पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX ( Ra, La)
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Festivel of protective threadRegional variations of the festival of Rakshabandhan Tying of
holy knot on the hand on full moon day of August(Shraavana) is one of the main
festivals of northern India. The roots of this festival can be traced in vedic
literature. According to Dr. Fatah Singh, there are several hymns in Atharva
veda which are concerned with tying of different types of holy knots, depending
on the desire of the person. These knots are called gems in Atharvaveda. This
gem may signify a higher state of mind.
On the day before main festivals, some particular holy signs are written
on the doors, as shown in figures. These figures also contain a bird. This is
significant, as this festival is the end of a month – long observance of
purity of speech. This observance is called nightingale. And there is a
particular sacrifice in vedic literature having the same name. The purpose of
this observance is to let purification of inner voice, the voice which apprises
us of our past deeds. When this is attained, only then one is able to read vedas
whose teaching starts from this day.
There are several stories attached with this festival. One is that the
festival started when king Dasharatha killed Shravana Kumar by mistake and later
repented for it. The inner meaning of the story is that our present hearing
faculty is devoted only in serving our lower self(signified in the story by aged
mother and father of Shravana Kumar). This hearing faculty has to be detached
from lower self and connected with higher self if one has to proceed on sacred
path. First published : 13-8-2007 रक्षाबन्धन प्राथमिक टिप्पणी : श्रावण पूर्णिमा को मनाए जाने वाले रक्षाबन्धन पर्व के संदर्भ में कोई विशेष कथा उपलब्ध नहीं है । लक्ष्मीनारायण संहिता के अनुसार इस दिन हय शीर्ष धारी विष्णु ने हिरण्याक्ष दानव का वध किया था जिसके कारण रक्षाबन्धन पर्व मनाया जाता है । देवों और असुरों के युद्ध में देव हार रहे थे । तब इन्द्राणी ने इन्द्र को रक्षा सूत्र बांधा जिसके फलस्वरूप देवताओं ने असुरों को पराजित कर दिया । इसके स्मृति स्वरूप भी रक्षाबन्धन पर्व मनाया जाता है । पौराणिक संदर्भों के अनुसार कुसुम्भ से बने सूत्र में सरसों, राई, अक्षत आदि बांध कर उसे रक्षा सूत्र के रूप में बांधा जाता है । डा. फतहसिंह के अनुसार अथर्ववेद के बहुत से सूक्तों का विनियोग रक्षासूत्र बनाने के लिए किया जा सकता है जैसे जाङ्गिड मणि का सूक्त, अस्तृत मणि आदि । डा. फतहसिंह के अनुसार मणि मन की किसी उच्च अवस्था का द्योतक है । रक्षाबन्धन से पूर्व दिवस में दरवाजे