पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX ( Ra, La)
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राजसूययाग राजसूययाग एक विशिष्ट याग है । इसको सर्वप्रथम राजा हरिश्चन्द्र ने वरुण से प्राप्त किया था। हरिश्चन्द्र कृत राजसूययाग में विश्वामित्र होता, आङ्गिरस उद्गाता और जमदग्नि अध्वर्यु थे, यह प्रसिद्ध आख्यायिका है1। इस याग को केवल क्षत्रिय राजा ही कर सकता है2 । साथ ही यह भी आवश्यक है कि वह केवल साधारण राजा न हो, अपितु उसे चक्रवर्ती राजा होना आवश्यक है3 । वह भी ऐसा होना चाहिए जिसने पहले कभी वाजपेय याग न किया हो4 । उसका कारण यह है कि वाजपेययाग करने से सम्राट पद की प्राप्ति कही है। राजसूययाग के करने से राट् (राजा) होता है । वाजपेययाग के द्वारा उत्तमपद को प्राप्ति के अनन्तर मध्यमपद की आकाङ्क्षा किसी को रह नहीं जाती। याग का स्वरूप इसमें अनुमति आदि इष्टियां, दर्विहोम आदि हवन, अदिति आदि पशुयाग और पवित्रसोम प्रभृति सोमयाग होते हैं । एतदर्थ यह राजसूययाग इष्टि, हवन, पशुयाग और सोमयागात्मक कहा जाता है । इस याग के अनुष्ठान में जिस समय सोमयाग हो रहा हो उन दिनों को छोड़कर शेष दिनों में नित्य अग्निहोत्र हवन स्वयं अग्निहोत्री को ही करना चाहिए। याग के दिनों में यजमान एवं यजमानपत्नी यवागु का आहार करें5। इस राजसूययाग के अनुष्ठान में तैंतीस मास का समय अपेक्षित है । पवित्रसोम फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा के दिन मातृपूजन और आभ्युदयिक श्राद्ध प्रभृति प्रारम्भिक --- १. तस्मै हरिश्चन्द्राय वरुणो एतं राजसूयाख्यं यज्ञक्रतुं प्रोक्तवान् । तस्य क्रतोर्विश्वामित्रो होता बभूव । अयास्य आङ्गिरस उद्गातासीत् । जमदग्निर्नामर्षिः सोऽध्वर्युरासीत् । तदानीं बभूव । शां० श्रौ. भा०, १५.२०.२१ । २. राज्ञो राजसूयः । का० श्रौ० १५.१.१. । राजा राजसूयेन स्वर्गकामो यजेत । शतसहस्रं सर्वेषु राजसूयिकेषु सोमेषु क्रमशः प्रतिविभज्यान्वहं ददाति । सत्या० श्रौ० १३.३.१,६ । यद्राजसूयेन यजते सर्वेषां राज्यानां श्रैष्ठ्यं स्वाराज्यमाधिपत्यं पर्येति । शां० श्रौ० १५.१२.१ । ३. सर्वं वै पूर्णं सर्वं परिगृह्य सूया । श० ब्रा० ५.२.२.४१ । ४. अनिष्ठितो वाजपेयेन । का० श्रौ० १५.१.१ । ५. यवागू राजन्यस्य । का० श्रौ० ७.४.२५ ।
कृत्य करके प्रधानकृत्य का प्रारम्भ करना चाहिए। पहले चार1 दीक्षा वाले पवित्र सोम का सङ्कल्प करे2 । इसका अनुष्ठान अग्निष्टोम के समान होता है। इसमें अध्वर्यु दर्भ के एक सौ पवित्र से यजमान को पवित्र करता है। यजमान हविःशेष का भक्षण न करे । अपितु अध्वर्यु आहवनीय में उसका हवन करे । यहाँ यजमान के क्षत्रिय होने पर भी दीक्षणीयेष्टि में 'दीक्षितोऽयं ब्राह्मणः' यह घोषणा जो की जाती है, वह यथाविधि उसी प्रकार से करे । वहाँ ब्राह्मण शब्द की जगह क्षत्रिय शब्द न कहे। सोम के आहरण के अनन्तर सोम का क्रयण होता है। सोम के क्रयण के अनन्तर न्यग्रोधस्तिभी (बड की कली) का भी आहरण और क्रयण करना चाहिए3 । सोमाभिषव के समय केवल सोम का ही अभिषव किया जाता है। न्यग्रोधस्तिभी के हवन के समय चमसपात्र में न्यग्रोधस्तिभी को दही के साथ मिलाकर हवन करना चाहिए4। सोमरस के पान के समय यजमान को दही और न्यग्रोधस्तिभी दिया जाता है। वही यजमान का सोमरस स्थानीय पेय होता है । इस अग्नि पर गरम किया हुआ आज्य क्षत्रिय को नहीं दिया जा सकता । अतएव यहाँ तानूनप्त्र विधि नहीं की जाती5 । इस याग में दक्षिणास्वरूप एक सहस्र गौ ऋत्विजों को दी जाती है6 । इस प्रकार उपर्युक्त विधि के अनुसार पवित्रसोमयाग की समाप्ति करे। तत्पश्चात् तीन अनूबन्ध्या याग करे । त्रैधातवी उदवसानीयेष्टि करे । अष्टमी को पवित्रसोम याग की साङ्गोपाङ्ग समाप्ति करे । पूर्णाहुति अध्वर्यु नवमी को यजमान के घर पर पूर्णाहुति हवन करे। यह पूर्णाहुति प्रजापति देवता के निमित्त की जाती है7। आज्यसंस्कार करके स्रुची को आज्य से भर ले । समिदाधानपूर्वक आहवनीय में आहुति दे । यजमान त्याग करे । यजमान अध्वर्यु को वर दक्षिणा दे8 । अनुमतीष्टि दूसरे दिन अनुमति संज्ञक इष्टि करे । इसमें अनुमति देवता के लिए आठ कपाल का --- १. चतुर्दीक्ष. । का० श्रौ० १५.१.३ । २. अथ राजसूयः तैष्याः पुरस्तात्पवित्रः । वै० श्रौ० ३६.