पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

( Ra, La)

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Yogalakshmi - Raja  (Yogini, Yogi, Yoni/womb, Rakta/blood, Raktabeeja etc. )

Rajaka - Ratnadhaara (Rajaka, Rajata/silver, Raji, Rajju, Rati, Ratna/gem etc.)

Ratnapura - Rathabhrita(Ratnamaalaa, Ratha/chariot , rathantara etc.)

Rathaswana - Raakaa (Rathantara, Ramaa, Rambha, Rambhaa, Ravi, Rashmi, Rasa/taste, Raakaa etc.) 

Raakshasa - Raadhaa  (Raakshasa/demon, Raaga, Raajasuuya, Raajaa/king, Raatri/night, Raadhaa/Radha etc.)

Raapaana - Raavana (  Raama/Rama, Raameshwara/Rameshwar, Raavana/ Ravana etc. )

Raavaasana - Runda (Raashi/Rashi/constellation, Raasa, Raahu/Rahu, Rukmaangada, Rukmini, Ruchi etc.)

Rudra - Renukaa  (Rudra, Rudraaksha/Rudraksha, Ruru, Roopa/Rupa/form, Renukaa etc.)

Renukaa - Rochanaa (Revata, Revati, Revanta, Revaa, Raibhya, Raivata, Roga/disease etc. )

Rochamaana - Lakshmanaa ( Roma, Rohini, Rohita,  Lakshana/traits, Lakshmana etc. )

Lakshmi - Lava  ( Lakshmi, Lankaa/Lanka, Lambodara, Lalitaa/Lalita, Lava etc. )

Lavanga - Lumbhaka ( Lavana, Laangala, Likhita, Linga, Leelaa etc. )

Luuta - Louha (Lekha, Lekhaka/writer, Loka, Lokapaala, Lokaaloka, Lobha, Lomasha, Loha/iron, Lohit etc.)

 

 

राधा

टिप्पणी : ब्रह्मवैवर्त्त पुराण २.४८.४० में राधा की निरुक्तियां निम्नलिखित प्रकार से की गई हैं

राशब्दोच्चारणाद्भक्तो राति मुक्तिं सुदुर्लभाम्। धा शब्दोच्चारणाद्दुर्गे धावत्येव हरेः पदम्॥ रा इत्यादानवचनो धा च निर्वाणवाचकः॥

इस संदर्भ में राधा का साम्य ओम(अ+उ+म) शब्द के अ(पूरणे) + उ(धारणे) से हो सकता है। लेकिन राधा शब्द में ओम शब्द के म(विसर्जने) का अभाव है। मर्त्य स्तर पर तो ऐसी कोई क्रिया नहीं हो सकती जहां क्रिया के अन्त में व्यर्थ ऊर्जा बाहर न फेंकनी पडे, ऐसी ऊर्जा जिसका कोई आगे उपयोग नहीं किया जा सकता, उच्च अव्यवस्था वाली ऊर्जा। दूसरे शब्दों में, ऐसी कोई क्रिया नहीं हो सकती जिसकी दक्षता सौ प्रतिशत हो। लेकिन ब्रह्मवैवर्त पुराण का वचन कह रहा है कि धा निर्वाणवाचक है। इसका अर्थ आध्यात्मिक स्तर पर यह हुआ कि किसी भी कर्मफल का निर्माण नहीं होगा।

ब्रह्मवैवर्त्त पुराण ४.१७.२२३ में राधा की निरुक्ति रा - दाने तथा धा - धारणे रूप में की गई हैः-

राधेत्येवं च संसिद्धा राकारो दानवाचकः। स्वयं निर्वाणदात्री या सा राधा परिकीर्तिता॥

जब रा - दाने कहा जाता है तो उसका अर्थ होगा कि जो वस्तु अभी कच्ची अवस्था में है, उसको पकाना है, इतना पकाना है कि हम न केवल उसका स्वयं उपभोग कर सकें अपितु दूसरों को भी देने में समर्थ हो सकें(दान) । जब रा व धा पर सम्मिलित रूप से विचार किया जाता है तो ऐसा प्रतीत होता है कि यह श्रुति और स्मृति से सम्बन्धित है । धा का अर्थ होगा स्मृति में श्रुति को धारण करना । रा का अर्थ होगा श्रुति को प्रबल बनाना ।

 

     ब्रह्मवैवर्त्त पुराण २.५६.१३७ में रां से रासेश्वरी, रासविलासिनी आदि अर्थ लिए गए हैं।

अंग्रेजी भाषा में रा को बुराई, evil के रूप में लिया जाता है । अंग्रेजी भाषा में raw शब्द का अर्थ कच्चा होता है । अंग्रेजी भाषा के raw शब्द की व्युत्पत्ति किस प्रकार हुई है, यह तो ज्ञात नहीं है, लेकिन राधा शब्द की एक व्याख्या के लिए यह अर्थ बहुत उपयुक्त है । ब्रह्मवैवर्त्त पुराण ४.१३.१०६ में र को कोटि जन्मों के अघ का सूचक, शुभाशुभ कर्मभोग का सूचक, आ को गर्भवास, मृत्यु, रोग का सूचक, ध को आयु हानि, आ को भवबंधन का प्रतीक कहा गया है । इसी स्थान पर दूसरी निरुक्ति में र को निश्चला भक्ति, दास्य का प्रतीक, ध को सहवास, सार्ष्टि, सारूप्य, तत्त्व ज्ञान का प्रतीक, आ को तेज राशि, दान शक्ति का प्रतीक कहा गया हैः-

रेफो हि कोटिजन्माघं कर्मभोगं शुभाशुभम्॥ आकारो गर्भवासं च मृत्युं च रोगमुत्सृजेत्॥ धकार आयुषो हानिमाकारो भवबंधनम्॥ श्रवणस्मरणोक्तिभयः प्रणश्यति न संशयः॥ रेफो हि निश्चलां भक्तिं दास्यं कृष्णपदाम्बुजे॥सर्वेप्सितं सदानंदं सर्वसिद्धौघमीश्वरम्॥ धकारः सहवासं च तत्तुल्यकालमेव च॥ ददाति सार्ष्टिसारूप्यं तत्त्वज्ञानं हरेः समम्॥ आकारस्तेजसां राशिं दानशक्तिं हरौ यथा॥ योगशक्तिं योगमतिं सर्वकालं हरिस्मृतिम्॥ श्रुत्युक्तिस्मरणाद्योगान्मोहजालं च किल्बिषम्॥

राधा

टिप्पणी : ब्रह्मवैवर्त्त पुराण २.४८.४० में राधा की निरुक्तियां निम्नलिखित प्रकार से की गई हैं

राशब्दोच्चारणाद्भक्तो राति मुक्तिं सुदुर्लभाम्। धा शब्दोच्चारणाद्दुर्गे धावत्येव हरेः पदम्॥ रा इत्यादानवचनो धा च निर्वाणवाचकः॥

इस संदर्भ में राधा का साम्य ओम(अ+उ+म) शब्द के अ(पूरणे) + उ(धारणे) से हो सकता है। लेकिन राधा शब्द में ओम शब्द के म(विसर्जने) का अभाव है। मर्त्य स्तर पर तो ऐसी कोई क्रिया नहीं हो सकती जहां क्रिया के अन्त में व्यर्थ ऊर्जा बाहर न फेंकनी पडे, ऐसी ऊर्जा जिसका कोई आगे उपयोग नहीं किया जा सकता, उच्च अव्यवस्था वाली ऊर्जा। दूसरे शब्दों में, ऐसी कोई क्रिया नहीं हो सकती जिसकी दक्षता सौ प्रतिशत हो। लेकिन ब्रह्मवैवर्त पुराण का वचन कह रहा है कि धा निर्वाणवाचक है। इसका अर्थ आध्यात्मिक स्तर पर यह हुआ कि किसी भी कर्मफल का निर्माण नहीं होगा।

ब्रह्मवैवर्त्त पुराण ४.१७.२२३ में राधा की निरुक्ति रा - दाने तथा धा - धारणे रूप में की गई हैः-

राधेत्येवं च संसिद्धा राकारो दानवाचकः। स्वयं निर्वाणदात्री या सा राधा परिकीर्तिता॥

जब रा - दाने कहा जाता है तो उसका अर्थ होगा कि जो वस्तु अभी कच्ची अवस्था में है, उसको पकाना है, इतना पकाना है कि हम न केवल उसका स्वयं उपभोग कर सकें अपितु दूसरों को भी देने में समर्थ हो सकें(दान) । जब रा व धा पर सम्मिलित रूप से विचार किया जाता है तो ऐसा प्रतीत होता है कि यह श्रुति और स्मृति से सम्बन्धित है । धा का अर्थ होगा स्मृति में श्रुति को धारण करना । रा का अर्थ होगा श्रुति को प्रबल बनाना ।

 

     ब्रह्मवैवर्त्त पुराण २.५६.१३७ में रां से रासेश्वरी, रासविलासिनी आदि अर्थ लिए गए हैं।

अंग्रेजी भाषा में रा को बुराई, evil के रूप में लिया जाता है । अंग्रेजी भाषा में raw शब्द का अर्थ कच्चा होता है । अंग्रेजी भाषा के raw शब्द की व्युत्पत्ति किस प्रकार हुई है, यह तो ज्ञात नहीं है, लेकिन राधा शब्द की एक व्याख्या के लिए यह अर्थ बहुत उपयुक्त है । ब्रह्मवैवर्त्त पुराण ४.१३.१०६ में र को कोटि जन्मों के अघ का सूचक, शुभाशुभ कर्मभोग का सूचक, आ को गर्भवास, मृत्यु, रोग का सूचक, ध को आयु हानि, आ को भवबंधन का प्रतीक कहा गया है । इसी स्थान पर दूसरी निरुक्ति में र को निश्चला भक्ति, दास्य का प्रतीक, ध को सहवास, सार्ष्टि, सारूप्य, तत्त्व ज्ञान का प्रतीक, आ को तेज राशि, दान शक्ति का प्रतीक कहा गया हैः-

रेफो हि कोटिजन्माघं कर्मभोगं शुभाशुभम्॥ आकारो गर्भवासं च मृत्युं च रोगमुत्सृजेत्॥ धकार आयुषो हानिमाकारो भवबंधनम्॥ श्रवणस्मरणोक्तिभयः प्रणश्यति न संशयः॥ रेफो हि निश्चलां भक्तिं दास्यं कृष्णपदाम्बुजे॥सर्वेप्सितं सदानंदं सर्वसिद्धौघमीश्वरम्॥ धकारः सहवासं च तत्तुल्यकालमेव च॥ ददाति सार्ष्टिसारूप्यं तत्त्वज्ञानं हरेः समम्॥ आकारस्तेजसां राशिं दानशक्तिं हरौ यथा॥ योगशक्तिं योगमतिं सर्वकालं हरिस्मृतिम्॥ श्रुत्युक्तिस्मरणाद्योगान्मोहजालं च किल्बिषम्॥

 

पुराणों में राधा शब्द को स्पष्ट करने के लिए एक अन्य उपाय किया गया है। राधा अष्टमी तिथि को केवल राधा अष्टमी तक ही सीमित नहीं रखा गया है, अपितु साथ ही साथ दूर्वा अष्टमी का वर्णन भी कर दिया गया है जो राधा शब्द को समझने में सहायक होगा। दूर्वा का शास्त्रीय पक्ष चाहे जो भी हो, साधारण रूप में दूर्वा को इस प्रकार समझा जा सकता है कि यह दुर्वासना का, दुर्वासा का रूप है। दूसरे शब्दों में, दूर्वा हमारी चेतना का अविकसित रूप है। दूर्वा का यजुर्वेद का मन्त्र यह है –

काण्डात्-काण्डात् प्ररोहन्ती परुषः-परुषस् परि ।

एवा नो दूर्वे प्र तनु सहस्रेण शतेन च ॥

 
इस मन्त्र में जिस रोहण का उल्लेख है, वह अचेतन से चेतन में अभिव्यक्ति हो सकता है। यह कहा जा सकता है जब तन्त्र के सम्पादन में असफलता मिल रही हो तो तन्त्र के अप्रकट, अविकसित पक्ष पर ध्यान देना चाहिए, उसे प्रकट करने का प्रयास किया जाना चाहिए। यह कहा जा सकता है कि चेतन मन द्वारा पूजा – अर्चना देवों का मार्ग है। मनुष्य का वास्तविक मार्ग तो अचेतन मन द्वारा पूजा अर्चना का ही है क्योंकि हमारी सारी चेतना अचेतन रूप में है।

नीचे दूर्वा सप्तमी या अष्टमी की जो लोककथा दी गई है, उसका एक मुख्य बिन्दु यह है कि विवाह कार्य को मुख्य द्वार पर सम्पन्न करने के बदले पिछले द्वार पर सम्पन्न करने से कार्य सिद्धि हो सकती है। पिछला द्वारा हमारे अचेतन मन का प्रतीक है। दूर्वा अष्टमी की कथा के पश्चात् विनायक जी की कहानी कहने का निर्देश है जिसमें कहा गया है कि किस प्रकार ब्राह्मण की भक्ति से विनायक मूर्ति ने प्रकट होकर ब्राह्मण को धन प्रदान किया। विनायक का आधिपत्य अचेतन मन पर है।

