८ ।

२१ रथन्तरं साम्नाम् (प्रतिष्ठा) । तां ९..४ ।

२२. रथन्तरँ हीयम् (पृथिवी) । माश १.., १७ ।

२३. रथन्तरं  ह्येतत्परोक्षं यच्छयैतम् (साम) । तां ७,१०.८ ।

२४. रथंतरं नाम मे सामाघोरञ्चाक्रूरञ्च (सामवेद उवाच) । गो १..१८ ।

२५. रथन्तरमाजभारा वसिष्ठः । ऐआ ३,,६ ।


२६. रथन्तरमुत्तराद् गायति । काठ २१., क ३१,२० ।

२७. रथन्तरमेतत्परोक्षं यच्छक्वर्य्यः (यद्वैरूपम् [तां १२,., ९ । तां १३, .८ ।

२८. रथन्तरेण वै देवा ऊर्ध्वा स्वर्गं लोकमायन् । जै १, १३५ ।

२९ रथन्तरेण वै दैव्यमाजिमुज्जयति, रथेन मानुषम् । जै २,१९३ ।

३०. रथम्मर्य्याः क्षेप्लातारीदिति तद्रथन्तरस्य रथन्तरत्वम् । तां ७, .४ ।

३१. रथा ह (असुरा रक्षांसि च) नामासुः । ते ( देवाः स्वर्गं लोकं गत्वा) अब्रुवन्नतारिष्म वा इमान् रथानिति । तदेव रथन्तरस्य रथन्तरत्वम् । जै १, १३५ ।

३२. रसंतमं ह वै तद्रथन्तरमित्याचक्षते परोऽक्षम् । माश ९,१२, ३६ ।

३३. वज्रो वै रथन्तरम् । जै २, १६९ ।

३४. वाग् (रात्री [ जै २.९ ८) रथन्तरम् । जै १,१२८, .३२९, , ३१६; तां ७,, १७ ।

३५. वाग्वै रथन्तरम् । ऐ ४,२८  जै १, २३०, ,  .३६८; , ११ ।

३६. विश्वायू रथन्तरम् । जै १ २९२, ,४३३ ।

३७. श्यैतं ह वा अग्ने रथन्तरस्य प्रिया तनूरास । जै १, १४५ ।

३८. श्रीरेषा यद् रथन्तरम् । जै १, ३३० (तु. जै १,३२८)

३९. समुद्र एष यद् रथन्तरम् । जै १,३३२ ।

४०. ( प्रजापतिः) रथन्तरमसृजत तद्रथस्य घोषो ऽ न्वसृज्यत । तां ७,, ९ ।

४१. स राशिश्चतुश्चत्वारिंशो भवति, रथन्तरसामा । जै २,१६४ ।। ।।*अग्निरेव रथन्तरस्य (अधिपतिः) जै. १.२९२

*अग्निर्वै रथन्तरम् ऐ. ५.३०, जै. १.३३५

*अग्ने रथन्तरम् (इन्द्रोऽन्वपाक्रामत्) मै. २.३.७

*अथातो दक्षिणः पक्षः सोऽयं लोकः सोऽयमग्निः सा वाक्तद्रथन्तरं स वसिष्ठः। - ऐ.आ. १.४.२

*या (वाक्) पृथिव्यां साऽग्नौ, सा रथन्तरे- काठ. १४.५

*अद्य वाव रथन्तरम् तै.सं. ३.१.७.२

*अन्नमु वै रथन्तरम् जै. १.१३६

*अपानो रथन्तरम् तैसं. ५.३.४.२, तां ७.६.१४, १७, मा.श. ८.४.२.६, १२.९.२.१२

*रथन्तरेण वै देवा असुरान् संविच्य बृहता जालेनेवाभिन्यौब्जन् जै. १.१३५

*आयतनं रथन्तरम्  - जै. १.३३०

*ऋग्घि रथन्तरं साम बृहत् जै. १.१३३

*ऋग् रथन्तरम् जै. १.१२८, तां ७.६.१७

*तद् यद् रथन्तरस्यर्चैवापरिष्टुभ्य प्रस्तौति तस्माद् राथन्तराः पशवो ऽस्थिप्रतिष्ठानाः जै. १.२९७