१-२ । ३. वटस्य फलानि अङ्कुराश्च । सोमनिधानानन्तरमुपरवदेशे न्यग्रोधस्य च निधानम् । दे० प० पृ० ४६४ । ४. दध्नोन्मर्दितान् न्यग्रोधस्तिभीन् जुहुयात् । दे० प० पृ० ४६४ । ५. तानूनप्त्रस्य यजमानपदार्थत्वादग्नावधिश्रितस्याज्यस्य क्षत्रियस्य भक्षप्रतिषेधादत्र तानूनप्त्राभावः । दे० प० पृ० ४६५ । ६. सहस्रदक्षिणा । का० श्रौ० १५.१.३ । ७. इदं प्रजापतये इति हरिस्वामिनः । दे० प० पृ० ४६६ । पूर्णाहुतिं जुहोति । श० ब्रा० ५.२.२.१ । ८. तस्यां वरं ददाति । श० ब्रा० ५.२.२.१ । पुरोडाश करे1 । इस इष्टि में हविर्द्रव्य को पीसने के समय जो हविर्द्रव्य कृष्णाजिन पर गिर जाय उसे खादिर स्रुव में रखे । यजमान ब्रह्मा और अध्वर्यु दक्षिण दिशा की ओर जायँ । साथ में दक्षिणाग्नि में से अग्नि ले जायें । पृथ्वी के प्राकृतिक गर्त्त में अथवा ऊषरभूमि पर अग्निस्थापन करे2 । निर्ऋति देवता के निमित्त आहुति करे3। यह हवन शान्त्यर्थं किया जाता है । आहुति करके पीछे न देखते हुए सब कोई वापस देवयजन में आवें । जल से हाथ पैर धोयें । विहार में आकर इष्टि की शेष विधि की समाप्ति करें । ऋत्विजों को दक्षिणा में वस्त्र दे4 । दूसरे दिन अग्नि का उद्धरण करके इष्टि करे । इसमें अग्नाविष्णू देवता के निमित्त ग्यारह कपाल का पुरोडाश करे । सुवर्ण दक्षिणा दे5 । द्वादशी को पुनः उद्धरण करके इष्टि करे । इसमें अग्नीषोम देवता के निमित्त ग्यारह कपाल का पुरोडाश करे । पुनरुत्सृष्ट वृषभ दक्षिणा में दे6 । त्रयोदशी की इष्टि में इन्द्राग्नी का द्वादश कपाल का पुरोडाश करे । साण्ड ऋषभ दक्षिणा में दे । चतुर्दशी के दिन यवाग्रयणेष्टि करे । इसमें इन्द्राग्नी का द्वादशकपाल का पुरोडाश, विश्वेदेवा का चरु, और द्यावापृथिवी का एक कपाल का पुरोडाश करे । एक कपाल पर अधिश्रित द्यावापृथिवी देवता के पूरे पुरोडाश की आहुति सर्वत्र विहित है । प्रथमोत्पन्न गोवत्स दक्षिणा दे8 । राजसूय सम्बन्धी चातुर्मास्ययाग फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को चातुर्मास्ययाग का वैश्वदेव संज्ञक प्रथमपर्व करे9 । प्रतिपदा से अमावास्या पर्यन्त पूरे कृष्णपक्ष में पैर्णमासेष्टि करनी चाहिए । शुक्लपक्ष भर रोज दर्शेष्टि करनी चाहिए । इसीप्रकार चातुर्मास्ययाग की समाप्ति पर्यन्त अनुष्ठान का क्रम चालू रखना चाहिए | आषाढ की पूर्णिमा को वरुणप्रघास नामक पर्व का अनुष्ठान करे10 । कार्तिक की ---- १. अनुमत्यै हविरष्टाकपालं पुरोडाशम् । श० ब्रा० ५.२.२.२ । २. दक्षिणा गत्वा स्वयं प्रदीर्णे ईरिणे वा । का० श्रौ० १५.१.८ । नैर्ऋतमेककपालं कुर्यात् । सत्या० श्रौ० १३.३.१४ । ३. एष ते निर्ऋते भागस्तं जुषस्व । श० ब्रा० ५.२.२.३ । ४. वासो देयम् । का० श्रौ० १५.१.१० । ५. हिरण्यमाग्नावैष्णवे । का० श्रौ० १५.१.११ । ६. पुनरुत्सृष्टो गौरग्नीषोमीये । का० श्रौ० १५.१.१२ । ७. अनड्वान् साण्ड ऐन्द्राग्ने । का० श्रौ० १५.१.१३ । ८. प्रथमजो गोर्दक्षिणा । दे० प० पृ० ४६७ । ९. वैश्वदेवेन यजते । श० ब्रा० ५.२.३.१ । चातुर्मास्यान्यालभते । आप० श्रौ० १८.९.३ । १०. वरुणप्रघासैर्यजते । श० ब्रा० ५.२.३.२ ।
पूर्णिमा को साकमेध पर्व का अनुष्ठान करे1। फाल्गुन की पूर्णिमा को शुनासीरीय पर्व का अनुष्ठान करे2 । यह राजसूययाग करते हुए चातुर्मास्य याग का प्रयोग कहा है । इसके सिवाय नित्य चातुर्मास्य याग, दर्श एवं पौर्णमासयाग के समय पर यथासमय प्रत्येक नित्य याग तो करने ही चाहिए । प्रथम नित्य याग करके अनन्तर राजसूययाग में विहित याग करने का विधान है। पञ्चवातीय हवन इस हवन में गार्हपत्य के अग्नि में से आहवनीय में अग्नि का उद्धरण करने के पश्चात् आहवनीय में रखे हुए अग्नि का पाँच विभाग किया जाता है3। मध्य के अग्नि में से चारों दिशा में अग्नि रखे जाते हैं । मध्य में पहले से ही है। इस तरह पाँच भाग करे। ब्रह्मवरणादि कृत्य करके अध्वर्यु आज्य संस्कार करे । पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर और मध्य के अग्नि पर क्रमशः आहुति करे । तीन अश्वों से जुता हुआ रथ दक्षिणा में दे। इन्द्रतुरीय याग दूसरे दिन इन्द्रतुरीय संज्ञक याग करे। इस याग में अग्नि का आठ कपाल का पुरोडाश, वरुण के लिए यव का चरु, रुद्र के लिए गवेधुका का चरु और इन्द्र के लिए वाहिनी गौ का दही प्रस्तुत करे4 । यथाविधि याग करे । दही को छोड़कर शेष हवि का चतुर्धाकरण करे। जिस गौ का दही, याग के उपयोग में लिया है उसी गौ को दक्षिणा में दे। अपामार्गहवन पूर्वोक्त इन्द्र तुरीययाग के अनन्तर दूसरे दिन रात्रि के समय अपामार्ग हवन करे6 । तूष्णीं और जुहोति धर्म से कर्मापवर्गान्त कृत्य करे । दक्षिणाग्नि में अग्नि का उद्धरण और अन्वाधान करे । ब्रह्मवरण करे । पात्रासादन में कपाल की जगह खर्पर रखे । यहाँ होतृषदन, --- १. अथ साकमेधैर्यजते । श० ब्रा० ५.