बारह महीनों का व्रत त्यौहार – श्रीमती चम्पादेवी राजगढिया

दूबड़ी सा त ।

भादुवा सुदी सा त न दूबड़ी सा त हो व । ई दिन ठंढी रोटी खा व । एक पाटा पर माटी स दुबड़ी सा त मान्ड कर, जल, दूध, रोली, चावल, फूल, मोई ( बाजरा क आटा न घी, चीनी पानी स ओसन क र ), भिजायेड़ो मोठ-बाजरा स पूजा क र, दक्षिणा चढ़ा व। कहानी सु न । मोठ, बाजरो, रुपिया पर बाणों निका ल। बाजरा की मोई म एक कांटो रख कर खा व । पि छ बाणो सासुजी न पगा लाग कर दे व । आपकी बहन-बेटियाँ क भी बाणो निकाल न भे ज  ।

 

॥ दृबड़ी सा त को उजमन ॥

जिस साल लड़की को विवाह हो व बी साल ब लड़की स दूबडी सा त को उजमन करा व । और तो सब कुछ ऊपर लिखेड़ी जैयां ही कर ले व, खाली बाणा म, एक थाली म तेरह कुड्डी भिजायेड़ा मोठ बाजरो, एक तील और रुपिया रख कर सासुजी न पगा लाग कर दे व । । ॥ दूबड़ी सा त इसी तरियाँ मा न्ड ॥

 

॥ दूबड़ी सा त की कहानी ॥

एक साहूकार थो, ऊँ क सात बेटा था । व्याह होता ही बेटा मर जाता । छ बेटा तो अइयां ही मर गया । पिछ सातवां बेटा को डरता-डरता ब्याह मान्ड्यो । ब्याह म सब बहन बेटियां न बुलाई। सब स बड़ी भुवा आ न लागी, जद रस्ता म एक कुम्हार क ठहरी । कुम्हार हीय ढ़कनी घ ड़ थो, जद बा पुछी कि तू के क र ह । कुम्हार बोल्यो कि एक साहूकार ह, जि क का छ बेटा तो मरगा, ईब सातवां को ब्याह ह, जि को भी व्याह होता हीं मर जासी । जद भुवा पुछी कि कैयां भी बच न सक ह के। कुम्हार बोल्यो कि कोई दूबड़ी सा त की पूजा कर, ठंढो खा व, कांटो फां स और बीन्द की भुवा व्याह का सारा नेग उल्टा क र और गाली देती र व तो वो बच न स क ह। फेरा क बखत का च करुवा म काचो दूध और तांत की फांस लेकर बैठ जा व । आधा फेरा हो व जद बींद न सांप डस न आ व गो, जद सांप क आ ग दूध को करुवो रख दे व, सांप दूध पी न ला ग, जद तांत स फांस ले व । पि छ सर्पणी सांप न छुड़ा न आवगी, तब उ स वचन ले ले व कि तू सातूं बेटा न छोड़गी जद ही म सांप न छोडूंगी । पि छ भुवा आप क पीर गई और गाली देती उतरी । सब कोई बोल्या कि म्हे तो काचो सूत लपेटा हां और तू आई जद स गाली दे व ह, पण वा कुछ बोली कोनी और सारा नेग उल्टा कराती गई। पि छ बरात जा न लागी जद भुवा बोली कि म तो बरात पिछला दरवाजा स निकालूंगी । सब कोई भोत समझाया पर बा सुनी कोनी । बरात जैयां ही पिछला दरवाजा स निकल न लागी कि आगलो दरवाजो टूट कर गिरगो । सब कोई भुवाजी की भोत बड़ाई कर न लाग्या । बरात जा न लागी जद भुवाजी गाली देती बोली कि म भी बरात म सा ग जाऊँगी । सब कोई भोत समझाया कि लुगांया बरात म कोनी जा व, लेकिन बा जिद कर क सा ग चली गई । रस्ता म बड़ को भोत बड़ी गाछ देख कर बरात गाछ क नि च उतर न लागी, तो बा उतर न कोनी देई और गाली काड़ती बोली कि बरात तावड़ा म उतारूंगीं । सब कोई भोत समझाया, पर बा मानी कोनी । । बरात जद तावड़ा म उतरी, तो बड़ की गाछ टूट क गिरगी । सब कोई भुवाजी की भोत बड़ाई क र लाग्या । पि छ बरात जद पहुंच गी तो भुवाजी बोली कि म तो ढ़ुकाव पिछला दरवाजा स ले जाऊँगी । जैयां ही ढ़ुकाव पिछला दरवाजा स जा न लाग्यो आगलो दरवाजो टूट क गिरगो । पि छ बीन्द फेरा म बैठ लाग्यो, तो भुवाजी गाली देती बोली कि म भी फेरा म बैठुंगी । सब कोई भोत समझायो पर बा मानी कोनी और काची करवो दूध को और ताँत की फाँस ले कर बैठगी । आधा फेरा होगा जद साँप बींद न डस न आयो, तो भुवाजी साँप क आ ग करवो रख कर, साँप न फाँस लियो । पि छ साँपनी, साँप न छुड़ा न आई तो भुवाजी बि स वचन ले लिया कि मेरा छँऊ भतीजाँ की जीव दान दे और साँतू भतीजाँ न बहुवां दे । साँपनी बोली कि तू मे र साँप न फाँस लियो और मे र स वचन ले लियो, नहीं तो म छोड़ती कोनी । पि छ साँपनी छऊँ भतीजा न छोड़ दिया, सब न बहुवां देई । सब को खूब धूम-धाम स व्याह होयो । पि छ तो सब कोई भुवाजी की भोत ही बड़ाई क र लाग्या । बरात पाछी आव लागी जद रस्ता म दूबड़ी सा त आई, तो भुवाजी बोली कि सब न दूबड़ी सा त की कहानी सुनवाऊँगी और पाटी पुजवाऊँगी, पर तैयारी कैयां करूं । पि छ सब कोई उतर्या, तो दे ख कि पाटी मंडेड़ो पड़्यो ह, भीजोणा का डल्ला पड्या ह, पूजा की सामग्री पड़ी ह, झाड़ी को गाछ उगयों ह । सब कोई ब ठ ही बैठ कर दूबड़ी सा त की पूजा करी, बाणा काड्या, काँटो फाँस्यो और कहानी सुनी । पि छ सब कोई आप क गाँव पाछा आगा । सब कोई साहूकार न जा कर बोल्या कि तेरा सातूं बेटा बहुवां आ व ह । पहले तो ऊँना न विश्वास कोनी होयो, पण जा कर देख्या, तो देखता ही रहगा । पि छ बेटा-बहू सासु-सुसरा क पगाँ पड़ न लाग्या तो बे बोल्या कि थे सब भुवाजी क पगाँ पड़ो, बा ही था न जिवा कर ल्यायी ह । पि छ सारी नगरी म हेलो फिरा दियो कि सब कोई दूबड़ी सा त करियो, ठंडी खायो, बाणो निकालियो, कांटो फाँसियो । हे दूबड़ी माता जि सो ब साहूकार क बेटा-बहुवां क लिए कर्यो बि सो सब क लिए करिये । कहता, सुनता, हुंकारा भरता न, म्हारा सारा परिवार को करियो । इ क बाद बिन्दायकजी की कहानी क व ।

॥ बिन्दायकजी की कहानी ।

एक ब्राह्मण थो जिको सुदियां उठ कर गंगाजी न्हातो और आकर बिन्दायक जी की पूजा करतो । बिकी लुगाई न पूजा करनी अच्छी कोनी लागती जि क स बा रोज गुस्सो होती और कहती कि थे सबे र पहली पूजा कर न बैठ जावो हो, म झाडू-भारु और घर को काम कैयां करूं । ब्राह्मण बिकी सुनतो कोनी । एक दिन ब्राह्मण तो गंगाजी न्हा न गयो थो, पि छ स ब्राह्मणी बिन्दायकजी न छुपा दियो । ब्राह्मण आकर पूछो कि मूर्ति क ठ गई। ब्राह्मणी बोली म न बेरो कोनी । ब्राह्मण रोटी-पानी कोनी खायो, कयो कि म तो पूजा कर क ही रोटी खाऊंगा । ब्राह्मणी भोत कयो कि खाल्यो पर बी खायो कोनी और रो न लाग्यो । दोनुवां न रोता झगड़ता देख कर विन्दायकजी की मूर्ति हंस न लागी तो ब्राह्मणी गुस्सा म आकर बोली कि मूर्ति बा पड़ी । पि छ ब्राह्मण पूजा कर्यो । मूर्ति बोली कि मेरी सेवा करतां त न भोत दिन होगा, कुछ मांग । ब्राह्मण बोल्यो कि अन्न मांगूं धन मांगूं जितना दुनियाँ म सुख ह जि का सारा मांगूं । बिन्दायकजी ब्राह्मण न सारा सुख, अन्न-धन दे दिया । ब्राह्मण मूर्ति न मंदिर म रख कर पूजा कर न लाग्यो । ब्राह्मणी न इतनो अन्न-धन मिल न स, ऊ न भी पूजा कर न की श्रद्धा होगी और बा ब्राह्मण न बोल कर मूर्ति घर म लिआया और खूब प्रेम स पूजा कर न लाग्या। हे बिन्दायकजी महाराज जि सो ब्राह्मण न सुख दियो बि सो सब न देइयो । कहता, सुनता, हुंकारा भरतां न, आप त सारा परिवार न देइयो ।

॥ राधा अष्टमी ।

 भादुवा सुदी अष्टमी न राधा अष्टमी हो व । ई दिन राधाकृष्णजी को श्रृंगार क र, पूजा क र, भोग लगा व, आरती क र, भजन गा व और व्रत क र ।

संशोधन – २१-९-२०१५ई.(भाद्रपद शुक्ल अष्टमी, विक्रम संवत् २०७२)

 

  ब्रह्मवैवर्त्त पुराण के इस कथन से संकेत मिलता है कि दो प्रकार की राधाओं की कल्पना की गई है मर्त्य स्तर की राधा व अमर्त्य स्तर की राधा। डा. फतहसिंह का कथन है कि वेद में जब अमर्त्य स्तर के किसी शब्द को मर्त्य स्तर पर प्रकट करना होता है तो उसमें स प्रत्यय जोड दिया जाता है, जैसे राधः का राधसः। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि वेद मन्त्रों में राधसः शब्द राधः शब्द की षष्ठी विभक्ति( राधः का) के रूप में भी प्रयुक्त हुआ है()। ऋग्वेद १०.६५.३ में चित्रराधसः प्रकट हुआ है जो स्पष्ट रूप से प्रथमा विभक्ति का बहुवचन है।

          राधा की माता के रूप में प्रायः पितरों की कन्या कलावती का उल्लेख आता है । पुराणों में कलावती का उल्लेख विभिन्न स्तरों पर मिलता है । कथासरित्सागर में कलावती अलम्बुषा अप्सरा की कन्या है जो एक जुआरी की पत्नी बनती है और कालान्तर में उसे इन्द्र की सभा में संगीत का श्रवण कराती है । फिर इन्द्र के शाप से वह पृथिवी पर शिला बन जाती है और जुआरी उसके उद्धार का उद्योग करता है । इसका अर्थ यह हुआ कि कलावती में वह द्यूत/चांस विद्यमान है जिसके अनुसार अविकसित/अर्धविकसित प्रकृति आचरण करती है । कलावती का विकास होने पर द्यूत समाप्त हो जाएगा और राधा का जन्म होगा । कलावती नाम से राधा के एक और रूप का संकेत मिलता है षोडशी। चन्द्रमा की केवल षोडशी कला ही अमृत है।

     ऋग्वेद १.२२.७, ७.८१.५, ८.१.२३ आदि में चित्र राधसका उल्लेख है। नक्षत्रों का जो शुद्ध सत्त्व पृथिवी पर गिर जाता है, उसे चित्र संज्ञा दी गई है। चित्त का विकसित रूप भी चित्र कहा जा सकता है। ऋग्वेद १.२२.७ में उल्लेख है कि सविता देव चित्र राधसों के वसु का विभक्ता है। इसकी व्याख्या शतपथ ब्राह्मण में उपलब्ध है जिसके अनुसार पृथिवी के प्राणियों में सविता देव जितने अनुपात में चित्र राधसों का विभाजन करता है, उतनी ही दीर्घायु वह प्राणी पाता है।