पर बनाए जाने वाले सोन/शकुनों? को चित्र में दिखाया गया है । इस चित्र में एक पक्षी विद्यमान है । इसका कारण यह है कि आषाढ पूर्णिमा से एक व्रत का आरम्भ किया जाता है जिसे कोकिला व्रत कहते हैं । यह व्रत श्रावण पूर्णिमा को समाप्त होता है । इस दिन गौरी रूपी कोकिला की हेम मूर्ति बनाकर दान की जाती है । इसका अर्थ होगा कि अब वाक् पूर्णतः शुद्ध हो गई है । डा. लक्ष्मीनारायण धूत के अनुसार प्रकृति के तीन स्तर हैं – तामसिक, राजसिक और सात्त्विक । तामसिक प्रकार की भौतिक प्रकृति का दर्शन तो हम बाह्य जगत में कर ही रहे हैं । इस तामसिक प्रकृति में जो विकास का क्रम चल रहा है, वह प्रकृति की राजसिक प्रवृत्ति के कारण है । इससे भी आगे के क्रम में सात्त्विक प्रकृति आती है जहां विकास का क्रम बहुत तीव्र गति से होता है । इसे ही गौरी कहते हैं । श्रवण नाम यम के १२ दूतों का भी है जो प्रेत को उसके अच्छे - बुरे कर्मों का श्रवण कराते हैं । पर्वों से सम्बन्धित एक पुस्तक में रक्षाबन्धन को राजा दशरथ द्वारा श्रवणकुमार की हत्या से जोडा गया है । जब दशरथ ने अनजाने में श्रवण कुमार का वध कर दिया तो उन्हें पश्चात्ताप हुआ और उन्हें अपने पूर्व कर्मों की स्मृति उत्पन्न हो गई । इस कथा का निहितार्थ यह हो सकता है कि प्रत्येक व्यक्ति में श्रवण शक्ति अपने बूढे माता - पिता के लिए पानी भर रही है । आवश्यकता इस बात की है कि इस श्रवण शक्ति का उपयोग वहां से हटाकर किसी उच्च स्तर पर, अपने पूर्व जन्मों की स्मृति को जागृत करने में किया जाए । इस श्रवण शक्ति को वाक् कहते हैं, अन्तरात्मा की आवाज । श्रावणी पर्व पर वेदाध्ययन आरम्भ किया जाता है जो संभवतः चातुर्मास के कारण रोक दिया गया था । यह कहा जा सकता है कि सम्यक् श्रवण शक्ति का विकास होने पर ही वेदाध्ययन किया जाता है । कोकिल व्रत का वैदिक मूल कौकिल सौत्रामणि याग हो सकता है । कौकिल सौत्रामणि याग सौत्रामणि याग का एक विशेष प्रकार है । सौत्रामणि को सरल भाषा में इस प्रकार समझ सकते हैं कि एक सूत्र है, एक मणि है । सूत्र को मणियों में पिरोना है, अथवा मणियों को सूत्रबद्ध करना है। कहा गया है कि प्राण सूत्र है जिसके द्वारा मन रूपी मणियों को एकीकृत करना है (सौत्रामणि की यह परिभाषा शास्त्र – सम्मत नहीं है । शास्त्रीय परिभाषा में इन्द्र को सुत्रामा बनाने के कारण, उसका पाप से त्राण करने के कारण याग का नाम सौत्रामणि है)। जिस प्रकार सोमयाग में शूद्र से गौ, सुवर्ण आदि के बदले सोम का क्रय किया जाता है, इसी प्रकार सौत्रामणि याग में क्लीब से सीसे के बदले शष्पों (अंकुरित धान्य?) का क्रय किया जाता है । कौकिल सौत्रामणि में कालायस के बदले तोक्म आदि का क्रय किया जाता है । इस याग में प्रतिप्रस्थाता नामक ऋत्विज आहुतियां देने हेतु सुराग्रह ग्रहण करता है जबकि अध्वर्यु नामक ऋत्विज पयोग्रह धारण करता है । प्रतिप्रस्थाता ऋत्विज सुरा के शोधन के लिए गौ व अश्व के लोमों से बना पवित्र धारण करता है जबकि अध्वर्यु अज व अवि के लोमों से बना पवित्र(पयः