२.३.३ । २. अथ शुनासीर्येण यजते । श० ब्रा० ५.२.३.४ । माघ्यां शुनासीरीयम् । शां० श्रौ० १५.१२.१० । ३. पञ्चवातीयमाहवनीयम् । का० श्रौ० १५.१.१८ । ४. स्त्री जाति वाली गौ, जो वहन कार्य करती हो उसका दही होना चाहिए । दे० प० पृ० ४६९ । अनडुह्यै वहलाया ऐन्द्रं दधि भवति । श० ब्रा० ५.२.३.१३ । ५. दक्षिणालम्भने वहिनी गौरसीति । दे० प० पृ० ४७० । वहिनी धेनुर्दक्षिणा । आप० श्रौ० १८.९.८ । ६. अथापामार्गहोमं जुहोति । श० ब्रा० ५.२.३.१४ । अपामार्गहोमेन चरन्ति । आप० श्रौ० १८.९.१५ । निशायामपामार्गहोमेन चरन्ति । सत्या० श्रौ० १३.३.३२ ।
श्रृतावदान, प्राशित्रहरण और अन्तर्धानकट नहीं है । अपामार्ग का फल हविर्द्रव्य है । उसी का संस्कार करके चावल बना ले1 । दक्षिणाग्नि में से अग्नि लेकर उत्तर की ओर जाय । अग्नि स्थापन करके वैकङ्कत स्रुव और जुहू आदि का संस्कार करे2 । समन्त्रक आहुति करे3 । हवन करके राक्षसों के वध की कामना से उसी दिशा की ओर स्रुवा फेंक दे जिस दिशा की ओर हवन के लिए गये हों4 । पीछे की ओर न देखते हुए वापस आवें । त्रिषंयुक्तेष्टि यह इष्टि फाल्गुनशुक्ल प्रतिपदा के दिन की जाती है । इस इष्टि में अग्नाविष्णु का ग्यारह कपाल का पुरोडाश, इन्द्राविष्णु का चरु और विष्णु का तीन कपाल का पुरोडाश किया जाता है । इस याग की दक्षिणा का विष्णु देवता से सम्बन्ध है । विष्णु वामन ( ह्रस्वाङ्ग ) है । एतदर्थ इस याग में दक्षिणास्वरूप ह्रस्वांग वाली गौ को देने का विधान है5 । दूसरे दिन दूसरी त्रिषंयुक्ता इष्टि करे6 । इसमें आग्नापौष्ण के लिए एकादशकपाल का पुरोडाश, ऐन्द्रापौष्ण के लिए चरु और पौष्ण के लिए चरु इस तरह तीन हवि तैयार करे । कृष्णा गौ दक्षिणा में दे । तीसरे दिन तीसरी त्रिषंयुक्ता इष्टि करे7 । इसमें अग्नीषोमीय एकादशकपाल का पुरोडाश, ऐन्द्रापौष्ण चरु और पौष्ण चरु इस तरह तीन हवि तैयार करे । दक्षिणास्वरूप दी जाने वाली गौ का रंग भूरा होना चाहिए । द्विहविष्केष्टि चौथे दिन दो हविवाली इष्टि की जाती है । इस इष्टि में वैश्वानर का द्वादशकपाल का पुरोडाश और वरुण के लिए यव का चरु करे8 । अन्वाहार्य दक्षिणा दे । रत्नहविर्याग ये रत्नहविर्याग सङ्ख्या में बारह होते हैं । इनमें से प्रत्येक का अनुष्ठान सेनापति ---- १. अपामार्गतण्डुलान् कृत्वा । का० श्रौ० १५.२.२ । २. स्रुवे पलाशे वैकङ्कते वा । का० श्रौ० १५.२.२ । ३. देवस्य त्वा । श० य० ९.३८ । ४. रक्षसां त्वेति स्रुवमस्यति । का० श्रौ० १५.२.७ । ५. वामनः ह्रस्वङ्गांगः- यतो वामनो विष्णुसम्बन्धी, अतो वैष्णवयागे दक्षिणात्वेन भवितुं युज्यत इत्यर्थः । श० ब्रा० ह० भा० ५.२.४.४ । ६. ततः श्वो भूते द्वितीयां त्रिसंयुक्तसंज्ञां त्रिहविष्कामिष्टिं निर्वपेत् । दे० प० पृ० ४७१ । ७. ततः श्वोभूते तृतीयां० इष्टिं कुर्यात् । दे० प० पृ० ४७२ । ८. श्वो वैश्वानरो० वारुणश्चैकतन्त्रे । का० श्रौ० १५.२.१८ ।
प्रभृति के घर जाकर याग सम्पादित किया जाता है1। इनका प्रारम्भ फाल्गुन शुक्ल तृतीया या चतुर्थी से होकर प्रतिदिन एक याग का अनुष्ठान होता है । प्रारम्भ में अग्नि का समारोप करके मन्थन किया जाता है । विवरण इस प्रकार है । यागगृह देवता हविर्द्रव्य दक्षिणा सेनापति अग्नीरनीकवान् अष्टाकपालपुरोडाश सुवर्ण पुरोहित बृहस्पति चरु श्वेतपृष्ठा गौ स्वगृह इन्द्र एकादशकपालपुरोडाश ऋषभ प्रथमपरिणीतापत्नी अदिति चरु धेनु सूत वरुण चरु ( यव का ) अश्व ग्रामणी ( ग्रामनेता ) मरुत् सप्तकपालपुरोडाश विचित्रवर्णा गौ प्रतीहार सविता द्वादशकपालपुरोडाश श्वेतवृषभ रथयोजक अश्वि द्विकपालपुरोडाश युग्म गौ परिवेषक पूषा चरु श्याम गौ स्वगृह रुद्र चरु ( गवेधुका का ) श्वेतबाहुगौ आदि दूत अध्वदेव आज्य धनुष अपुत्रापत्नी निर्ऋति चरु ( कृष्णव्रीहि का) रुग्णा गौ उपर्युक्त बारह रत्नहविर्यागों को यथाविधि सम्पन्न करे । बारहवें याग में विशेष यह है कि अपुत्रा पत्नी के घर याग करने के अनन्तर उसे घर छोड़कर चले जाने को कहे । यजमान के कथनानुसार वह घर छोड़कर चली जाय और फिर किसी ब्राह्मण के यहाँ निवास कर अपना शेष जीवन यापन करे। सोमारौद्रयाग उपर्युक्त बारह रत्नहविर्याग करके सोमारौद्रयाग करना चाहिए2। यह याग फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को होता है । इसमें श्वेत गौ के दूध में सोमारौद्र देवता के निमित्त चरु बनाकर ---- १. सेनान्यो गृहान्० , पुरोहितस्य०, सूयमानस्य०, महिष्यै गृहान्०, सूतस्य गृहान्०, ग्रामण्यो गृहान्०, क्षत्तुर्गृहान्०, सङ्ग्रहीतुर्गृहान्०, भागदुघस्य गृहान्०, सूयमानस्य गृहे०, पालागलस्य गृहान्०, परिवृत्यै गृहान्० । श० ब्रा० ५.२.५.१-१३ । द्वादशान्वहं रत्निनां हवींषि । आप० श्रौ० १८.१०.१२।। श्वो भूते त्रयोदश रत्निनां हवींषि । सत्या० श्रौ० १३.४.१ । द्वादशाहेन रत्निनां हवींषि । बौ० श्रौ० २६.१ । दे० प० पृ० ४७२। २. सोमारौद्रोऽतश्चरुः । का० श्रौ० १५.३.२२ । उपरिष्टाद्रत्नानां सोमारौद्रेण यजते । श० ब्रा० ५.२.६.१ ।