          ऋग्वेद की ऋचाओं में राध: शब्द के कुछ एक विशिष्ट लक्षण मिलते हैं । उदाहरण के लिए, ऋग्वेद ५.५७.७ में मरुतों से प्रार्थना की गई है कि वे हमें गोमत्, अश्वावत्, रथवत्, चन्द्रवत्~, सुवीर राध: प्रदान करे । ऋग्वेद ५.५२.१७, ५.७९.७, ७.७७.५, ७.९२.३ आदि में गव्य व अश्व्य राध: का उल्लेख है । ऋग्वेद ८.४.१९, ८.२४.२९ में स्थूरं राध: का उल्लेख है । ऋग्वेद १.१३५.४, ३.३०.२०, ३.५०.४ में चन्द्रवत् राधस का उल्लेख है । यदि पौराणिक दृष्टि से विचार करे तो राधा के गोलोक के स्वरूप को गोमत् राध: से तथा पृथिवी लोक के स्वरूप को रथवत् राध: से सम्बद्ध कर सकते हैं । लेकिन अश्वावत् राध: के लिए अभी कोई व्याख्या नहीं है । यह उल्लेखनीय है कि पौराणिक वर्णन के अनुसार राधा प्रायः गोलोक में विराजती है, जबकि अन्य देवियां वैकुण्ठ लोक में। गोलोक में कृष्ण द्विभुज हैं, जबकि वैकुण्ठ लोक में चतुर्भुज। चतुर्भुज का एक संभावित अर्थ चारों दिशाओं में फैलने वाला हो सकता है, जबकि द्विभुज का अर्थ केवल ऊपर-नीचे गति वाला हो सकता है। राधा-कृष्ण के रास के संदर्भ में, तैत्तिरीय संहिता १.२.३.२   द्रष्टव्य है जहां सविता देव को रास देने वाला कहा गया है। सोम राधः द्वारा आवृत करने वाला है।

     जैमिनीय ब्राह्मण २.२१४ के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि चार तिर्यक् दिशाओं के सापेक्ष ऋद्धि प्राप्त होती है, जबकि ऊर्ध्वा दिशा में राधः प्राप्त होता है। इसी प्रकार, जैमिनीय ब्राह्मण २.२११ के अनुसार शिशिर ऋतु में राधः प्राप्त होता है, जबकि अन्य ऋतुओं में ऋद्धि।

राधावल्लभ संप्रदाय

वृन्दावन में कृष्ण भक्ति के संदर्भ में विभिन्न संप्रदायों का अस्तित्व है। कोई कृष्ण की भक्ति सखा भाव से करते हैं(जैसे सूरदास), कोई वात्सल्य भाव से आदि। राधावल्लभ सम्प्रदाय में भक्त स्वयं को राधा की एक सखी मात्र मानता है और उसका कार्य केवल राधा-कृष्ण के मिलन में, रास में सहायता करना मात्र है। इस सम्प्रदाय का एक मुख्य श्लोक यह है-

जय राधावल्लभ जय हरिवंश। जय श्रीवृन्दावन जय वनचन्द्र॥

इस श्लोक में राधावल्लभ का अर्थ कृष्ण, हरिवंश का अभिप्राय राधावल्लभ संप्रदाय के प्रवर्तक हरिवंश से लिया जाता है और वनचन्द्र के रूप में उनके पुत्र से अभिप्राय लिया जाता है। उनके पुत्र ने मानसरोवर पर जाकर तपस्या की थी जिसमें भारी विघ्नों का सामना करना पडा था, वैसे ही जैसे बुद्ध को निर्वाण प्राप्त होने से पहली रात्रि में करना पडा था। लेकिन भागवत पुराण के निम्नलिखित श्लोक के आधार पर इस श्लोक का और गहरा अभिप्राय भी हो सकता है -

ईश्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च। प्रेम मैत्री कृपोपेक्षा यः करोति स मध्यमः॥

इस श्लोक में कहा जा रहा है कि मध्यम कोटि का भक्त वह है जो ईश्वर में प्रेम करता है, उनके आधीन रहने वालों(भक्तों) से मैत्री, बालिशों(अल्प बुद्धि वालों?) पर कृपा और द्वेष करने वालों की उपेक्षा करता है। अतः हरिवंश का अभिप्राय भक्त से, वृन्दावन का अभिप्राय अल्प बुद्धि वालों से और वनचन्द्र का अभिप्राय द्वेष करने वाली शक्तियों से हो सकता है। क्या वेद के राधः(धन नाम) का विभाजन इन चार श्रेणियों में करना उपयुक्त होगा, यह अन्वेषणीय है। यदि हरि/हरिवंश वाली राधा के विषय में विचार किया जाए तो ऋग्वेद १०.९६.५ में हरि से उत्पन्न राधः को असामि कहा गया है। सम के विपरीत असम, या semi को असामि कहा जा सकता है। डा. फतहसिंह के शब्दों में असामि का एक अर्थ होता है जो केवल अमर्त्य स्तर पर है, मर्त्य स्तर पर नहीं। ऋग्वेद ४.२०.२ के आधार पर इसकी पुष्टि होती है। तैत्तिरीय ब्राह्मण १.५.१.३  में अनुराधा नक्षत्र का अधिपति मित्र कहा गया है जिसका गुण है अभ्यारोहण और अभ्यारूढन। कर्मकाण्ड में एक वषट्कार का उच्चारण होता है, एक अनुवषट्कार का(सोमस्याग्ने वीहि वौषट्)। अनुवषट्कार मर्त्य स्तर के लिए है। इसी प्रकार अनुराधा के लिए समझना चाहिए।

राधास्वामी संप्रदाय

                   लोक में राधा के संदर्भ में एक और धारणा प्रचलित है । वह यह है कि राधा शब्द धारा का विलोम है । यदि धारा बहिर्मुखी वृत्ति है तो राधा अन्तर्मुखी । राधा स्वामी सम्प्रदाय का मानना है कि राधा और स्वामी शब्द अनाहत नाद के स्वरूप को शब्दों में प्रकट करते हैं और पौराणिक राधा से इसका कोई लेना - देना नहीं है । उनका कहना है कि भारत में एक साधक अनाहत नाद की अभिव्यक्ति राधा व स्वामी कह कर कर सकता है । अन्य भाषा जानने वाला उसकी अभिव्यक्ति किन्हीं अन्य शब्दों में करेगा ।

प्रथम लेखनः- २२-२-२००७ई., संशोधनः- ३-१२-२०११ई.(मार्गशीर्ष शुक्ल नवमी, विक्रम संवत् २०६८)

 

संदर्भ

डा. गोपालकृष्ण भट्ट ने अपने शोधग्रन्थ Vedic Nighantu(Mangalore University,1992) में पृष्ठ १६१ पर उल्लेख किया है कि ऋग्वेद में राधः शब्द १४६ स्थानों पर प्रकट हुआ है। इनमें से १२० स्थानों पर सायणाचार्य द्वारा इसका अर्थ वैदिक निघण्टु के अनुसार धन ही किया गया है। अन्य स्थानों पर इसका अर्थ राधस या अन्न किया गया है।

प्रथमा राधः  राधांसि/राधसः

द्वितीया राधसम्

तृतीया राधसा, राधःभिः

षष्ठी  राधसः/राधः राधसाम्(8.90.2)

सप्तमी राधसे

राधाम

 

अकवा ६.६०.३

अश्व ऋ.५.१०.४, १०.२१.२

असामि ६.३८.५, १०.९६.५

अह्रयं ५.७९.५, ५.७९.६, ८.८.१३, ८.५४.८. ८.५६.१

आयु १.५७.१, ५.५३.१२

इन्द्राग्नि ५.८६.४, 6.60.3, 6.60.13

उ ८.८०.१०

उक्था १.५४.७, 4.11.3

उरू-पुरू ५.३८.१(उरु), ६.४७.१४

गो-अश्व ऋ. ३.३०.२०, ३.५०.४, 5.52.17,  .५७.७. ५.७९.७, ७.७७.५,  ७.९२.३, १०.७.२

चन्द्र १.१३५.४, ३.३०.२०, ३.५०.४, ५.५७.७

चित्र .., 1.17.7, 1.22.7, १.४४.१, .१.११०.९, १.१३९.६, ५.१३.६, 5.39.1,  ७.८१.५, ..२३, ८.११.९, १०.६५.३

चोद .., १.४८.२, ५.४३.९(मतीनां), 7.27.3, 7.77.4, 7.96.2, ८.२४.१३, ८.६८.७, ९.८.३

तुर ५.८६.४, ६.४४.५

दभन् १.८४.२०

पङ्क्ति १.४०.३, ऐ.ब्रा.

पणि १०.६०.६, १.८४.८(मर्त), 8.64.4, १०.६०.६,

पति १.३०.५, ३.५१.१०, ५.८६.४, ६.४४.५, ८.६१.१४

प्रजा 1.94.15

मघ १.१२२.८, ९.१.३

मति १०.१४३.४

महः १.१३९.६, ३.४१.६, ६.४५.२७, ६.४७.२५, ६.५५.२, 8.1.14, 8.2.29, 8.24.10, 8.45.24, 8.50.6, 8.61.14, 8.68.7, 8.70.9, ९.४६.५, ९.८१.३, १०.१४०.५

राध्य वरूथ ऋ.१.११६.११, स्तोम, यज्ञ ऋ.१.१५६.१ उक्था ऋ. ४.११.३, मन प्रराध्य ५.३९.३, 8.92.28

रास ३.५३.१३, ५.७९.६, ७.७९.४, ७.८१.५, १०.६५.३

शंस्य २.३४.११(मरुतः), २.३८.११(सविता)

शत-सहस्र 4.31.9, 8.6.46, 8.24.29,

शवस १.८१.८

शश 8.54.8

सत्य 1.101.8, 4.24.2, 4.29.1, 5.40.7 7.31.2, 7.41.3,

सूनृता १.४८.२, 7.76.7, ८.९७.६

सोम ९.८.३, ९.६०.४, तै.सं. १.२.३.२

स्तोम १.४१.७, १.४८.१४

स्थूरं ८.४.१९, ८.२४.२९, ८.५४.८

हवि १.१०१.८, ऐ.ब्रा.

 

*सं चो॑दय चि॒त्रम॒र्वाग्राध॑ इन्द्र॒ वरे॑ण्यम्। अस॒दित्ते॑ वि॒भु प्र॒भु॥ऋ.१.९.५

तुलनीय तत् सवितुर्वरेण्यं - - धियो यो नः प्रचोदयात्; शौ.अ. 20.135.9

*सु॒वि॒वृतं॑ सुनि॒रज॒मिन्द्र॒ त्वादा॑त॒मिद्यशः॑। गवा॒मप॑ व्र॒जं वृ॑धि कृणु॒ष्व राधो॑ अद्रिवः॥ - ऋ. १.१०.७

*ब्राह्म॑णादिन्द्र॒ राध॑सः॒ पिबा॒ सोम॑मृ॒तूँरनु॑। तवेद्धि स॒ख्यमस्तृ॑तम्॥ - ऋ. १.१५.५

यह सूक्त विभिन्न ऋत्विजों का है। वर्तमान ऋचा में ब्राह्मण से तात्पर्य ब्राह्मणाच्छंसी ऋत्विज से है। - सायण

*इन्द्रा॑वरुण वाम॒हं हु॒वे चि॒त्राय॒ राध॑से। अ॒स्मान्त्सु जि॒ग्युष॑स्कृतम्॥ - ऋ. १.१७.७

*वि॒भ॒क्तारं॑ हवामहे॒ वसो॑श्चि॒त्रस्य॒ राध॑सः। स॒वि॒तारं॑ नृ॒चक्ष॑सम्॥ - ऋ. १.२२.७

शतपथ ब्राह्मण की व्याख्या

*सखा॑य॒ आ नि षीदत सवि॒ता स्तोम्यो॒ नु नः॑। दाता॒ राधां॑सि शुम्भति॥ - ऋ. १.२२.८

तुलनीय सविता के चित्रराधसों के विभक्ता होने की ऋचा

*वरु॑णः प्रावि॒ता भु॑वन् मि॒त्रो विश्वा॑भिरू॒तिभिः॑। कर॑तां नः सु॒राध॑सः॥ - ऋ. १.२३.६

*स्तो॒त्रं रा॑धानां पते॒ गिर्वा॑हो वीर॒ यस्य॑ ते। विभू॑तिरस्तु सू॒नृता॑॥ - ऋ. १.३०.५

*प्रैतु॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिः॒ प्र दे॒व्ये॑तु सू॒नृता॑। अच्छा॑ वी॒रं नर्यं॑ प॒ङ्क्तिरा॑धसं दे॒वा य॒ज्ञं न॑यन्तु नः॥ - ऋ. १.४०.३

*क॒था रा॑धाम सखायः॒ स्तोमं॑ मि॒त्रस्या॑र्य॒म्णः। महि॒ प्सरो॒ वरु॑णस्य॥ - ऋ. १.४१.७

*अग्ने॒ विव॑स्वदु॒षस॑श्चि॒त्रं राधो॑ अमर्त्य। आ दा॒शुषे॑ जातवेदो वहा॒ त्वम॒द्या दे॒वाँ उ॑ष॒र्बुधः॑॥ - ऋ. १.४४.१

*अश्वा॑वती॒र्गोम॑तीर्विश्वसु॒विदो॒ भूरि॑ च्यवन्त॒ वस्त॑वे। उदी॑रय॒ प्रति॑ मा सू॒नृता॑ उष॒श्चोद॒ राधो॑ म॒घोना॑म्॥ - ऋ. १.४८.२