*ऐडं रथन्तरम् तां ७.६.१७

*ओषधीरेव देवेभ्यो रथन्तरेणादुह मै ४.२.२

*सलोके वै कालेयञ्च रथन्तरञ्च जै. ३.१५

*ब्रह्म वै रथन्तरं क्षत्रं बृहत् जै. २.१०३, २.१३२, २.१६४

*गायत्रं वै रथन्तरम् तां ५.१.१५

*गायत्रेण रथन्तरम् (समर्धय) तैसं. ३.१.१०.१)

गायत्रं वै रथन्तरं गायत्रछन्दः तां १५.१०.९

*गायत्री वै रथन्तरस्य योनिः तां १५.१०.५

*अयं (पृथिवी-)लोको रथन्तरमयं गार्हपत्यः काठसंक ९-३

*गौरेव रथन्तरम् जै १.३३३

*गौर्वै रथन्तरम् जै २.३४

*वसन्तेन ऋतुना देवा वसवस्त्रिवृता स्तुतम्। रथन्तरेण तेजसा हविरिन्द्रे वयो दधुः मै. ३.११.१२, तै.ब्रा. २.६.१९.१

*पुंसो वा एतद् रूपं यत् त्रिष्टुप्, स्त्रियै रथन्तरम् जै. ३.२१९

*इदं वै रथन्तरम् (पृथिवी) अदो बृहत् (द्यौः) जै. १.१२८, १.३४३

*एष वै देवरथो यद् रथन्तरम् जै. १.१३० (तु. तां ७.७.१३)

*ब्राह्मणाच्छंसी सप्तदशेन पक्षेण रथन्तरेणोद्गायति जै. २.४०७

*पशवो रथन्तरम् जै. ३.२९५

*अयं वै लोको रथन्तरम् ऐ. ८.२, मा.श. ८.५.२.५

*अयमेव लोको रथन्तरम् जै. १.२२९ (तु. माश १.७.२.१७)

*इयं रथन्तरम् जै. १.८८

*इयं वै पृथिवी रथन्तरम् ऐ. ८.१

*इयं वाव रथन्तरम् तैसं ३.१.७.२

*इयं वै रथन्तरम् तस्या असौ वत्सो योऽसौ (आदित्यः) तपति जै १.३२८

*उपहूतं रथन्तरं सह पृथिव्या माश १.८.१.१९, तै. ३.५.८.१

*नमो मात्रे पृथिव्यै, रथन्तर मा मा हिंसीः जै. १.१२९

*यद्यस्मिन् लोके रथन्तरेणानुविन्दाम. . . .. तस्य सोमचमसो दक्षिणा भवति जै २.१५९

*सा (वाक् ) प्रथममहः प्राप्य रथन्तरं भवति। इयमेव पृथिवी जै २.१

*रथन्तरं वै पृष्ठानामग्रं ज्यैष्ठ्यम् जै २.२२७

*प्रजननं वै रथन्तरम् जै २.९३, २.१४६, २.१७४, २.२३९,

*प्रजापतिर्वै रथन्तरम् जै १.२३१

*प्रतिष्ठा वै रथन्तरम् जै. १.२२९

*रथन्तरं प्रस्तावः जै १.२९२, २.४३३

*इयमेव प्राची दिग् रथन्तरम् जै २.२१

*वासन्तिकौ मासौ प्रयच्छेति। एतौ ते प्रयच्छानीत्यन्नमन्नमिति पतित्वास्यै प्राच्यै दिशो रथन्तरं भा आदत्त। - जै ३.३६६

*प्राण एव रथन्तरम् जै. १.२२९

*वाग्वै रथन्तरस्य रूपं प्राणो बृहतः शांआ ७.२०

*एतद्वै राज्यं यद्रथन्तरम्। अथैतत्स्वाराज्यं यद् बृहत्। रथन्तरेणैव कनीयान् (भ्राता) राज्यं गच्छति। बृहता ज्यायान् स्वाराज्यं लोकम् जै २.९४

*तद्यत्र बृहद्रथन्तरे आजिमैतां तद् बृहदुद्ज्जयद् रथन्तरं हीयमानममन्यत जै. १.३२९

*पुंसो वा एतद् रूपं यद् बृहत्, स्त्रियै रथन्तरम् जै. २.४०७

*पूर्वाह्णो ह वै रथन्तरस्य योगोऽपराह्णो बृहतः, अस इति रथन्तरस्य हस इति बृहतः जै २.२९८