याग करे । उसी गौ को दक्षिणा में दे जिसका दूध याग में लिया गया है । उसी दिन चरु बनाकर मैत्राबृहस्पति के निमित्त याग करे1 । पीपल के पेड़ में पूर्व दिशा की ओर बढ़ी हुई पीपल की शाखा को काटकर ले आवे । उसी काष्ठ की स्थाली तैयार करे । दूध जमाकर दही करे । दही को चर्मघट में रखकर रथ में रखे । रथ को खूब शीघ्रगति से दौड़ावे । इस तरह रथ के हिलने से जो मक्खन तैयार हो उसे पीतल की स्थाली में भरे । ऊपर से चावल भी उसी में छौड़े । गरमी से ही चरु का पाक हो । उसी चरु से याग करके दक्षिणा में गौ दे । दूसरे दिन राजसूय सम्बन्धी वैश्वदेवपर्व करे । इस प्रकार फाल्गुन शुक्ल पक्ष की समाप्ति होने पर फाल्गुन कृष्ण में याग सम्बन्धी विश्राम रहे । दो सोमयाग का युगपत् सङ्कल्प चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को राजसूयान्तर्गत अभिषेचनीय और दशपेय संज्ञक दो सोमयागों का प्रारम्भ करे । प्रारम्भ में दो देवयजन का निर्माण किया जाता है । जिस देवयजन में अबतक का कार्य हुआ है, उससे दक्षिण की ओर प्रथम और उत्तर की ओर द्वितीय इस प्रकार दो देवयजन तैयार करावे । दक्षिण वाले देवयजन में अभिषेचनीय सोमयाग और उत्तरवाले देवयजन में दशपेय सोमयाग किया जाता है । अभिषेचनीय सोमयाग इस सोमयाग में भृगु गोत्रोत्पन्न होता होना चाहिए। इसमें एक दीक्षा, तीन उपसदा और एक सुत्या की जाती है । इस याग का अनुष्ठान पाँच दिनों में सम्पन्न होता है । दोनों यागों के लिए यूपसंस्कार एक साथ होता है । दक्षिण देवयजन में मन्थन करके अग्नि का स्थापन करे । दोनों के सोम और न्यग्रोधस्तिभी का क्रयण एक साथ करे । सोम और न्यग्रोधस्तिभी के दो विभाग करके अभिषेचनीय सोमयाग के लिए किये हुए विभाग से कार्य करे और दशपेय सोमयाग के लिए सोम और न्यग्रोधस्तिभी को ब्रह्मा के निवास स्थान पर सुरक्षित रख दे । देवसूहविर्याग एकादशकपाल के अग्नीषोमीय पशुपुरोडाश के लिए हविर्द्रव्य का निर्वाप करके अनन्तर देवसूसंज्ञक हवि का निर्वाप करे । यहाँ उन-उन देवताओं के लिए निश्चित हविर्द्रव्य का निर्वाप इस प्रकार होता है2 । ---- १. मैत्रा बार्हस्पत्यश्चरुः । का० श्रौ० १५.३.२६-३१ । अथ मैत्रा बार्हस्पत्यं चरुं निर्वपति । श० ब्रा० ५.२.६.४ । २. सवित्रे सत्यप्रसवाय०, अथाग्नये गृहपतये०, सोमाय वनस्पतये ०, बृहस्पतये ०, इन्द्राय ज्येष्ठाय०, रुद्राय पशुपतये०, मित्राय सत्याय ०, वरुणाय धर्मपतये ० । श० ब्रा० ५.२.७.२-९ ।
देवता और हविर्द्रव्य देवता पुरोडाश या चरु हविर्द्रव्य सवितासत्यप्रसव ८ या १२ कापालिक पुरोडाश प्लाशुक-एकबार काटने पर पुनः उगी व्रीहि अग्निगृहपति वही आशु-तीन पक्ष में उगनेवाली व्रीहि सोमवनस्पति चरु श्यामाक व्रीहि बृहस्पति वही नीवार-बिना बोये उगी व्रीहि इन्द्रज्येष्ठ वही व्रीहि-एक वर्ष में पकने वाली व्रीहि
रुद्रपशुपति वही गवेधुका-जङ्गली गेहूँ मित्रसत्य वही नाम्ब-बिना बोये उगी व्रीहि वरुणधर्मपति वही यव
ऊपर जिस द्रव्य से जो हवि तैयार करने को कहा है, उसी प्रकार तैयार करे । क्रमशः निश्चित देवता के लिए याग करे। याग हो चुकने पर अध्वर्यु यजमान का हाथ पकड़ कर मन्त्रपाठ करे1 । मन्त्र में यजमान के, यजमान की माता, पिता और देश के नाम को जोड़ कर मन्त्रपाठ करे । मन्त्रपाठ के द्वारा प्रजा को राजा की सेवा करने के लिए प्रेरित करे । अनन्तर स्विष्टकृत् याग करे । ऋत्विजों को हविःशेष देने तक का कृत्य करे । अभिषेक का जल अभिषेक के लिए सत्रह स्थान के जल को एकत्रित करते हैं। उनमें से जो दूर से लाने योग्य जल हैं, उन्हें पहले से ही लाकर सुरक्षित रखना चाहिए । निकट के जल समय पर एकत्र कर ले2। --- १. सविता त्वा० शु० य० ९.३९-४० । यहाँ 'इमं देवा०' इस द्वितीय मन्त्र में अमुकवर्माणम्, अमुकवर्मणः पुत्रम्, अमुकिदायाः पुत्रम् । यजमान के और उसके माता-पिता का नामोच्चारण करे। पाञ्चाल्यै विशे, एष वः०, पाञ्चालो राजा सोमोऽस्माकं० पाठ करे । दे०प० पृ० ४७८। २. अपः सम्भरति, सारस्वतीरेव प्रथमा गृह्णाति । श० ब्रा० ५.३.१.१.३ ।