*ये चि॒द्धि त्वामृष॑यः॒ पूर्व॑ ऊ॒तये॑ जुहू॒रेऽव॑से महि। सा नः॒ स्तोमाँ॑ अ॒भि गृ॑णीहि॒ राध॒सोषः॑ शु॒क्रेण॑ शो॒चिषा॑॥ - ऋ. १.४८.१४

*त्वे विश्वा॒ तवि॑षी स॒ध्र्य॑ग्घि॒ता तव॒ राधः॑ सोमपी॒थाय॑ हर्षते। तव॒ वज्र॑श्चिकिते बा॒ह्वोर्हि॒तो वृ॒श्चा शत्रो॒रव॒ विश्वा॑नि॒ वृष्ण्या॑॥ - ऋ. १.५१.७

राधः मन - सायण

*स घा॒ राजा॒ सत्प॑तिः शूशुव॒ज्जनो॑ रा॒तह॑व्यः॒ प्रति॒ यः शास॒मिन्व॑ति। उ॒क्था वा॒ यो अ॑भिगृ॒णाति॒ राध॑सा॒ दानु॑रस्मा॒ उप॑रा पिन्वते दि॒वः॥ - ऋ. १.५४.७

*प्र मंहि॑ष्ठाय बृह॒ते बृ॒हद्र॑ये स॒त्यशु॑ष्माय त॒वसे॑ म॒तिं भ॑रे। अ॒पामि॑व प्रव॒णे यस्य॑ दु॒र्धरं॒ राधो॑ वि॒श्वायु॒ शव॑से॒ अपा॑वृतम्॥ - ऋ. १.५७.१

*वर्धा॒न्यं पू॒र्वीः क्षपो विरू॑पाः स्था॒तुश्च॒ रथ॑मृ॒तप्र॑वीतम्। अरा॑धि॒ होता॒ स्व१॒॑र्निष॑त्तः कृ॒ण्वन्विश्वा॒न्यपां॑सि स॒त्या॥ - ऋ. १.७०.४

*यो अ॒र्यो मर्त॒भोजनं परा॒ददाति दा॒शुषे। इन्द्रो अ॒स्मभ्यं शिक्षतु॒ वि भजा॒ भूरि ते॒ वसु भक्षी॒य तव॒ राध॑सः॥ - ऋ. १.८१.६

*मा॒दय॑स्व सु॒ते सचा॒ शव॑से शूर॒ राध॑से। वि॒द्मा हि त्वा॑ पुरू॒वसु॒मुप॒ कामा॑न्त्ससृ॒ज्महेऽथा॑ नोऽवि॒ता भ॑व॥ - ऋ. १.८१.८

*क॒दा मर्त॑मरा॒धसं॑ प॒दा क्षुम्प॑मिव स्फुरत्। क॒दा नः॑ शुश्रव॒द्गिर॒ इन्द्रो॑ अ॒ङ्ग॥ - ऋ. १.८४.८

*मा ते॒ राधां॑सि॒ मा त॑ ऊ॒तयो॑ वसो॒ऽस्मान्कदा॑ च॒ना द॑भन्। विश्वा॑ च न उपमिमी॒हि मा॑नुष॒ वसू॑नि चर्ष॒णिभ्य॒ आ॥ - ऋ. १.८४.२०

*यस्मै॒ त्वं सु॑द्रविणो॒ ददा॑शोऽनागा॒स्त्वम॑दिते स॒र्वता॑ता। यं भ॒द्रेण॒ शव॑सा चो॒दया॑सि प्र॒जाव॑ता॒ राध॑सा॒ ते स्या॑म॥ - ऋ. १.९४.१५

*ए॒तत्त्यत्त॑ इन्द्र॒ वृष्ण॑ उ॒क्थं वा॑र्षागि॒रा अ॒भि गृ॑णन्ति॒ राधः॑। ऋ॒ज्राश्वः॒ प्रष्टि॑भिरम्ब॒रीषः॑ स॒हदे॑वो॒ भय॑मानः सु॒राधाः॑॥ - ऋ. १.१००.१७

*यद् वा॑ मरुत्वः पर॒मे स॒धस्थे॒ यद् वा॑व॒मे वृ॒जने॑ मा॒दया॑से। अत॒ आ या॑ह्यध्व॒रं नो॒ अच्छा॑ त्वा॒या ह॒विश्च॑कृमा सत्यराधः॥ - ऋ. १.१०१.८

*वाजे॑भिर्नो॒ वाज॑सातावविड्ढ्यृभु॒माँ इ॑न्द्र चि॒त्रमा द॑र्षि॒ राधः॑। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑तिः॒ सिन्धुः॑ पृथि॒वी उ॒त द्यौः॥ - ऋ. १.११०.९

*तद्वां॑ नरा॒ शंस्यं॒ राध्यं॑ चाभिष्टि॒मन्ना॑सत्या॒ वरू॑थम्। यद्वि॒द्वांसा॑ नि॒धिमि॒वाप॑गूळ्ह॒मुद्द॑र्श॒तादू॒पथु॒र्वन्द॑नाय॥ - ऋ. १.११६.११

*का रा॑ध॒द्धोत्रा॑श्विना वां॒ को वां॒ जोष॑ उ॒भयोः॑ । क॒था वि॑धा॒त्यप्र॑चेताः॥ - ऋ. १.१२०.१

*तुभ्यं॒ पयो॒ यत्पि॒तरा॒वनी॑तां॒ राधः सु॒रेत॑स्तु॒रणे॑ भुर॒ण्यू। शुचि॒ यत्ते॒ रेक्ण॒ आय॑जन्त सब॒र्दुघा॑याः॒ पय॑ उ॒स्रिया॑याः॥ - ऋ. १.१२१.५

*अ॒स्य स्तु॑षे॒ महि॑मघस्य॒ राधः॒ सचा॑ सनेम॒ नहु॑षः सु॒वीराः॑। जनो॒ यः प॒ज्रेभ्यो॑ वा॒जिनी॑वा॒नश्वा॑वतो र॒थिनो॒ मह्यं॑ सू॒रिः॥ - ऋ. १.१२२.८

*अध॒ ग्मन्ता॒ नहु॑षो॒ हवं॑ सू॒रेः श्रोता॑ राजानो अ॒मृत॑स्य मन्द्राः। न॒भो॒जुवो॒ यन्नि॑र॒वस्य॒ राधः॒ प्रश॑स्तये महि॒ना रथ॑वते॥ - ऋ. १.१२२.११

*आ वां॒ रथो॑ नि॒युत्वा॑न्वक्ष॒दव॑से॒ऽभि प्रयां॑सि॒ सुधि॑तानि वी॒तये॒ वायो॑ ह॒व्यानि॑ वी॒तये॑। पिब॑तं॒ मध्वो॒ अन्ध॑सः पूर्व॒पेयं॒ हि वां॑ हि॒तम्। वाय॒वा च॒न्द्रेण॒ राध॒सा ग॑त॒मिन्द्र॑श्च॒ राध॒सा ग॑तम्॥ - ऋ. १.१३५.४

*वृष॑न्निन्द्र वृष॒पाणा॑स॒ इन्द॑व इ॒मे सु॒ता अद्रि॑षुतास उ॒द्भिद॒स्तुभ्यं॑ सु॒तास॑ उ॒द्भिदः॑। ते त्वा॑ मन्दन्तु दा॒वने॑ म॒हे चि॒त्राय॒ राध॑से। गी॒र्भिर्गिर्वाहः॒ स्तव॑मान॒ आ ग॑हि सुमृळी॒को न॒ आ ग॑हि॥ - ऋ. १.१३९.६

*भवा॑ मि॒त्रो न शेव्यो घृ॒तासु॑ति॒र्विभू॑तद्युम्न एव॒या उ॑ स॒प्रथाः॑। अधा॑ ते विष्णो वि॒दुषा॑ चि॒दर्ध्यः॒ स्तोमो॑ य॒ज्ञश्च॒ राध्यो॑ ह॒विष्म॑ता॥ - ऋ. १.१५६.१

*तद्राधो॑ अ॒द्य स॑वि॒तुर्वरे॑ण्यं व॒यं दे॒वस्य॑ प्रस॒वे म॑नामहे। अ॒स्मभ्यं॑ द्यावापृथिवी सुचे॒तुना॑ र॒यिं ध॑त्तं॒ वसु॑मन्तं शत॒ग्विन॑म्॥ - ऋ. १.१५९.५

तु. तत् सवितुर्वरेण्यं - - धियो यो नः प्रचोदयात्। इस गायत्री मन्त्र में इसका कोई उत्तर नहीं दिया गया है कि सविता का तत् कौन सा है जिसके द्वारा धी का प्रचोदन किया जा सकता है? उपरोक्त ऋचा इसका उत्तर देती है कि वह तत् राधः है।

*प्र स्क॒म्भदे॑ष्णा अनव॒भ्ररा॑धसो ऽलातृ॒णासो॑ वि॒दथे॑षु॒ सुष्टु॑ताः। अर्च॑न्त्य॒र्कं मदि॒रस्य॑ पी॒तये॑ वि॒दुर्वी॒रस्य॑ प्रथ॒मानि॒ पौंस्या॑॥ - ऋ. १.१६६.७

अनवभ्र भ्रंशनरहित - सायण

*तद्वः॑ सुजाता मरुतो महित्व॒नं दी॒र्घं वो॑ दा॒त्रमदि॑तेरिव व्र॒तम्। इन्द्र॑श्च॒न त्यज॑सा॒ वि ह्रु॑णाति तज्जना॑य॒ यस्मै॑ सु॒कृते॒ अरा॑ध्वम्॥ - ऋ. १.१६६.१२

*अग्ने॒ यज॑स्व हविषा॒ यजी॑याञ्छ्रु॒ष्टी दे॒ष्णम॒भि गृ॑णीहि॒ राधः॑। त्वं ह्यसि॑ रयि॒पती॑ रयी॒णां त्वं शु॒क्रस्य॒ वच॑सो म॒नोता॑॥ ऋ. २.९.४

*यः सु॒न्वन्त॒मव॑ति॒ यः पच॑न्तं॒ यः शंस॑न्तं॒ यः श॑शमा॒नमू॒ती। यस्य॒ ब्रह्म॒ वर्ध॑नं॒ यस्य॒ सोमो॒ यस्ये॒दं राधः॒ स ज॑नास॒ इन्द्रः॑॥ - ऋ. २.१२.१४

*अ॒स्मभ्यं॒ तद् व॑सो दा॒नाय॒ राधः॒ सम॑र्थयस्व ब॒हु ते॑ वस॒व्य॑म्। इन्द्र॒ यच्चि॒त्रं श्र॑व॒स्या अनु॒ द्यू॒न् बृ॒हद् व॑देम वि॒दथे॑ सु॒वीराः॑॥ - ऋ. २.१३.१३, २.१४.१२

*सा॒कं जा॒तः क्रतु॑ना सा॒कमोज॑सा ववक्षिथ सा॒कं वृ॒द्धो वी॒र्यैः॑ सास॒हिर्मृधो॒ विच॑र्षणिः। दाता॒ राधः॑ स्तुव॒ते काम्यं॒ वसु॒ सैनं॑ सश्चद् दे॒वो दे॒वं स॒त्यमिन्द्रं स॒त्य इन्दुः॑॥ -ऋ. २.२२.३

*वि॒भु प्र॒भु प्र॑थ॒मं मे॒हना॑वतो॒ बृह॒स्पतेः॑ सुवि॒दत्रा॑णि॒ राध्या॑। इ॒मा सा॒तानि॑ वे॒न्यस्य॑ वा॒जिनो॒ येन॒ जना॑ उ॒भये॑ भुञ्ज॒ते विशः॑॥ - ऋ. २.२४.१०

*पृ॒क्षे ता विश्वा॒ भुव॑ना ववक्षिरे मि॒त्राय॑ वा॒ सद॒मा जी॒रदान॑वः। पृष॑दश्वासो अनव॒भ्ररा॑धस ऋजि॒प्यासो॒ न व॒युने॑षु धू॒र्षदः॑॥ - ऋ. २.३४.४

अनवभ्र भ्रंशनरहित - सायण

*तान् वो॑ म॒हो म॒रुत॑ एव॒याव्नो॒ विष्णोरे॒षस्य॑ प्रभृ॒थे ह॑वामहे। हिर॑ण्यवर्णान् ककु॒हान् य॒तस्रु॑चो ब्रह्म॒ण्यन्तः॒ शंस्यं॒ राध॑ ईमहे॥ ऋ. २.३४.११

*या॒द्रा॒ध्यं१॒॑ वरु॑णो॒ योनि॒मप्य॒मनि॑शितं नि॒मिषि॒ जर्भु॑राणः। विश्वो॑ मार्ता॒ण्डो व्र॒जमा प॒शुर्गा॑त् स्थ॒शो जन्मा॑नि सवि॒ता व्याकः॑॥ - ऋ. २.३८.८