के शोधन के लिए?) धारण करता है । व्याख्या अपेक्षित है । सौत्रामणि याग का मूल यह है कि त्वष्टा के यज्ञ में संगृहीत सोम का बलात् पान करने के कारण इन्द्र के विभिन्न अंगों से वह सोम विभिन्न रूपों में स्रवित हुआ । जिन रूपों में वह स्रवित हुआ, उनमें इन्द्र के सह, मन्यु, ओज आदि बलों का स्रवण सिंह, व्याघ्र, वृक आदि आरण्यक पशुओं के रूप में हुआ । अतः इन्द्र की चिकित्सा हेतु, इन बलों के इन्द्र की देह में पुनः धारण हेतु सौत्रामणि याग का विधान है । इन्द्र द्वारा त्वष्टा के याग में अनुपहूत होने पर बलात् सोमपान का तथ्य हम सभी पर लागू होता है । हम प्रतिदिन स्वादिष्ट भोजन कर रहे हैं । इस सोम रूप स्वादिष्ट भोजन के लिए हमें आमन्त्रित नहीं किया गया है । अपितु हम बलात् उसको ग्रहण कर रहे हैं । इस भोजन से हमारे शरीर में सुरा या एल्कोहल का निर्माण होता है । यह एल्कोहल हमें कार्य करने के लिए शक्ति प्रदान करता है, लेकिन इससे हमारी जीवनी शक्ति का ह्रास भी होता है । इस प्रकार हम अपने शरीर के देवताओं की इष्टि सुरा द्वारा कर रहे हैं । अतः हमारा दैनिक जीवन सौत्रामणि याग के एकदम निकट है । सौत्रामणि याग में सुरा का सन्धान करके उसमें क्लीब से क्रय किए हुए शष्प, तोक्म आदि का प्रक्षेप किया जाता है । इस याग में सुरा आदि आहुति द्रव्यों के अतिरिक्त आरण्य पशुओं के लोमों का भी उपयोग किया जाता है । यह कहा जा सकता है कि सह, मन्यु आदि बल जब उच्छ्रंखल होंगे, अव्यवस्थित होंगे तो वह आरण्यक पशुओं का, काम, क्रोध आदि का रूप धारण करेंगे । जब यह बल व्यवस्थित होंगे तो यह सिंह आदि के रूप में देवी के वाहन बनेंगे । कौकिल सौत्रामणि का यह अर्थ हो सकता है कि विकास का क्रम केवल मन और प्राण के स्तर तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए, उसे व्यावहारिक जीवन के स्तर पर भी परिलक्षित होना चाहिए। लगता है इसी तथ्य को कोकिला वाक् के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है । शतपथ ब्राह्मण काण्ड १२के वर्णन के अनुसार इस याग में मन, प्राण और वाक् तीनों के सहयोग से संवत्सर का निर्माण किया जाता है । विशेष रूप से, मन और प्राण द्वारा वाक् का वर्धन किया जाता है । शतपथ ब्राह्मण में विस्तार से वर्णन किया गया है कि सुरा – प्रधान सौत्रामणि याग का सोम – प्रधान याग में रूपान्तरण कैसे करना है ।
एक संदर्भ में रक्षाबन्धन के दिन प्रातःकाल सोकर उठने के पश्चात् कामोऽकार्षीद् मन्युरकार्षीद् इति मन्त्र का हजार बार जप करने का निर्देश है । इस मन्त्र का पूर्ण रूप महानारायणोपनिषद १८.२ में प्राप्त होता है जो इस प्रकार है : कामोऽकार्षीन्नमो नम: । कामोऽकार्षीत्काम: करोति नाहं करोमि काम: कर्ता काम: कारयिता ( नाहं करोमि नाहं कारयिता - तैत्तिरीय आरण्यक परिशिष्ट १०.