सरस्वती नदी का जल अन्य नदी का जल अन्य नदी का जल पहाड़ में रुका हुआ नदी का जल छोटे तालाब का जल ओस1 निकट के तालाब का जल समुद्र का जल अन्तरिक्ष में ही गृहीत वर्षा का जल कूएँ का जल उल्ब जल2 उपर्युक्त प्रकार के समस्त पवित्र जल को उदुम्बर काष्ठ के बड़े पात्र में समय पर एकत्र करे3 । उसमें मधु, दूध और आज्य मिलावे। इस तरह एकत्र करके मैत्रावरुण की धिष्ण्या के निकट रखे । पास ही में पलाश, गूलर, अश्वत्थ और वट के अभिषेक पात्र रखे। पशुपुरोडाश का शेष ऋत्विजों को दे । पशु के अङ्ग निष्कासित करे । चैत्रशुक्ल पञ्चमी को ऋत्विकप्रबोधन प्रभृति याग का कृत्य उक्थ्य याग के समान करे । अग्नि और इन्द्राग्नी का सवनीय याग करे4 । प्रातः सवनवत् मैत्रावरुणी पयस्यायाग करे। मरुत्वतीय ग्रहयाग के अनन्तर मैत्रावरुणधिष्ण्या के पूर्व में व्याघ्रचर्म बिछावे5 । व्याघ्र चर्म पर सीसा रखे । पार्थसंज्ञक छ आहुति करे6 । दर्भ के पवित्र में सुवर्ण बाँधे । औदुम्बरपात्र में एकत्र किया हुआ जल पवित्र से विभक्त करके चारों अभिषेकपात्र में निकाले । अभिषेकार्थ वस्त्रपरिधान यजमान दीक्षावस्त्र उतार दे। अध्वर्यु यजमान को तार्प्य वस्त्र पहनने को दे और यजमान अध्वर्यु प्रदत्त वस्त्र को पहने7 । तार्प्यं के ऊपर पाण्डव संज्ञक श्वेत ऊर्णावस्त्र पहने4 । नाभि से ऊपर का वस्त्र पहने । सिर में पगड़ी बाँधे । पगड़ी के दोनों छोर आगे की ओर नाभि के दोनों पार्श्वों में खोंसे । अध्वर्यु धनुष और तीन बाण यजमान को दे । सदोमण्डप के --- १. रात्रि के समय वृक्ष आदि पर गिरे ओस पर वस्त्र को गीला करके पात्र में वस्त्र को निचोड़ कर सङ्ग्रह करना चाहिए । २. जब गौ का प्रसव हो रहा हो उस समय गर्भावरण के अन्दर से निकला हुआ जल ग्रहण करे 'यथोल्बेनावृतो गर्भ:' । भगवद्गीता । ३. इडान्तेऽपो गृह्णाति । का० श्रौ० १५.४.२१ । ४. आग्नेयैन्द्राग्नौ द्वौ सवनीयौ । दे० प० पृ० ४८० । ५. मरुत्वतीयान्ते पात्राणि पूर्वेण व्याघ्रचर्मास्तृणाति । का० श्रौ० १५.५.१ । ६. पार्थानामग्नये स्वाहेति षड् जुहोति । का० श्रौ० १५.५.३ । ७. ततो यजमानं प्रति तार्प्यं परिधत्स्वेत्यध्वर्युः प्रेष्यति । दे० प० पृ० ४.८.१ । तृपा एक ओषधि है । उसके वल्कल के तेहरे सूत से बीना हुआ वस्त्र तार्प्य कहलाता है । इस वस्त्र में कशीदे से स्रुवा, स्रुची, चमस आदि यज्ञपात्र बनाये जाते हैं। उसी वस्त्र को यजमान पहने । ८. पाण्डवं रक्तनेपालकम्बलम् । दे० प० पृ० ४८१ ।
निकट स्थित बड़ी मूंछ और दाढ़ी वाले केशव संज्ञक पुरुष के मुँह में ताँबा छोड़े1 । अध्वर्यु यजमान की बाहु पकड़ कर दिशाओं में क्रमण करावे2 । व्याघ्रचर्म पर रखे हुए सीसे को पैर से हटा दे3 । यजमान व्याघ्रचर्म पर पूर्वाभिमुख खड़ा हो । अध्वर्यु यजमान के पैरे के नीचे सुवर्णरुक्म रखे । सिर पर नवछिद्रवाला रुक्म रखे । यजमान का अभिषेक सदोमण्डप में यजमान बैठे । विहितपात्रों में जल लेकर यजमान का अभिषेक करे4। पूर्व की ओर अध्वर्यु या पुरोहित फ्लाश के पात्र के जल से अभिषेक करे । पश्चिम की ओर खड़े होकर उदुम्बर पात्र के जल से क्षत्रिय ( यजमान के आत्मीय ) अभिषेक करे । वटपात्र के जल से यजमान का मित्र (क्षत्रिय ) अभिषेक करे । अश्वत्थपात्र के जल से वैश्य अभिषेक करे । अभिषेक के अनन्तर अध्वर्यु पूर्ववत् पार्थाहुति करे । अध्वर्यु के प्रैष करने पर होता शुनःशेप शस्त्र पढ़े5। यजमान अध्वर्यु और होता को एक-एक सौ गौ दक्षिणा में दे। अभिषेक का अवशिष्ट जल यजमान के प्रिय पुत्र को दे । पालाशपात्र से अभिषेकोदक का आग्नीध्रीया में हवन करे। युद्ध में शान्तिक पौष्टिक कृत्य के निमित्त अग्नि रखकर यजमान अपने साथ एक शकट ले जाय । पहले उस शकट को देवयजन में लाकर पूर्व की ओर खड़ा करे । उस शकट पर एक रथ रखे । शकट पर स्थापित रथ को अध्वर्यु नीचे उतारे । रथ में अश्व जोते। यजमान और सारथि रथ पर बैठें। यजमान रथ को अपने भाई की गौ के समूह के बीच ले जाय । धनुष्कोटि से एक गौ का स्पर्श करे । उस यूथ में जितनी गौ हों उनसे अधिक गौ गोस्वामी को दे । रथ को वापस ले आवे । यजमान वराहचर्म के जूते पहने । यजमान रथ से उतरे सारथि सहित रथ को पुनः शकट पर रखे । सारथी भी रथ से नीचे उतरे । रथचक्र में सुवर्ण बाँधे । रथ के मार्ग में औदुम्बरी गाड़े। व्याघ्रचर्म के निकट पयस्या रखे । यजमान अपने दोनों हाथ पयस्या में रखे । अध्वर्यु पयस्या की आहुति दे । स्विष्टकृत् याग से पूर्व तक का कृत्य करे। --- १. केशवस्य पुरुषस्य । न वा एष स्त्री न पुमान् । श० ब्रा० ५.