*अ॒स्मभ्यं॒ तद् दि॒वो अ॒द्भ्यः पृ॑थि॒व्यास्त्वया॑ द॒त्तं काम्यं॒ राध॒ आ गा॑त्। शं यत् स्तो॒तृभ्य॑ आ॒पये॒ भवा॑त्युरु॒शंसा॑य सवितर्जरि॒त्रे॥ ऋ. २.३८.११

*व्रातं॑व्रातं ग॒णंग॑णं सुश॒स्तिभि॑र॒ग्नेर्भामं॑ म॒रुता॒मोज॑ ईमहे। पृष॑दश्वासो अनव॒भ्ररा॑धसो॒ गन्ता॑रो य॒ज्ञं वि॒दथे॑षु धीराः॑॥ - ऋ. ३.२६.६

*इ॒मं कामं॑ मन्दया॒ गोभि॒रश्वै॑श्च॒न्द्रव॑ता॒ राध॑सा प॒प्रथ॑श्च। स्व॒र्यवो॑ म॒तिभि॒स्तुभ्यं॒ विप्रा॒ इन्द्रा॑य॒ वाहः॑ कुशि॒कासो॑ अक्रन्॥ - ऋ. ३.३०.२०, ३.५०.४

*अता॑रिषुर्भर॒ता ग॒व्यवः॒ समभ॑क्त॒ विप्रः॑ सुम॒तिं न॒दीना॑म। प्र पि॑न्वध्वमि॒षय॑न्तीः सु॒राधा॒ आ व॒क्षणाः॑ पृ॒णध्वं॑ या॒त शीभ॑म्॥ - ऋ. ३.३३.१२

*स मन्दस्वा॒ ह्यन्ध॑सो॒ राध॑से त॒न्वा॑ म॒हे। न स्तो॒तारं॑ नि॒दे क॑रः॥ - ऋ. ३.४१.६

*इ॒दं ह्यन्वोज॑सा सु॒तं रा॑धानां पते। पिबा॒ त्व१॒॑स्य गि॑र्वणः॥ ऋ. ३.५१.१०

*प्र ते॑ अश्नोतु कु॒क्ष्योः प्रेन्द्र॒ ब्रह्म॑णा॒ शिरः॑। प्र बा॒हू शू॑र॒ राध॑से॥ - ऋ. ३.५१.१२

*वि॒श्वामि॑त्रा अरासत॒ ब्रह्मेन्द्रा॑य व॒ज्रिणे॑। कर॒दिन्नः॑ सु॒राध॑सः॥ - ऋ. ३.५३.१३

*अ॒र्य॒मणं॒ वरु॑णं मि॒त्रमे॑षा॒मिन्द्रा॒विष्णू॑ म॒रुतो॑ अ॒श्विनो॒त। स्वश्वो॑ अग्ने सु॒रथः॑ सु॒राधा॒ एदु॑ वह सुह॒विषे॒ जना॑य॥ - ऋ. ४.२.४

*प्र ताँ अ॒ग्निर्ब॑भसत् ति॒ग्मज॑म्भ॒स्तपि॑ष्ठेन शो॒चिषा॒ यः सु॒राधाः॑। प्र ये मि॒नन्ति॒ वरु॑णस्य॒ धाम॑ प्रि॒या मि॒त्रस्य॒ चेत॑तो ध्रु॒वाणि॑॥ - ऋ. ४.५.४

*त्वद॑ग्ने॒ काव्या॒ त्वन्म॑नी॒षास्त्वदु॒क्था जा॑यन्ते॒ राध्या॑नि। त्वदे॑ति॒ द्रवि॑णं वी॒रपे॑शा इ॒त्थाधि॑ये दा॒शुषे॒ मर्त्या॑य॥ - ऋ. ४.११.३

*तमिद् व॒ इन्द्रं॑ सु॒हवं॑ हुवेम॒ यस्ता च॒कार॒ नर्या पु॒रूणि॑। यो माव॑ते जरि॒त्रे गध्यं॑ चिन्म॒क्षू वाजं॒ भर॑ति स्पा॒र्हरा॑धाः॥ - ऋ. ४.१६.१६

गध्यं ग्राह्यं; स्पार्ह स्पृहणीय -  सायण

*स॒त्रा॒हणं॒ दाधृ॑षिं॒ तुम्र॒मिन्द्रं म॒हाम॑पा॒रं वृ॑ष॒भं सु॒वज्र॑म्। हन्ता॒ यो वृ॒त्रं सनि॑तो॒त वाजं॒ दाता॑ म॒घानि॑ म॒घवा॑ सु॒राधाः॑॥ - ऋ. ४.१७.८

*आ न॒ इन्द्रो॒ हरि॑भिर्या॒त्वच्छा॑र्वाची॒नोऽव॑से॒ राध॑से च। तिष्ठा॑ति व॒ज्री म॒घवा॑ विर॒प्शीमं य॒ज्ञमनु॑ नो॒ वाज॑सातौ॥ऋ. ४.२०.२

*न यस्य॑ व॒र्ता ज॒नुषा॒ न्वस्ति॒ न राध॑स आमरी॒ता म॒घस्य॑। उद्वा॒वृ॒षा॒णस्त॑विषीव उग्रा॒स्मभ्यं॑ दद्धि पुरुहूत रा॒यः॥ ऋ. ४.२०.७

आमरीता नाशयिता - सायण

*तस्येदि॒ह स्त॑वथ॒ वृष्ण्या॑नि तुविद्यु॒म्नस्य॑ तुवि॒राध॑सो॒ नॄन्। यस्य॒ क्रतु॑र्विद॒थ्यो॒२॑ न स॒म्राट् सा॒ह्वान् तरु॑त्रो अ॒भ्यस्ति॑ कृ॒ष्टीः॥ - ऋ. ४.२१.२

तुवि बहु - सायण

*भ॒द्रा ते हस्ता॒ सुकृ॑तो॒त पा॒णी प्रय॒न्तारा॑ स्तुव॒ते राध॑ इन्द्र। का ते॒ निष॑त्तिः॒ किमु॒ नो म॑मत्सि॒ किं नोदु॑दु हर्षसे॒ दात॒वा उ॑॥ ऋ. ४.२१.९

*का सु॑ष्टु॒तिः शव॑सः सू॒नुमिन्द्र॑मर्वाची॒नं राध॑स॒ आ व॑वर्तत्। द॒दिर्हि वी॒रो गृ॑ण॒ते वसू॑नि॒ स गोप॑तिर्नि॒ष्षिधां॑ नो जनासः॥ - ऋ. ४.२४.१

*स वृ॑त्र॒हत्ये॒ हव्यः॒ स ईड्यः॒ स सुष्टु॑त॒ इन्द्रः॑ स॒त्यरा॑धाः। स याम॒न्ना म॒घवा॒ मर्त्या॑य ब्रह्मण्य॒ते सुष्व॑ये॒ वरि॑वो धात्॥ - ऋ. ४.२४.२

*आ नः॑ स्तु॒त उप॒ वाजे॑भिरू॒ती इन्द्र॑ या॒हि हरि॑भिर्मन्दसा॒नः। ति॒रश्चि॑द॒र्यः सव॑ना पु॒रूण्या॑ङ्गू॒षेभि॑र्गृणा॒नः स॒त्यरा॑धाः॥ - ऋ. ४.२९.१

*श्रा॒वयेद॑स्य॒ कर्णा॑ वाज॒यध्यै॒ जुष्टा॒मनु॒ प्र दिशं॑ मन्द॒यध्यै॑। उ॒द्वा॒वृ॒षा॒णो राध॑से॒ तुवि॑ष्मा॒न्कर॑न्न॒ इन्द्रः॑ सुती॒र्थाभ॑यं च॥ - ऋ. ४.२९.३

*न॒हि ष्मा॑ ते श॒तं च॒न राधो॒ वर॑न्त आ॒मुरः॑। न च्यौ॒त्नानि॑ करिष्य॒तः॥ऋ. ४.३१.९

*स॒हस्रा॑ ते श॒ता व॒यं गवा॒मा च्या॑वयामसि। अ॒स्म॒त्रा राध॑ एतु तेऋ. ४.३२.१८

*भूरिदा॒ ह्यसि॑ श्रु॒तः पु॑रु॒त्रा शू॑र वृत्रहन्। आ नो॑ भजस्व॒ राध॑सि॥ - ऋ. ४.३२.२१

*उ॒च्छन्ती॑र॒द्य चि॑तयन्त भो॒जान् रा॑धो॒देया॑यो॒षसो॑ म॒घोनीः॑। अ॒चि॒त्रे अ॒न्तः प॒णयः॑ सस॒न्त्वबु॑ध्यमाना॒स्तम॑सो॒ विम॑ध्ये॥ ऋ. ४.५१.३

*तत्सु नः॑ सवि॒ता भगो॒ व॑रुणो मि॒त्रो अ॑र्य॒मा। इन्द्रो॑ नो॒ राध॒सा ग॑मत्॥ - ऋ. ४.५५.१०

*ये अ॑ग्ने चन्द्र ते॒ गिरः॑ शु॒म्भन्त्यश्व॑राधसः। शुष्मे॑भिः शु॒ष्मिणो॒ नरो॑ दि॒वश्चि॒द् येषां॑ बृ॒हत् सु॑की॒र्तिर्बोध॑ति॒ त्मना॑॥ - ऋ. ५.१०.४

*अग्ने ने॒मिर॒राँ इ॑व दे॒वाँस्त्वं परि॒भूर॑सि। आ राध॑श्चि॒त्रमृ॑ञ्जसे॥ ऋ. ५.१३.६

दित्सु दानेच्छु - सायण

*वृषा॒ ह्यसि॒ राध॑से जज्ञि॒षे वृष्णि ते॒ शवः॑। स्वक्ष॑त्रं ते धृ॒षन्मनः॑ सत्रा॒हमि॑न्द्र॒ पौंस्य॑म्॥ - ऋ. ५.३५.४

*उ॒रोष्ट॑ इन्द्र॒ राध॑सो वि॒भ्वी रा॒तिः श॑तक्रतो। अधा॑ नो विश्वचर्षणे द्यु॒म्ना सु॑क्षत्र मंहय॥ऋ. ५.३८.१

*यदि॑न्द्र चित्र मे॒हना ऽस्ति॒ त्वादा॑तमद्रिवः। राध॒स्तन्नो॑ विदद्वस उभयाह॒स्त्या भ॑र॥ऋ. ५.३९.१

*यत् ते॑ दित्सु प्र॒राध्यं॒ मनो॒ अस्ति॑ श्रु॒तं बृ॒हत्। तेन॑ दृ॒ळ्हा चि॑दद्रिव॒ आ वाजं॑ दर्षि सा॒तये॑॥ - ऋ. ५.३९.३

*मा मामि॒मं तव॒ सन्त॑मत्र इर॒स्या द्रु॒ग्धो भि॒यसा॒ नि गारीत्। त्वं मि॒त्रो अ॑सि स॒त्यरा॑धा॒स्तौ मे॒हाव॑तं॒ वरु॑णश्च॒ राजा॑॥ - ऋ. ५.४०.७

*प्र तव्य॑सो॒ नम॑उक्तिं तु॒रस्या॒हं पू॒ष्ण उ॒त वा॒योर॑दिक्षि। या राध॑सा चोदि॒तारा॑ मती॒नां या वाज॑स्य द्रविणो॒दा उ॒त त्मन्॥ ऋ. ५.४३.९

*स॒प्त मे॑ स॒प्त शा॒किन॒ एक॑मेका श॒ता द॑दुः। य॒मुना॑या॒मधि॑ श्रु॒तमुद् राधो॒ गव्यं॑ मृजे॒ नि राधो॒ अश्व्यं॑ मृजे॥ऋ. ५.५२.१७

इस ऋचा में राधः के उद् व नि प्रत्ययों का क्या अर्थ हो सकता है, यह अन्वेषणीय है। उद् से उद्धव अर्थ लिया जा सकता है, नि से निश्चला भक्ति।

*येन॑ तो॒काय॒ तन॑याय धा॒न्यं१॒॑ बीजं॒ वह॑ध्वे॒ अक्षि॑तम्। अ॒स्मभ्यं॒ तद् ध॑त्तन॒ यद् व॒ ईम॑हे॒ राधो॑ वि॒श्वायु॒ सौभ॑गम्॥ऋ. ५.५३.१३

*पु॒रु॒द्र॒प्सा अ॑ञ्जि॒मन्तः॑ सु॒दान॑वस्त्वे॒षसं॑दृशो अनव॒भ्ररा॑धसः। सुजा॒तासो॑ ज॒नुषा॑ रु॒क्मव॑क्षसो दि॒वो अ॒र्का अ॒मृतं॒ नाम॑ भेजिरे॥ - ऋ. ५.५७.५

*गोम॒दश्वा॑व॒द् रथ॑वत् सु॒वीरं॑ च॒न्द्रव॒द् राधो॑ मरुतो ददा नः। प्रश॑स्तिं नः कृणुत रुद्रियासो भक्षी॒य वोऽव॑सो॒ दैव्य॑स्य॥ऋ. ५.५७.७