६१) । एतत्ते काम कामाय स्वाहा । मन्युरकार्षीन्नाहं करोमि मन्यु: करोति मन्यु: कर्ता मन्यु: कारयिता । एतत्ते मन्यो मन्यवे स्वाहा । इस मन्त्र में कर्तृत्व से स्वयं को, अहंकार को हटा लेने का निर्देश है । आदर्श स्थिति वही होती है जहां केवल इच्छा मात्र से कोई कार्य सम्पन्न हो जाए । परिशिष्ट में इस यजु से पूर्व मनुष्य द्वारा विभिन्न पापों का उल्लेख है(यद्वो देवाश्चकृम जिह्वया गुरुमनसो वा प्रयुती देवहेडनम्)। अतः इस यजु के सायण भाष्य में कहा गया है कि जो पाप किए गए हैं, उनके लिए मैं उत्तरदायी नहीं हूं, अपितु काम ही उत्तरदायी है। लेकिन काम के व्यापक अर्थ पर विचार करके इससे भिन्न अर्थ भी लिया जा सकता है। डा. फतहसिंह ने यह स्पष्ट किया है कि वेद में जब कोई शब्द बहुवचन में होता है तो वह निचले स्तरों के विकास का प्रतीक होता है। जब वह शब्द एकवचन में होता है, तब वह उच्च स्तर के विकास का प्रतीक होता है, वह पवित्र होता है। उपरोक्त यजु में यदि कामः के स्थान पर कामाः होता तो यह कहा जा सकता था कि वह काम हमारे ऊपर आरोपित पापों के लिए उत्तरदायी है। लेकिन यहां चूंकि काम एकवचन में है, इसलिए यह हमारे पापों का नाश करने वाला है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि यदि हमें पाप से बचना है तो कामाः को कामः बनाना होगा। कामाः के रूप में कामवृत्ति हमारी देह के कण – कण में विद्यमान है ही, यह सबको पता ही है। भविष्य पुराण में एक राजा कामपाल का उल्लेख है जिसने अपने सारे वीर्य को अपने सिर में स्थापित कर लिया है। समाज में यह सुविज्ञात है कि ऋषि – मुनि अपने वीर्य को ऊर्ध्वमुखी बना लेते हैं। ऐसा करने पर काम एक इकाई बन जाएगा जो पापों का नाश करेगा। वीर्य को सिर में स्थापित करना ऐसे ही होगा जैसे शिव ने अपने सिर में गंगा को धारण कर रखा है। वीर्य की स्वाभाविक प्रकृति सिर की ओर गति करने की ही है। हमें केवल इतना ही करना है कि हमने अपने कृत्रिम आचरण से उसकी गति में जो बाधाएं उत्पन्न कर दी हैं, वह दूर हो जाएं जिससे वीर्य का मार्ग अवरुद्ध न हो। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में वीर्य के महत्त्व का अधिक प्रतिपादन नहीं हो पाया है। इतना तो कहा ही जा सकता है कि वीर्य स्टेम सैल के निर्माण में सहायक हो सकता है और स्टैम सैलों की अधिकता से कोशिकाओं के विघटन की दर कम होगी। यदि वीर्य सिर में स्थापित हो गया तो उसके क्या लाभ हो सकते हैं। एक लाभ तो यह बताया गया है कि सबसे निचले स्तर पर चित्त है, चित्त के विकास की अगली सीढी स्मृति है, स्मृति से अगली सीढी स्मर(काम) है, स्मर से अगली सीढी विज्ञान है। चित्त की स्थिति में सारे संस्कार अचेतन रूप में विद्यमान रहते हैं। स्मृति की स्थिति में अचेतन में पडे संस्कार स्मृति में आने लगते हैं। स्मर स्थिति में अपने प्रयत्नों से स्मृति को जाग्रत किया जा सकता है, ऐसा अनुमान है। स्मर से अगली स्थिति विज्ञान कही गई है जहां भूत – भविष्य का ज्ञान होने लगता है। भूत – भविष्य का ज्ञान होने पर हमारी क्रियाएं पापों में नहीं बदलेंगी। काम के लिए त्रयोदशी तिथि का निर्धारण किया गया है। लक्ष्मीनारायण संहिता में पुरुषोत्तम मास के संदर्भ में पूर्वा त्रयोदशी के माहात्म्य में सनकादि कौमार सर्ग की कथा दी