३.३.२ । लोहायसमाविध्यति केशवस्यास्ये सदोऽन्त उपविष्टाय । का० श्रौ० १५.५.२२ । २. अथैनं दिशः समारोहति । श० ब्रा० ५.३.३.३ । ३. शार्दूलचर्मणो जघनार्धे । सीसं निहितं भवति तत्पदा प्रत्यस्यति । श० ब्रा० ५.३.३.९ । ४. अभिषिच्यमानमभिमन्त्रयते । आप० श्रौ० १८.१६.६ । ५. शौनःशेपं च प्रेष्यति । का० श्रौ० १५.६.१ । ऋचो गाथामिश्राः परश्शताः परःसहस्रा वा । आप० श्रौ० १८.१०.११। शौनःशेपाख्यान -- हरिश्चन्द्रो ह वैधस ऐक्ष्वाको राजपुत्र आस० तदेतच्छौनः शेपमाख्यानं परःशतर्ग्गाथमपरिमितम् । तद्धोताभिषिक्तायाचष्टे । हिरण्यकशिपावासीन आचष्टे । हिरण्यकशिपावासीनः प्रतिगृणाति । ओमित्यृचः प्रतिगरः । शां० श्रौ ० १५.१७-१५,२७ ।
यजमान द्वारा वरयाचना खदिरकाष्ठ की आसन्दी मैत्रावरुण धिष्ण्या से पूर्व की ओर रखे । उस पर वस्त्र बिछावे । अध्वर्यु आसन्दी पर यजमान को बैठावे1 । यजमान के हाथ में सुवर्ण के पाँच अक्ष दे । अध्वर्यु यज्ञकाष्ठ से यजमान की पीठ पर मारे । यजमान अध्वर्यु से राज्य और यश मांगे। द्यूतभूमि निर्माण यजमान बहुकार, श्रेयस्कर और भूयस्कर प्रभृति पुरुषों को बुलावे । अध्वर्यु यजमान को वज्र दे । यजमान अपने भाई को, भाई सूत या स्थपति को, स्थपति ग्राम के नेता को और ग्रामनेता सजात को वज्र दे। सजात और प्रतिप्रस्थाता वज्र से द्यूतभूमि तैयार करें2 । मध्य में सुवर्ण रखकर अध्वर्यु आहुति करे । द्यूतक्रीडा कृत, त्रेता, द्वापर और कलि इस तरह युग के नाम पर चार प्रकार का द्यूत कहा जाता है3 । राजा कृत नामक, राजा के भाई त्रेता नामक, सूत और स्थपति द्वापर नामक और ग्रामणी कलि संज्ञक द्यूत खेलते हैं। इस राजसूय याग में कृत या कलि संज्ञक द्यूत की क्रीडा होती है । यजमान गौ की बाजी लगाकर द्यूत खेलने को कहता है । बाजी में लगाई गौ का स्पर्श करना होता है । अनन्तर स्विष्टकृत् हवन प्रभृति यागविधि करे । अध्वर्यु पृष्ठोपाकरण तक यागविधि करके यजमान को आसन्दी पर से उठकर सदोमण्डप में जाने को कहे । यहाँ यजमान चाहे तो पुनः दीक्षा के वस्त्रों को पहने । यह याग अग्निष्टोमसंस्थ किया जाता है । अन्त में अवभृथयाग करे । उदयनीयेष्टि और अनूबन्ध्येष्टि करके द्वादश शतमान सुवर्ण दक्षिणा में दे । त्रैधातवी उदवसानीयेष्टि करे। संसृपाहविर्याग चैत्र शुक्ल षष्ठी के दिन संसृपाहविर्याग करे । इसमें दस याग होते हैं4 । जिस देवयजन --- १. खादिरीमासन्दीं रज्जूतां व्याघ्रचर्मदेशे निदधाति स्योनासीति । अधीवासमस्यामास्तृणाति क्षत्रस्य योनिरिति । सुन्वन्तमस्यामुपवेशयति स्योनामासीदेति । का० श्रौ० १५.७.१-३ । २. द्यूतभूमिं कुरुतः । का० श्रौ० १५.७.१३ । ३. राज्ञः कृतः, राजभ्रातुस्त्रेता, सूतस्थपत्योरन्यतरय द्वापरः, ग्रामण्यः पञ्चकलिङ्गादिसंज्ञः । दे०प० पृ० ४८९। ४. अथैतानि हवींषि निर्वपति । सावित्रं द्वादशकपालम्०, सारस्वतं चरुं निर्वपति०, त्वाष्ट्रम दशकपालम्०, पौष्णं चरुं निर्वपति०, ऐन्द्राग्नमेकादशकपालम्०, बार्हस्पत्यं चरुम्०, वारुणं यवमयं चरुम्०, आग्नेयमष्टाकपालं पुरोडाशं, सौम्यं चरुं, वैष्णवं त्रिकपालं पुरोडाशम्० । श० ब्रा० ५.४.२.६-१६। दशोत्तराणि संसृपा हवींषि निर्वपति । का० श्रौ० १५.८.१ । अथोत्तरं देवयजनमध्यवस्यति । तत्संसृपामिष्टिभिर्यजति । शां० श्रौ० १५.१४.१-२ ।
में अभिषेक किया गया है, उससे उत्तर में अग्निस्थापन करके प्रथमयाग करे । उससे उत्तर में द्वितीययाग करे1। इस प्रकार नवयाग करे। तत्पश्चात उत्तर के दशपेय संज्ञक देवयजन में दसवाँ याग किया जाता है। देवता हविर्द्रव्य दक्षिणा १. सविता १२ कपाल पुरोडाश सुवर्णकमल २. सरस्वती चरु वही ३. त्वष्टा १० कपाल पुरोडाश वही ४. पूषा चरु वही ५. इन्द्र ११ कपाल का पुरोडाश वही ६. बृहस्पति चरु वही ७. वरुण चरु ( यव का) वही ८. अग्नि ८ कपाल पुरोडाश वही ९. सोम चरु वही १०. विष्णु ३ कपाल पुरोडाश वही इस उपर्युक्त याग में यजमान को दीक्षास्थानीय द्वादश पुण्डरीक की माला पहनायी जाती है2। दशपेययाग इस याग में एक चमसपात्र से दस व्यक्ति सोम रस का पान करते हैं । इसीलिए इस याग की दशपेय संज्ञा कही है3। चैत्र शुक्ल सप्तमी को इसका प्रारम्भ होता है । पहले ब्रह्मा के निवास स्थान पर जो सोम और न्यग्रोधस्तिभी रखी है, उसे इस समय ले आवे । इसमें आतिथ्येष्टि और यजमान का पूर्ववत् पवित्र से पावन किया जाता है। अग्नि का आठकपाल का पुरोडाश, सोम का चरु और विष्णु का तीन कपाल का पुरोडाश, इस प्रकार उपसदा में तीन हवि तैयार किये जाते हैं । इसमें सत्रह स्तोत्र होते हैं । चैत्र शुक्ल दशमी को इस याग का सौत्यदिवस होता है। इसमें प्रत्येक ऋत्विज को दक्षिणाद्रव्य भिन्न-भिन्न दिया जाता है। जैसे-ब्रह्मा को बारह गर्भिणी गौ, उद्गाता को सुवर्ण के कमलपुष्प की माला4, --- १. देवयजनान्तरमेकैकेनोत्सर्पति । शालायामन्त्यम् । का० श्रौ० १५.