द्र. ऋ. ३.३०.२०, ३.५०.४। तैत्तिरीय संहिता २.२.१२.८ में राधः के वीर-गो-अश्व रूप का उल्लेख

*त्वे॒षं ग॒णं तवसं॒ खादि॑हस्तं॒ धुनि॑व्रतं मा॒यिनं॒ दाति॑वारम्। म॒योभुवो॒ ये अमि॑ता महि॒त्वा वन्द॑स्व विप्र तुवि॒राध॑सो॒ नॄन्॥ - ऋ. ५.५८.२

*उ॒त त्वा॒ स्त्री शशी॑यसी पुं॒सो भ॑वति॒ वस्य॑सी। अदे॑वत्रादरा॒धसः॑॥ - ऋ. ५.६१.६

*ता वा॒मेषे॒ रथा॑नामिन्द्रा॒ग्नी ह॑वामहे। पती॑ तु॒रस्य॒ राध॑सो वि॒द्वांसा॒ गिर्व॑णस्तमा॥ऋ. ५.८६.४

*स॒म्राजा॑व॒स्य भुव॑नस्य राजथो॒ मित्रा॑वरुणा वि॒दथे॑ स्व॒र्दृशा॑। वृ॒ष्टिं वां॒ राधो॑ अमृत॒त्वमी॑महे॒ द्यावा॑पृथि॒वी वि च॑रन्ति तन्यवः॑॥ऋ. ५.६३.२

*यच्चि॒द्धि ते॑ ग॒णा इ॒मे छ॒दय॑न्ति म॒घत्त॑ये। परि॑ चि॒द् वष्ट॑यो दधु॒र्दद॑तो॒ राधो॒ अह्र॑यं॒ सुजाते॒ अश्व॑सूनृते॥ऋ. ५.७९.५

*एषु॑ धा वी॒रव॒द् यश॒ उषो॑ मघोनि सू॒रिषु॑। ये नो॒ राधां॒स्यह्र॑या म॒घवा॑नो॒ अरा॑सत॒ सुजा॑ते॒ अश्व॑सूनृते॥ऋ. ५.७९.६

*तेभ्यो॑ द्यु॒म्नं बृ॒हद् यश॒ उषो॑ मघो॒न्या व॑ह। ये नो॒ राधां॒स्यश्व्या॑ ग॒व्या भज॑न्त सू॒रयः॒ सुजा॑ते॒ अश्व॑सूनृते॥ - ऋ. ५.७९.७

*ता वा॒मेषे॒ रथा॑नामिन्द्रा॒ग्नी ह॑वामहे। पती॑ तु॒रस्य॒ राध॑सो वि॒द्वांसा॒ गिर्व॑णस्तमा॥ऋ. ५.८६.४

*त्वां हि म॒न्द्रत॑ममर्कशो॒कैर्व॑वृ॒महे॒ महि॑ नः॒ श्रोष्य॑ग्ने। इन्द्रं॒ न त्वा॒ शव॑सा दे॒वता॑ वा॒युं पृ॑णन्ति॒ राध॑सा॒ नृत॑माः॥ - ऋ. ६.४.७

*नू न॑श्चि॒त्रं पु॑रु॒वाजा॑भिरू॒ती अग्ने॑ र॒यिं म॒घव॑द्भ्यश्च धेहि। ये राध॑सा॒ श्रव॑सा॒ चात्य॒न्यान्त्सु॒वीर्ये॑भिश्चा॒भि सन्ति॒ जना॑न्॥ - ऋ. ६,१०.५

*ए॒वा ज॑ज्ञा॒नं सह॑से॒ असा॑मि वावृधानं॒ राध॑से च श्रु॒ताय॑। म॒हामु॒ग्रमव॑से विप्र नू॒नमा वि॑वासेम वृत्र॒तूर्ये॑षु॥ - ऋ. ६.३८.५

*यं व॒र्धय॒न्तीद्गिरः॒ पतिं॑ तु॒रस्य॒ राधसः। तमिन्न्व॑स्य॒ रोद॑सी दे॒वी शुष्मं॑ सपर्यतः॥ - ऋ. ६.४४.५

*स म॑न्दस्वा॒ ह्यन्ध॑सो॒ राध॑से त॒न्वा॑ म॒हे। न स्तो॒तारं॑ नि॒दे क॑रः॥ - ऋ. ६.४५.२७

*अव॒ त्वे इ॑न्द्र प्र॒वतो॒ नोर्मिर्गिरो॒ ब्रह्मा॑णि नि॒युतो॑ धवन्ते। उ॒रू न राधः॒ सव॑ना पु॒रूण्य॒पो गा व॑ज्रिन्युवसे॒ समिन्दू॑न्॥ - ऋ. ६.४७.१४

इस ऋचा में राधः का गुण उरू तथा सवनों का गुण पुरू कहा जा रहा है। जैसा कि उर्वशी शब्द की टिप्पणी में कहा जा चुका है, इस संदर्भ में आधुनिक भौतिक विज्ञान के इस नियम को ध्यान में रखा जा सकता है कि दो युग्मित राशियों(conjugate terms) का गुणनफल स्थिर रहता है। एक बढती है तो दूसरी घट जाती है। यह अनिश्चितता का सिद्धान्त कहलाता है।

*प्र॒स्तो॒क इन्नु राध॑सस्त इन्द्र॒ दश॒ कोश॑यी॒र्दश॑ वा॒जिनो॑ऽदात्। दिवो॑दासादतिथि॒ग्वस्य॒ राधः॑ शाम्ब॒रं वसु॒ प्रत्य॑ग्रभीष्म॥ - ऋ. ६.४७.२२

*महि॒ राधो॑ वि॒श्वज॑न्यं॒ दधा॑नान्भ॒रद्वा॑जान्त्सार्ञ्ज॒यो अ॒भ्य॑यष्ट॥ - ऋ. ६.४७.२५

*र॒थीत॑मं कप॒र्दिन॒मीशा॑नं॒ राध॑सो म॒हः। रा॒यः सखा॑यमीमहे॥ - ऋ. ६,५५,२

*आ वृ॑त्रहणा वृत्र॒हभिः॒ शुष्मै॒रिन्द्र॑ या॒तं नमो॑भिरग्ने अ॒र्वाक्। यु॒वं राधो॑भि॒रक॑वेभिरि॒न्द्राग्ने॑ अ॒स्मे भ॑वतमुत्त॒मेभिः॑॥ ऋ. ६.६०.३

*उ॒भा वा॑मिन्द्राग्नी आहु॒वध्या॑ उ॒भा राध॑सः स॒ह मा॑द॒यध्यै॑। उ॒भा दा॒तारा॑वि॒षां र॑यी॒णामु॒भा वाज॑स्य सा॒तये॑ हुवे वाम्॥ - ऋ. ६.६०.१३

*ताम॑ग्ने अ॒स्मे इष॒मेर॑यस्व॒ वैश्वा॑नर द्यु॒मतीं॑ जातवेदः। यया॒ राधः॒ पिन्व॑सि विश्ववार पृ॒थु श्रवो॑ दा॒शुषे॒ मर्त्या॑य॥ - ऋ. ७.५.८

*स यो॑जते अरु॒षा वि॒श्वभो॑जसा॒ स दु॑द्रव॒त्स्वा॑हुतः। सु॒ब्रह्मा॑ य॒ज्ञः सु॒शमी॒ वसू॑नां दे॒वं राधो॒ जना॑नाम्॥ - ऋ. ७.१६.२

*नू चि॒न्नु ते॒ मन्य॑मानस्य द॒स्मोद॑श्नुवन्ति महि॒मान॑मुग्र। न वी॒र्य॑मिन्द्र ते॒ न राधः॑॥ - ऋ. ७.२२.८

*ते त्वा॒ मदा॑ इन्द्र मादयन्तु शु॒ष्मिणं॑ तुवि॒राध॑सं जरि॒त्रे। एको॑ देव॒त्रा दय॑से॒ हि मर्ता॑न॒स्मिञ्छू॑र॒ सव॑ने मादयस्व॥ - ऋ. ७.२३.५

*य इ॑न्द्र॒ शुष्मो॑ मघवन्ते॒ अस्ति॒ शिक्षा॒ सखि॑भ्यः पुरुहूत॒ नृभ्यः॑। त्वं हि दृ॒ळ्हा म॑घव॒न्विचे॑ता॒ अपा॑ वृधि॒ परि॑वृतं॒ न राधः॑॥ - ऋ. ७.२७.२

*इन्द्रो॒ राजा॒ जग॑तश्चर्षणी॒नामधि॒ क्षमि॒ विषु॑रूपं॒ यदस्ति॑। ततो॑ ददाति दा॒शुषे॒ वसू॑नि॒ चोद॒द्राध॒ उप॑स्तुतश्चिद॒र्वाक्॥ - ऋ. ७.२७.३

*वो॒चेमेदिन्द्रं॑ म॒घवा॑नमेनं म॒हो रा॒यो राध॑सो॒ यद्दद॑न्नः। यो अर्च॑तो॒ ब्रह्म॑कृति॒मवि॑ष्ठो यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः॥ - ऋ. ७.२८.५, ७.२९.५, ७.३०.५

*शंसेदु॒क्थं सु॒दान॑व उ॒त द्यु॒क्षं यथा॒ नरः॑। च॒कृ॒मा स॒त्यरा॑धसे॥ - ऋ. ७.३१.२

*भग॒ प्रणे॑त॒र्भग॒ सत्य॑राधो॒ भगे॒मां धिय॒मुद॑वा॒ दद॑न्नः। भग॒ प्र णो॑ जनय॒ गोभि॒रश्वै॒र्भग॒ प्र नृभि॑र्नृ॒वन्तः॑ स्याम॥ - ऋ. ७.४१.३

*न॒हि व॑ ऊ॒तिः पृत॑नासु॒ मर्ध॑ति॒ यस्मा॒ अरा॑ध्वं नरः। अ॒भि व॒ आव॑र्त्सुम॒तिर्नवी॑यसी॒ तूयं॑ यात पिपीषवः॥(दे. मरुतः) - ऋ. ७.५९.४

*ओ षु घृ॑ष्विराधसो या॒तनान्धां॑सि पी॒तये॑। इ॒मा वो॑ ह॒व्या म॑रुतो र॒रे हि कं॒ मो ष्व१॒॑न्यत्र॑ गन्तन॥ - ऋ. ७.५९.५

घृष्वि परस्परघृष्टानि सुसंहतानि सायण। डा. फतहसिंह वैदिक ऋचाओं में प्रकट ओषु व मोषु पर ध्यान आकृष्ट करते थे। उनका कहना था कि यह ओम के रूप हैं।

*ए॒षा ने॒त्री राध॑सः सू॒नृता॑नामु॒षा उ॒च्छन्ती॑ रिभ्यते॒ वसि॑ष्ठैः। दी॒र्घ॒श्रुतं॑ र॒यिम॒स्मे दधा॑ना यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः॥ - ऋ. ७.७६.७

*अन्ति॑वामा दूरे अ॒मित्र॑मुच्छो॒र्वीं गव्यू॑ति॒मभ॑यं कृधी नः। या॒वय॒ द्वेष॒ आ भ॑रा॒ वसू॑नि चो॒दय॒ राधो॑ गृण॒ते म॑घोनि॥ - ऋ. ७.७७.४

*अ॒स्मे श्रेष्ठे॑भिर्भा॒नुभि॒र्वि भा॒ह्युषो॑ देवि प्रति॒रन्ती॑ न॒ आयुः॑। इषं॑ च नो॒ दध॑ती विश्ववारे॒ गोम॒दश्वा॑व॒द्रथ॑वच्च॒ राधः॑॥ - ऋ. ७.७७.५

*ताव॑दुषो॒ राधो॑ अ॒स्मभ्यं॑ रास्व॒ याव॑त्स्तो॒तृभ्यो॒ अर॑दो गृणा॒ना। यां त्वा॑ ज॒ज्ञुर्वृ॑ष॒भस्या॒ रवे॑ण॒ वि दृ॒ळ्हस्य॒ दुरो॒ अद्रे॑रौर्णोः॥ - ऋ. ७.७९.४

*दे॒वंदे॑वं॒ राध॑से चो॒दय॑न्त्यस्म॒द्र्य॑क्सू॒नृता॑ ई॒रय॑न्ती। व्यु॒च्छन्ती॑ नः स॒नये॒ धियो॑ धा यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः॥ - ऋ. ७.७९.५

*तच्चि॒त्रं राध॒ आ भ॒रोषो॒ यद्दी॑र्घ॒श्रुत्त॑मम्। यत्ते॑ दिवो दुहितर्मर्त॒भोज॑नं॒ तद्रा॑स्व भु॒नजा॑महै॥ ऋ. ७.८१.५