गई है। सनकादि कौमार सर्ग को स्मृति का प्रतीक कहा गया है। उत्तरा त्रयोदशी को सुदुघा कन्या की कथा दी गई है जो इन्द्र के लिए, आत्मा के लिए दुग्ध का, पयः का दोहन करती है। जहां भी तनाव होगा, वहां पयः तन्तुओं में बदल जाएगा। और पहले से ही जो तन्तु विद्यमान हैं, उनमें तनाव उत्पन्न हो जाएगा। तनाव का परीक्षण इस प्रकार किया जा सकता है कि तनावग्रस्त तन्तु दाब से, स्पर्श से प्रभावित होते हैं। अतः रक्षाबन्धन के संदर्भ में, जहां तन्तुओं का विशेष महत्त्व है, यह ध्यान देने योग्य है कि तन्तुओं में जडता न आने पाए। अथर्ववेद 9.2.1 में काम को इन्द्र का पर्यायवाची कहा गया है(कामस्येन्द्रस्य), वैसे ही जैसे सविता का सव, वरुण का राजा, अग्नि का होत्र, विष्णु का बल आदि। अतः काम को इकाई बनना इन्द्र का पद प्राप्त करनाहै। मन्यु के संदर्भ में, मन्यु को वह क्रोध कहा गया है जो आण्डों में उत्पन्न होता है। शिव द्वारा तीसरे नेत्र की ज्योति से भस्म करने की सामर्थ्य को भी मन्यु कहा गया है। हो सकता है कि इस मन्यु द्वारा आण्डों से कामोत्तेजना उत्पन्न करने वाले टैस्टेस्टेरोन आदि हारमोनों का जनन समाप्त कर दिया जाता हो और इसी कारण से शिव को कामदेव को भस्म करने वाला कहा जाता हो। मन्यु मज्जा में उत्पन्न क्रोध को कहा जाता है । ऐसा प्रतीत होता है कि यदि कामना मन्यु के स्तर तक पहुंच जाए तो वह तुरंत पूर्ण हो सकती है । मन्यु पर टिप्पणी द्रष्टव्य है रक्षासूत्र बांधते समय जिस मन्त्र का उच्चारण किया जाता है, वह इस प्रकार है : येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल: । तेन त्वा प्रतिबध्नामि रक्षो मा चल मा चल ।। पुराणों की बलि और वामन की कथा के संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि वैदिक पौर्णमास याग में अन्तिम कृत्य विष्णुक्रमण होता है । वाक् को शुद्ध करके आसुरी वाक् को दूर करना पौर्णमास याग के मुख्य उद्देश्यों में से है । शतपथ ब्राह्मण में आख्यान आता है कि असुरों ने शुद्ध वाक् को नष्ट करने के लिए मनु के ऋषभ की बलि दे दी । इस पर वह वाक् मनु - पत्नी में प्रविष्ट कर गई । तब असुरों ने मनु - पत्नी की भी बलि दे दी । इस पर वह वाक् दर्शपूर्णमास याग के पात्रों जैसे उलूखल - मुसल, दृषद- उपल आदि में प्रविष्ट कर गई । वहां से असुर वाक् को नहीं हटा सके । प्रस्तुत चित्र चन्द्रकला भार्गव द्वारा लिखित पुस्तक 'हमारे व्रत और त्योहार'( भार्गव बुक एजेन्सी, जीरो रोड, इलाहाबाद ) से लिए गए हैं । । रक्षाबन्धन के मुख्य कृत्यों की विधि भट्ट कुमारिल स्वामि - विरचित आश्वलायन गृह्य कारिका ( आनन्दाश्रम, पुणे से प्रकाशित आश्वलायन गृह्य सूत्र का परिशिष्ट) में उपलब्ध है । १.३२ में उपाकर्म विधि दी गई है । २.१ में श्रवणाकर्म है और २.२ में इसके पश्चात् दी जाने वाली सर्पबलि विधि है । इन विधियों में मुख्य रूप से पुरोडाश, चरु व सक्तू की आहुतियों व बलियों का विधान है जो पौर्णमास याग से मिलता - जुलता है । प्रथम लेखन : १३-८-२००७ ई. , संशोधन - १६-८-२०१५ |