८.२-३ । २. प्रतीष्टि पुण्डरीकाणि प्रयच्छति । हिरण्मयानि वा । का० श्रौ० १५.८.५-६ । ३. दशदशैकं चमसमनु भक्षयन्ति । का० श्रै० १५.८.१८ । शतं ब्राह्मणाः सोमं भक्षयन्ति । शां० श्रौ० १५.१४.९ । दशपेयोऽग्निष्टोमः। सत्या० श्रौ० १३.७.९ । दशम्यां दशपेयः । शां० श्रै० १५.१४.५ । ४. ब्रह्मणे ददात्यंशुवद्दक्षिणा । हिरण्मयीस्रजमुद्गात्रे० । का० श्रौ० १५.८.२२-२३ ।
होता को रुक्म, अध्वर्यु और प्रतिप्रस्थाता को सुवर्ण की दो दीयट, प्रस्तोता को अश्व, मैत्रावरुण को वन्ध्या गौ, ब्राह्मणाच्छंसी को ऋषभ, नेष्टा और पोता को वस्त्र, अच्छावाक को यवपूर्णशकट, आग्नीध्र को सवत्सा गौ, प्रतिहर्ता को गौ, सुब्रह्मण्य को अज, उन्नेता को वत्सतरी गौ और ग्रावस्तुत् को तीन गोवत्स देने चाहिए। शेष प्रवर्ग्योत्सादनादि कर्मापवर्गान्त कृत्य प्रकृतिवत् करे । इस याग में दाक्षिण होम में अश्वाहुति नहीं होती। अन्त में उदयनीया, अनुबन्ध्या और उदवसानीयेष्टि करे । इसके अनन्तर अमावास्या पर्यन्त यागकृत्य बन्द रहता है । यजमान के नियम इस याग के अनुष्ठान के अनन्तर यजमान को पालन करने योग्य कुछ आवश्यक नियम इस प्रकार हैं1 । जिनका पालन करना यजमान के लिए अनिवार्य है। जैसे-एक वर्ष तक वपन नहीं कराना । दीक्षणीयेष्टि प्रभृति विशेषस्थान में भी यदि वपन कार्य आ पड़े तो संस्कारार्थ केवल केशकर्तन मात्र करवा ले । जूते पहने बिना यावज्जीवन जमीन पर पैर न रखे । पञ्चबिलयाग इस याग में पाँच हवि होते हैं । एतदर्थ इसे पञ्चबिलयाग कहते हैं । वैशाख शुक्ल में किसी दिन इस याग का अनुष्ठान किया जाता है । पयस्या के लिए शाखाच्छेदन प्रभृति कृत्य किये जाते हैं । निम्नांकित प्रकार के हवि तैयार किये जाते हैं। देवता और हविर्द्रव्य अग्नि आठ कपाल पुरोडाश इन्द्र ग्यारह कपाल पुरोडाश विश्वेदेवा चरु मित्रावरुण पयस्या बृहस्पति चरु पांचों हवि को तैयार करके निम्नाङ्कित रूप में वेदि में आसादित करे । पूर्व में अग्नि का पुरोडाश, दक्षिण में इन्द्र का पुरोडाश, पश्चिम में विश्वेदेवा का चरु, उत्तर में मित्रावरुण की पयस्या और मध्य में बृहस्पति का चरु, आसादित करना चाहिए । याग में प्रत्येक देवता के याग की समृद्धि के लिए ऋत्विजों को दक्षिणा भी विभिन्न रूप में दी जाती है3 । जैसे -- --- १. अभिषेचनीयान्ते केशवपनार्थे निवर्तनं संवत्सरम् । भूम्यनधिष्ठानं च । अनुपानत्कस्य यावज्जीवम् । का० श्रौ० १५.८.२४-२६ । २. उत्तरे शुक्ले पञ्चबिलः । का० श्रौ० १५.९.१ । । ३. आग्नेयो हिरण्यदक्षिणाग्नीधे० । का० श्रौ० १५.९.५।
देवता ऋत्विज दक्षिणा आग्नेय आग्नीध्र सुवर्ण ऐन्द्र ब्रह्मा ऋषभ वैश्वदेव होता गौ (धूसर) मैत्रावरुण अध्वर्यु और आग्नीध्र गौ (पृषती) बार्हस्पत्य ब्रह्मा गौ ( वशा) राजसूय याग से अतिरिक्त समय में अन्न की कामना से भी यह याग किया जाता है । द्वादश प्रयुग् संज्ञक हविर्याग पञ्चबिल याग के अनन्तर प्रयुग् नामक बारह हविर्याग किये जाते हैं1। इस याग का अनुष्ठान स्थान और समय भेद से तीन प्रकार का कहा है2 । प्रथमपक्ष में वैशाख शुक्ल पूर्णिमा से प्रारम्भ करके चैत्र शुक्ल पूर्णिमा तक प्रत्येक मास की पूर्णिमा को एक-एक याग किया जाता है, जैसे – समय देवता हविर्द्रव्य दक्षिणा वैशाख पूर्णिमा अग्नि आठकपाल-पुरोडाश अन्वाहार्य ज्येष्ठ सोम चरु वही आषाढ सविता बारहकपाल-पुरोडाश वही श्रावण बृहस्पति चरु वही भाद्रपद त्वष्टा दसकपाल-पुरोडाश वही आश्विन वैश्वानर बारहकपाल वही कार्तिक सरस्वती चरु वही मार्गशीर्ष पूषा वही पौष मित्र वही वही माघ क्षत्रपति वही वही फाल्गुन वरुण वही वही चैत्र अदिति वही वही --- १. स वै प्रयुजां हविर्भिर्यजते० तानि वै द्वादश भवन्ति । द्वादश वै मासाः संवत्सरस्य तस्माद् द्वादश भवन्ति । श० ब्रा० ५.४.४.१-२ । द्वादशोत्तराणि प्रयुग्घवींषि । का० श्रौ० १५.९.७ । २. तेषां चानुष्ठाने त्रयः पक्षाः । दे० प० पृ० ४९६ । प्रथमपक्षे, वैशाख्यामाग्नेयः, ज्येष्ठ्यां सौम्यश्चरुः, आषाढ्यां सावित्रो द्वादशकपाल:०, श्रावण्यां बार्हस्पत्यश्चरुः, भाद्रपद्यां त्वाष्ट्रो दशकपालः, आश्विन्यां वैश्वानरो द्वादशकपालः, कार्त्तिक्यां सारस्वतश्चरुः, मार्गशीर्ष्यां पौष्णश्चरुः, पौष्यां मैत्रश्चरुः, माघ्यां क्षत्रपत्यश्चरुः, फाल्गुन्यां वारुणश्चरुः, चैत्र्यां आदित्यश्चरुदिशम् । दे० प० पृ० ४९६ ।