*प्र याभि॒र्यासि॑ दा॒श्वांस॒मच्छा॑ नि॒युद्भि॑र्वायवि॒ष्टये॑ दुरो॒णे। नि नो॑ र॒यिं सु॒भोज॑सं युवस्व॒ नि वी॒रं गव्य॒मश्व्यं॑ च॒ राधः॑॥ - ऋ. ७.९२.३

*उ॒भे यत्ते॑ महि॒ना शु॑भ्रे॒ अन्ध॑सी अधिक्षि॒यन्ति॑ पू॒रवः॑। सा नो॑ बोध्यवि॒त्री म॒रुत्स॑खा॒ चोद॒ राधो॑ म॒घोना॑म्॥ - ऋ. ७.९६.२

*वस्याँ॑ इन्द्रासि मे पि॒तुरु॒त भ्रातु॒रभु॑ञ्जतः। मा॒ता च॑ मे छदयथः स॒मा व॑सो वसुत्व॒नाय॒ राध॑से॥ - ऋ. ८.१.६

*अम॑न्म॒हीद॑ना॒शवो॑ऽनु॒ग्रास॑श्च वृत्रहन्। स॒कृत्सु ते॑ मह॒ता शू॑र॒ राध॒सानु॒ स्तोमं॑ मुदीमहि॥ - ऋ. ८.१.१४

*एन्द्र॑ याहि॒ मत्स्व॑ चि॒त्रेण॑ देव॒ राध॑सा। सरो॒ न प्रा॑स्यु॒दरं॒ सपी॑तिभि॒रा सोमे॑भिरु॒रु स्फि॒रम्॥ - ऋ. ८.१.२३

*स्तुत॑श्च॒ यास्त्वा॒ वर्ध॑न्ति म॒हे राध॑से नृ॒म्णाय॑। इन्द्र॑ का॒रिणं॑ वृ॒धन्तः॑॥ - ऋ. ८.२.२९

*मन्द॑न्तु त्वा मघवन्नि॒न्द्रेन्द॑वो राधो॒देया॑य सुन्व॒ते। आ॒मुष्या॒ सोम॑मपिबश्च॒मू सु॒तं ज्येष्ठं॒ तद्द॑धिषे॒ सहः॑॥ - ऋ. ८.४.४

*स्थूरं राधः शताश्वं कुरुङ्गस्य दिविष्टिषु। राज्ञस्त्वेषस्य सुभगस्य रातिषु तुर्वशेष्वमन्महि॥ - ऋ. ८.४.१९

*श॒तम॒हं ति॒रिन्दि॑रे स॒हस्रं॒ पर्शा॒वा द॑दे। राधां॑सि॒ याद्वा॑नाम्॥ - ऋ. ८.६.४६

*आ नो॒ विश्वा॑न्यश्विना ध॒त्तं राधां॒स्यह्र॑या। कृ॒तं न॑ ऋ॒त्विया॑वतो॒ मा नो॑ रीरधतं नि॒दे॥ - ऋ. ८.८.१३

*स॒मत्स्व॒ग्निमव॑से वाज॒यन्तो॑ हवामहे। वाजे॑षु चि॒त्ररा॑धसम्॥ - ऋ. ८.११.९

*न ते॑ व॒र्तास्ति राध॑स॒ इन्द्र॑ दे॒वो न मर्त्यः॑। यद्दित्स॑सि स्तु॒तो म॒घम्॥ - ऋ. ८.१४.४

*इन्द्र॒मित् के॒शिना॒ हरी॑ सोम॒पेया॑य वक्षतः। उप॑ य॒ज्ञं सु॒राध॑सम्॥ - ऋ. ८.१४.१२

*मा ते॑ गोदत्र॒ निर॑राम॒ राध॑स॒ इन्द्र॒ मा ते॑ गृहामहि। दृ॒ळ्हा चि॑द॒र्यः प्र मृ॑शा॒भ्या भ॑र॒ न ते॑ दा॒मान॑ आ॒दभे॑॥ - ऋ. ८.२१.१६

*व॒यं ते॑ अ॒स्य वृ॑त्रहन्वि॒द्याम॑ शूर॒ नव्य॑सः। वसोः॑ स्पा॒र्हस्य॑ पुरुहूत॒ राध॑सः॥ - ऋ. ८.२४.८

*आ वृ॑षस्व महामह म॒हे नृ॑तम॒ राध॑से। दृ॒ळ्हश्चि॑द्दृह्य मघवन्म॒घत्त॑ये॥ - ऋ. ८.२४.१०

*न॒ह्य१॒॑ङ्ग नृ॑तो॒ त्वद॒न्यं वि॒न्दामि॒ राध॑से। रा॒ये द्यु॒म्नाय॒ शव॑से च गिर्वणः॥ - ऋ. ८.२४.१२

*एन्दु॒मिन्द्रा॑य सिञ्चत॒ पिबा॑ति सो॒म्यं मधु॑। प्र राध॑सा चोदयाते महित्व॒ना॥ - ऋ. ८.२४.१३

*यस्यामि॑तानि वीर्या॒३॒॑ न राधः॒ पर्ये॑तवे। ज्योति॒र्न विश्व॑म॒भ्यस्ति॒ दक्षि॑णा॥ - ऋ. ८.२४.२१

*आ ना॒र्यस्य॒ दक्षि॑णा॒ व्य॑श्वाँ एतु सो॒मिनः॑। स्थू॒रं च॒ राधः॑ श॒तव॑त्स॒हस्र॑वत्॥ - ऋ. ८.२४.२९

*इ॒ह त्वा॒ गोप॑रीणसा म॒हे म॑न्दन्तु॒ राध॑से। सरो॑ गौ॒रो यथा॑ पिब॥ऋ. ८.४५.२४

*न॒हि ते॑ शूर॒ राध॒सोऽन्तं॑ वि॒न्दामि॑ स॒त्रा। द॒श॒स्या नो॑ मघव॒न्नू चि॑दद्रिवो॒ धियो॒ वाजे॑भिराविथ॥ - ऋ. ८.४६.११

*दाना॑सः पृथु॒श्रव॑सः कानी॒तस्य॑ सु॒राध॑सः। रथं॑ हिर॒ण्ययं॒ दद॒न्मंहि॑ष्ठः सू॒रिर॑भू॒द्वर्षि॑ष्ठमकृत॒ श्रवः॑॥ - ऋ. ८.४६.२४

*न तं ति॒ग्मं च॒न त्यजो॒ न द्रा॑सद॒भि तं गु॒रु। यस्मा॑ उ॒ शर्म॑ स॒प्रथ॒ आदि॑त्यासो॒ अरा॑ध्वमने॒हसो॑ व ऊ॒तयः॑ सुऊ॒तयो॑ व ऊ॒तयः॑॥ - ऋ. ८.४७.७

*अ॒भि प्र वः॑ सु॒राध॑स॒मिन्द्र॑मर्च॒ यथा॑ वि॒दे। यो ज॑रि॒तृभ्यो॑ म॒घवा॑ पुरू॒वसुः॑ स॒हस्रे॑णेव॒ शिक्ष॑ति॥ - ऋ. ८.४९.१

*आ त्वा॑ सु॒तास॒ इन्द॑वो॒ मदा॒ य इ॑न्द्र गिर्वणः। आपो॒ न व॑ज्रि॒न्नन्वो॒क्यं१॒॑ सरः॑ पृ॒णन्ति॑ शूर॒ राध॑से॥ - ऋ. ८.४९.३

*प्र सु श्रु॒तं सु॒राध॑स॒मर्चा॑ श॒क्रम॒भिष्ट॑ये। यः सु॑न्व॒ते स्तु॑व॒ते काम्यं॒ वसु॑ स॒हस्रे॑णेव॒ मंह॑ते॥ - ऋ. ८.५०.१

*प्र वी॒रमु॒ग्रं विवि॑चिं धन॒स्पृतं॒ विभू॑तिं॒ राध॑सो म॒हः। उ॒द्रीव॑ वज्रिन्नव॒तो व॑सुत्व॒ना सदा॑ पीपेथ दा॒शुषे॑॥ - ऋ. ८.५०.६

*यदि॑न्द्र॒ राधो॒ अस्ति॑ ते॒ माघो॑नं मघवत्तम। तेन॑ नो बोधि सध॒माद्यो॑ वृ॒धे भगो॑ दा॒नाय॑ वृत्रहन्॥ - ऋ. ८.५४.५

*व॒यं त॑ इन्द्र॒ स्तोमे॑भिर्विधेम॒ त्वम॒स्माकं॑ शतक्रतो। महि॑ स्थू॒रं श॑श॒यं राधो॒ अह्र॑यं॒ प्रस्क॑ण्वाय॒ नि तो॑शय॥ - ऋ. ८.५४.८

*भूरीदिन्द्र॑स्य वी॒र्यं१॒ व्यख्य॑म॒भ्याय॑ति। राध॑स्ते दस्यवे वृक॥ - ऋ. ८,५५,१

*प्रति॑ ते दस्यवे वृक॒ राधो॑ अद॒र्श्यह्र॑यम्। द्यौर्न प्र॑थि॒ना शवः॑॥ - ऋ. ८.५६.१

*त्वं हि रा॑धस्पते॒ राध॑सो म॒हः क्षय॒स्यासि॑ विध॒तः। तं त्वा॑ व॒यं म॑घवन्निन्द्र गिर्वणः सु॒ताव॑न्तो हवामहे॥ - ऋ. ८.६१.१४

*उत्त्वा॑ मन्दन्तु॒ स्तोमाः॑ कृणु॒ष्व राधो॑ अद्रिवः। अव॑ ब्रह्म॒द्विषो॑ जहि॥ - ऋ. ८.६४.१

*प॒दा प॒णीँर॑रा॒धसो॒ नि बा॑धस्व म॒हाँ अ॑सि। न॒हि त्वा॒ कश्च॒न प्रति॑॥ - ऋ. ८.६४.२

*तम॒द्य राध॑से म॒हे चारुं॒ मदाय॒ घृष्वये। एहीमिन्द्र॒ द्रवा॒ पिब॥ - ऋ. ८.६४.१२

*नपा॑तो दु॒र्गह॑स्य मे स॒हस्रे॑ण सु॒राध॑सः। श्रवो॑ दे॒वेष्व॑क्रत॥ - ऋ. ८.६५.१२

*प॒रोमा॑त्र॒मृची॑षम॒मिन्द्र॑मु॒ग्रं सु॒राध॑सम्। ईशा॑नं चि॒द्वसू॑नाम्॥ - ऋ. ८.६८.६

*तंत॒मिद्राध॑से म॒ह इन्द्रं॑ चोदामि पी॒तये॑। यः पू॒र्व्यामनु॑ष्टुति॒मीशे॑ कृष्टी॒नां नृ॒तुः॥ - ऋ. ८.६८.७

*उदू॒ षु णो॑ वसो म॒हे मृ॒शस्व॑ शूर॒ राध॑से। उदू॒ षु म॒ह्यै म॑घवन्म॒घत्त॑य॒ उदि॑न्द्र॒ श्रव॑से म॒हे॥ - ऋ. ८.७०.९

*सखा॑यः॒ क्रतु॑मिच्छत क॒था रा॑धाम श॒रस्य॑। उप॑स्तुतिं भो॒ज सू॒रिर्यो अह्र॑यः॥ - ऋ. ८.७०.१३

*अवी॑वृधद्वो अमृता॒ अम॑न्दीदेक॒द्यूर्दे॑वा उ॒त याश्च॑ देवीः। तस्मा॑ उ॒ राधः॑ कृणुत प्रश॒स्तं प्रा॒तर्म॒क्षू धि॒याव॑सुर्जगम्यात्॥ -ऋ. ८.८०.१०

*एतो॒ न्विन्द्रं॒ स्तवा॒मेशा॑नं॒ वस्वः॑ स्व॒राज॑म्। न राध॑सा मर्धिषन्नः॥ - ऋ. ८.८१.४

*प्र स्तो॑ष॒दुप॑ गासिष॒च्छ्रव॒त्साम॑ गी॒यमा॑नम्। अ॒भि राध॑सा जुगुरत्॥ ऋ. ८.८१.५

*त्वं दा॒ता प्र॑थ॒मो राध॑साम॒स्यसि॑ स॒त्य ई॑शान॒कृत्। तु॒वि॒द्यु॒म्नस्य॒ युज्या वृ॑णीमहे पु॒त्रस्य॒ शव॑सो म॒हः॥ - ऋ. ८.९०.२

*तमु॑ त्वा नू॒नम॑सुर॒ प्रचे॑तसं॒ राधो॑ भा॒गमि॑वेमहे। म॒हीव॒ कृत्तिः॑ शर॒णा त॑ इन्द्र॒ प्र ते॑ सु॒म्ना नो॑ अश्नवन्॥ - ऋ. ८.९०.६

*ए॒वा ह्यसि॑ वीर॒युरे॒वा शूर॑ उ॒त स्थि॒रः। ए॒वा ते॒ राध्यं॒ मनः॑॥ - ऋ. ८.९२.२८

यज्ञों के संदर्भ में व्याख्या

*श्रु॒तं वो॑ वृत्र॒हन्त॑मं॒ प्र शर्धं॑ चर्षणी॒नाम्। आ शु॑षे॒ राध॑से म॒हे॥ - ऋ. ८.९३.१६