*प्रत्नं वै बृहद् उप रथन्तरम् जै. ३.१२

*मनो वै बृहद् वाक् रथन्तरम् जै. ३.१२

*यद्ध्रस्वं तद्रथन्तरं यद्दीर्घं तद् बृहत् कौ ३.५

*रथन्तरेणैव ब्राह्मण श्रेष्ठतां गच्छति बृहता राजन्यः जै. २.१३२

*रथन्तरेणैवाग्नि श्रेष्ठतामगच्छद् बृहतेन्द्रः जै. २.१३२

*वृषा वै बृहद् योषा रथन्तरम् ऐआ १.४.२

*एतद्वै रथन्तरस्य स्वमायतनं यद् बृहती तां ४.४.१०

*ब्रह्म रथन्तरम् ऐ. ८.१, ८.२, जै २.१२९, २.१३३, ३.३१६, तां ११.४.६

*ब्रह्मवर्चसं वै रथन्तरम् तैब्रा २.७.१.१

*भूतं वाव रथन्तरम् तै.सं. ३.१.७.२-३


राथन्तर-

. आग्नेयमाज्यं भवति राथन्तरम् । जै ३, २०७ ।

. नमस्ते राथन्तराय यस्ते दक्षिणः पक्षः । ऐआ ५,.२ ।

. ये वा अन्यतोदन्ताः पशबस्ते राथन्तरा ये उभयतोदन्तास्ते बार्हताः । जै १.१२८ ।

. राथन्तरं पञ्चममहः । तैसं ७.,, २ ।। [- अग्नि- ६३३; उत्तरतस् ७; गो- २४ ,
त्रिणव- १४, पृथिवी- १८६, बार्हत- १५ बार्हती- द्र.

राथन्तरी- राथन्तरी वै रात्री । ऐ ५,३० ।

बृहद्रथन्तर ( सामन्- )

१ अनड्वाहौ वा एतौ देवयानौ यजमानस्य यद् बृहद्रथन्तरे । तां १२,.१४ ।

. आत्मा वै बृहद्रथन्तरे । जै ३,३७ ।

. उभे बृहद्रथन्तरे भवतस्तद्धि स्वाराज्यम् । तां १९,१३,५ ।

. एतद् वै दैव्यं मिथुनं प्रजननं यदुभे बृहद्रथन्तरे । जै २.८१ ।

. एते वै यज्ञस्य नावौ संपारिण्यौ यद् बृहद्रथन्तरे ताभ्यामेव तत्संवत्सरं तरन्ति । ऐ ४.१३ ।
. एते ह वै तीव्रे बहुले यदुभे बृहद्रथन्तरे । जै २,१५१ ।

. ज्योगामयाविने उभे (बृहद्रथन्तरे ) कुर्य्यादपक्रान्तौ वा एतस्य प्राणापानौ यस्य ज्योगामयति प्राणापानावेवास्मिन्दधाति । तां ७, , १२ ।

८ तस्योभे बृहद्रथन्तरे सामनी भवत स्वर्ग्ये । जै २,१६२ ।

. ते ह वा एते ग्रामेगेये एवापिनिधने यद् बृहद्रथन्तरे । जै १, १३४ ।

१०. तौ प्राणापानौ (बृहद्रथन्तरे) ताविमौ लोकौ (द्यावापृथिवी ), तद्दैव्यं मिथुनम् । जै २.४२४ ।
११. पक्षौ (पादौ) वै बृहद्रथन्तरे शिर एतद् (आरम्भणीयम्) अहः । ऐ ८, १३ ।

१२. बृहद्रथन्तरयोस् त्वा स्तोमेनेत्याहौज एवास्मिन् एतेन दधाति । तैसं २.,११.४ ।

१३. बृहद्रथन्तरे वै देवानां प्लवः । काठ ३३.५ ।

१४. यद् बृहद्रथन्तरे अभितो गायते रक्षसामपहत्यै । मै ३, .५ ।। [ - अग्नि-२११; अहोरात्र-
 ३०; इन्द्र- ८१; क्षत्र- ,१ ९; नौधस- , पक्ष- ; ; पशु- २९ , १६१, २४६; पितृ - ; प्रजनन- ३ तं प्राणापान- १ ७; बृहत्- १६.