द्वितीय प्रकार इस द्वितीय पक्ष में वैशाख शुक्ल पूर्णिमा के दिन बारहों यागों का अनुष्ठान करे1। देवयजन में खड़ा होकर अध्वर्यु पूर्व में शम्या फेंके । जहाँ शम्या गिरे वहाँ गार्हपत्य का मध्य मानकर पूरा देवयजन बनाकर याग करे । पुनः पूर्वः में शम्या फेंके । पूर्ववत् शाला बनाकर द्वितीययाग करे । इसी प्रकार पूर्व की ओर आगे बढ़ते हुए छ हविर्याग करे । छ हविर्याग हो चुकने पर पश्चिम की ओर वापस लौटे। अन्तिम छठा याग जिस शाला में किया है, उसके गार्हपत्य खर के निकट खड़े होकर पश्चिम की ओर शम्या फेंके । जहाँ शम्या गिरे उस स्थान को आहवनीय खर का मध्य मान कर शाला बनावे और याग करे । पूर्ववत् शम्या फेंकते हुए पश्चिम की ओर बढ़ते जायें और याग करते जायें। इस प्रकार ग्यारह याग तक करे । बारहवाँ याग प्रथम याग की शाला में किया जायेगा । शेष विधि पूर्ववत् करे। तृतीय प्रकार इस तीसरे प्रकार में एक ही स्थान में प्रथम छ हविर्याग का अनुष्ठान एक साथ करे3। अग्निवाहक शकट के बैल दक्षिणा में दे। पुनः सातवें याग से बारहवें याग तक का अनुष्ठान करे। पूर्ववत् दक्षिणा दे। इसके अनन्तर वैशाख की अमावास्या को दो अनूबन्ध्या याग यथाविधि करे और दक्षिणा में गौ दे । केशवपनीय अतिरात्र ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी से पूर्णिमापर्यन्त पाँच दिन में इस केशवपनीय अतिरात्र याग का अनुष्ठान सम्पन्न होता है4 । पौर्णमासी को इस याग की सुत्या होती हैं । राजसूय याग में होने वाले विशेष कृत्य पवित्रसोम के समान होते हैं । दीक्षा और दक्षिणा प्रकृतिवत् होती है। इसके अनन्तर अवशिष्ट चार सोमयाग और होते हैं। इन चारों की सुत्या का दिवस पूर्णिमा होना चाहिए। व्युष्टि द्विरात्र आषाढ़ में व्युष्टिद्विरात्र याग किया जाता है5 । यह अहीन संज्ञक होने के कारण इसका --- १. द्वितीयपक्ष उच्यते । दे० प० पृ० ४९६ । २. शम्याप्रास आग्नेय० । का० श्रौ० १५.९.८ । ३. अथ तृतीयः पक्ष उच्यते । दे० प० पृ० ४९७ । ४. केशवपनीयोऽतिरात्रः । का० श्रौ० १५.९.२१ । अत ऊर्ध्वं केशवपनीयः । शां० श्रौ० १५.१६.१ । अथ श्येनीं विचित्रगर्भामदित्या आलभते । पृषतीं विचित्रगर्भां मरुद्भ्य आलभते । श० ब्रा० ५.४.४.८-९ ।। अथायं प्रतीचीनस्तोमः केशवपनीयोऽतिरात्रः षोडशिको भवति । बौ० श्रौ० २६.२ । ५. व्युष्टि द्विरात्रः । का० श्रौ० १५.९.१७ । सन्तिष्ठते व्युष्टिद्विरात्रः । बौ० श्रौ० २६.२ ।
प्रारम्भ ज्येष्ठ कृष्ण द्वितीया को होता है । इस याग का अनुष्ठान एक मास में समाप्त होता है । इसमें सोलह दीक्षा, बारह उपसदा और दो सुत्याएँ होती है । क्षत्रधृति इसके अनन्तर अग्निष्टोमसंस्थ क्षत्रधृति संज्ञक सोम याग किया जाता है1। इसका अनुष्ठान एक मास में समाप्त होता है । भाद्रपदमास में त्रिष्टोम अतिरात्र, आश्विन में ज्योतिष्टोम अतिरात्र और अन्त में कार्तिक मास में राजसूय याग में विहित चरकसौत्रामणी का अनुष्ठान किया जाता है। इस प्रकार राजसूय याग की समाप्ति होती है । कात्यायन के मत से राजसूय याग में तैंतीस मास का समय अपेक्षित है। किन्तु बौधायन साढ़े सत्रह मास का समय कहते हैं2। यह राजसूय याग का संक्षिप्त विवरण हुआ। राजसूय याग में कुल चार सौ उनचास इष्टियां, दो पशुयाग, आठ सोमयाग और सात दर्विहोम होते हैं। इसके सिवाय अङ्गभूत कितने ही कृत्य होते हैं, जिनका विवरण यथास्थान वर्णित है। --- १. क्षत्रधृतिः । का० श्रौ० १५.९.१९ । अथैतेन क्षत्रस्य धृतिना यजते । शां० श्रौ० १५.१०.८ । अथैतस्मिन्नेव पक्षावशेषे क्षत्रस्य धृतिनाभिविधत्ते । बौ० श्रौ० २६.२ । २. राजसूयोऽर्धसप्तदशैर्मासैः सन्तिष्ठतेऽर्धषोडशैर्वा तस्मिन्सोमसंस्थाः पञ्चैकाहा अहीनो द्विरात्रः, षट् छाला, अष्टौ यूपाः, षडुहाग्निष्टोमिका द्विपशौ पशुबन्धे सौत्रामण्यामष्टमस्तावन्त एवाभृथाः । बौ० श्रौ० २६.१ । - कात्यायनयज्ञपद्धतिविमर्श (ले. मनोहरलाल द्विवेदी) (राष्ट्रिय संस्कृत संस्थानम्, नई दिल्ली, 1988ई.)
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