*स नः॒ सोमे॑षु सोमपाः सु॒तेषु॑ शवसस्पते। मा॒दय॑स्व॒ राध॑सा सू॒नृता॑व॒तेन्द्र॑ रा॒या परी॑णसा॥ - ऋ. ८.९७.६

*अश्वं॒ न गी॒र्भी र॒थ्यं॑ सु॒दान॑वो मर्मृ॒ज्यन्ते॑ देव॒यवः॑। उ॒भे तो॒के तन॑ये दस्म विश्पते॒ पर्षि॒ राधो॑ म॒घोना॑म्॥ - ऋ. ८.१०३.७

पर्षि प्रयच्छ सायण; सामान्य अर्थ स्पर्श(मन रे परसि हरि के चरन)

*व॒रि॒वो॒धात॑मो भव॒ मंहि॑ष्ठो वृत्र॒हन्त॑मः। पर्षि॒ राधो॑ म॒घोना॑म्॥ - ऋ. ९.१.३

*इन्द्र॑स्य सोम॒ राध॑से पुना॒नो हार्दि॑ चोदय। ऋ॒तस्य॒ योनि॑मा॒सद॑म्॥ - ऋ. ९.८.३

*स प॑वस्व धनंजय प्रय॒न्ता राध॑सो म॒हः। अ॒स्मभ्यं॑ सोम गातु॒वित्॥ - ऋ. ९.४६.५

*इन्द्र॑स्य सोम॒ राध॑से॒ शं प॑वस्व विचर्षणे। प्र॒जाव॒द्रेत॒ आ भ॑र॥ - ऋ. ९.६०.४

*न त्वा॑ श॒तं च॒न ह्रुतो॒ राधो॒ दित्स॑न्त॒मा मि॑नन्। यत्पु॑ना॒नो मख॒स्यसे॑॥ - ऋ. ९.६१.२७

*इन्द्रा॒येन्दुं॑ पुनीतनो॒ग्रं दक्षा॑य॒ साध॑नम्। ई॒शा॒नं वी॒तिरा॑धसम्॥ - ऋ. ९.६२.२९

वीतिराधसं दत्तधनं - सायण

*आ नः॑ सोम॒ पव॑मानः किरा॒ वस्विन्दो॒ भव॑ म॒घवा॒ राध॑सो म॒हः। शिक्षा॑ वयोधो॒ वस॑वे॒ सु चे॒तुना॒ मा नो॒ गय॑मा॒रे अ॒स्मत्परा॑ सिचः॥ - ऋ. ९.८१.३

*स्तो॒त्रे रा॒ये हरि॑रर्षा पुना॒न इन्द्रं॒ मदो॑ गच्छतु ते॒ भरा॑य। दे॒वैर्या॑हि स॒रथं॒ राधो॒ अच्छा॑ यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः॥ - ऋ. ९.९७.६

*मत्सि॑ वा॒युमि॒ष्टये॒ राध॑से च॒ मत्सि॑ मित्रा॒वरु॑णा पू॒यमा॑नः। मत्सि॒ शर्धो॒ मारु॑तं॒ मत्सि॑ दे॒वान्मत्सि॒ द्यावा॑पृथि॒वी दे॑व सोम॥ - ऋ. ९.९७.४२

*प्र सु॑न्वा॒नस्यान्ध॑सो॒ मर्तो॒ न वृ॑त॒ तद्वचः॑। अप॒ श्वान॑मरा॒धसं॑ ह॒ता म॒खं न भृग॑वः॥ - ऋ. ९.१०१.१३

यहां श्वान से अर्थ श्वः, भविष्य में निवास करने वाला लिया जा सकता है। वह अराधस है। ऋग्वेद ८.६४.२१०.६०.६ में पणियों को अराधस कहा गया है।

*इ॒मा अ॑ग्ने म॒तय॒स्तुभ्यं॑ जा॒ता गोभि॒रश्वै॑र॒भि गृ॑णन्ति॒ राधः॑। य॒दा ते॒ मर्तो॒ अनु॒ भोग॒मान॒ड्वसो॒ दधा॑नो म॒तिभिः॑ सुजातः॥ - ऋ. १०.७.२

*यस्ते॑ द्र॒प्सः स्क॒न्नो यस्ते॑ अं॒शुर॒वश्च॒ यः प॒रः स्रु॒चा। अ॒यं दे॒वो बृह॒स्पतिः॒ सं तं सि॑ञ्चतु॒ राध॑से॥ - ऋ. १०.१७.१३

तुलनीय तैत्तिरीय संहिता ४.२.७.३ में लोष्टक्षेपण। राधः का गुण धारण करना है, कोई भी गुण बाहर छिटकना नहीं चाहिए।

*त्वामु॒ ते स्वा॒भुवः॑ शु॒म्भन्त्यश्व॑राधसः। वेति॒ त्वामु॑प॒सेच॑नी॒ वि वो॒ मद॒ ऋजी॑तिरग्न॒ आहु॑ति॒र्विव॑क्षसे॥ - ऋ. १०.२१.२

*यजा॑मह॒ इन्द्रं॒ वज्र॑दक्षिणं॒ हरी॑णां र॒थ्यं१॒॑ विव्र॑तानाम्। प्र श्मश्रु॒ दोधु॑वदू॒र्ध्वथा॑ भू॒द्वि सेना॑भि॒र्दय॑मानो॒ वि राध॑सा॥ - ऋ. १०.२३.१

दयमानो - हिंसन्

*कस्ते॒ मद॑ इन्द्र॒ रन्त्यो॑ भू॒द्दुरो॒ गिरो॑ अ॒भ्यु१॒॑ग्रो वि धा॑व। कद्वाहो॑ अ॒र्वागुप॑ मा मनी॒षा आ त्वा॑ शक्यामुप॒मं राधो॒ अन्नैः॑॥ - ऋ. १०.२९.३

*आ मध्वो॑ अस्मा असिच॒न्नम॑त्र॒मिन्द्रा॑य पू॒र्णं स हि स॒त्यरा॑धाः। स वा॑वृधे॒ वरि॑म॒न्ना पृ॑थि॒व्या अ॒भि क्रत्वा॒ नर्यः॒ पौंस्यै॑श्च॥ - ऋ. १०.२९.७

*वी॑न्द्र यासि दि॒व्यानि॑ रोच॒ना वि पार्थि॑वानि॒ रज॑सा पुरुष्टुत। ये त्वा॒ वह॑न्ति मुहु॑रध्व॒राँ उप॒ ते सु व॑न्वन्तु वग्व॒नाँ अ॑रा॒धसः॑॥ - ऋ. १०.३२.२

*ए॒वा दे॒वाँ इन्द्रो॑ विव्ये॒ नॄन् प्र च्यौ॒त्नेन॑ म॒घवा॑ स॒त्यरा॑धाः। विश्वेत् ता ते॑ हरिवः शचीवो॒ ऽभि तु॒रासः॑ स्वयशो गृणन्ति॥ - ऋ. १०.४९.११

*अरा॑धि॒ होता॑ नि॒षदा॒ यजी॑यान॒भि प्रयां॑सि॒ सुधि॑तानि॒ हि ख्यत्। यजा॑महै य॒ज्ञिया॒न् हन्त॑ दे॒वाँ ईळा॑महा॒ ईड्याँ॒ आज्ये॑न॥ - ऋ. १०.५३.२

*अ॒गस्त्य॑स्य॒ नद्भ्यः॒ सप्ती॑ युनक्षि॒ रोहि॑ता। प॒णीन्न्य॑क्रमीर॒भि विश्वा॑न्राजन्नरा॒धसः॑॥ - ऋ. १०.६०.६

ऋग्वेद ९.१०१.१३ में श्वान को अराधस कहा गया है।

*म॒क्षू क॒नायाः॑ स॒ख्यं नवी॑यो॒ राधो॒ न रेत॑ ऋ॒तमित्तु॑रण्यन्। शुचि॒ यत्ते॒ रेक्ण॒ आय॑जन्त सब॒र्दुघा॑याः॒ पय॑ उ॒स्रिया॑याः॥ - ऋ. १०.६१.११

*को वः॒ स्तोमं॑ राधति॒ यं जुजो॑षथ॒ विश्वे॑ देवासो मनुषो॒ यति॒ ष्ठन॑। को वो॑ऽध्व॒रं तु॑विजाता॒ अरं॑ कर॒द्यो नः॒ पर्ष॒दत्यंहः॑ स्व॒स्तये॑॥ - ऋ. १०.६३.६

*तेषां॒ हि म॒ह्ना म॑ह॒ताम॑न॒र्वणां॒ स्तोमाँ॒ इय॑र्म्यृत॒ज्ञा ऋ॑ता॒वृधा॑म्। ये अ॑प्स॒वम॑र्ण॒वं चि॒त्ररा॑धस॒स्ते नो॑ रासन्तां म॒हये॑ सुमि॒त्र्याः॥(दे. विश्वेदेवाः) - ऋ. १०.६५.३

तैत्तिरीय संहिता १.२.३.२  में सविता को रास देने वाला कहा गया है। वैदिक निघण्टु में रसः, रासः शब्द का वर्गीकरण वाङ् नामों के अन्तर्गत तथा रासति का दानकर्मा के अन्तर्गत  किया गया है। पुराणों में राधा-कृष्ण के रास द्वारा वेदों की किस गुत्थी को सुलझाया गया है, यह अन्वेषणीय है।

*प्र यद्वह॑ध्वे मरुतः परा॒काद्यू॒यं म॒हः सं॒वर॑णस्य॒ वस्वः॑। वि॒दा॒नासो॑ वसवो॒ राध्य॑स्या॒राच्चि॒द्द्वेषः॑ सनु॒तर्यु॑योत॥ - ऋ. १०.७७.६

*त्वंत्व॑महर्यथा॒ उप॑स्तुतः॒ पूर्वे॑भिरिन्द्र हरिकेश॒ यज्व॑भिः। त्वं ह॑र्यसि॒ तव॒ विश्व॑मु॒क्थ्य१॒॑मसा॑मि॒ राधो॑ हरिजात हर्य॒तम्॥ - ऋ. १०.९६.५

*इ॒ष्क॒र्तार॑मध्व॒रस्य॒ प्रचे॑तसं॒ क्षय॑न्तं॒ राध॑सो म॒हः। रा॒तिं वा॒मस्य॑ सु॒भगां॑ म॒हीमिषं॒ दधा॑सि सान॒सिं र॒यिम्॥(दे. अग्निः) - ऋ. १०.१४०.५

*चि॒ते तद्वां सुराधसा रा॒तिः सु॑म॒तिर॑श्विना। आ यन्नः॒ सद॑ने पृ॒थौ सम॑ने॒ पर्ष॑थो नरा॥ - ऋ. १०.१४३.४

*अ॒स॒प॒त्ना स॑पत्न॒घ्नी जय॑न्त्यभि॒भूव॑री। आवृ॑क्षम॒न्यासां॒ वर्चो॒ राधो॒ अस्थे॑यसामिव॥(दे. शची) - ऋ. १०.१५९.५

*बर्हिराहरणम् देव॑बर्हि॒र्मा त्वा॒ऽन्वङ्मा ति॒र्यक्  पर्व॑ ते राध्यासमाच्छे॒त्ता ते मा रि॑षं॒ तै.सं. १.१.२.१

हे देवबर्हि, तेरी अन्वक् भी हिंसा न करूं, तिर्यक् भी हिंसा न करूं, तेरे पर्व का राध्यासन(पुनः प्ररोहस्थान जिस प्रकार से अविनष्ट रहे)करूं, तुझे काटने वाले पर तेरा प्रकोप न हो। - सायण

*देवयजनस्वीकारः विश्वे॑ दे॒वा अ॒भि मामाऽव॑वृत्रन् पू॒षा स॒न्या सोमो॒ राध॑सा दे॒वः स॑वि॒ता वसो॑र्वसु॒दावा॒ रास्वेय॑त् सो॒माऽऽभूयो॑ भर॒ मा पृ॒णन् पू॒र्त्या वि रा॑धि॒ माऽहमायु॑षा - - -(इति प्रबुद्धो जपेत्)- - तै.सं. १.२.३.२

ऋग्वेद १०.६५.३ में चित्रराधसों को रास देने वाला कहा गया है।

*सोमाभिषवः(अथ मित ँँ राजान ँ होतृचमसीयाभिरुपसृजति। हे आपः, यूयं) श्वा॒त्राः स्थ॑ वृत्र॒तुरो॒ राधो॑गूर्ता अ॒मृत॑स्य॒ पत्नी॒स्ता दे॑वीर्देव॒त्रेमं य॒ज्ञं ध॒त्तोप॑हूताः॒ सोम॑स्य पिब॒तोप॑हूतो यु॒ष्माक ँ सोमः॑ पिबतु॒ तै.सं. १.४.१.१

राधोगूर्ताः राधः सम्पादयितुं उद्यताः - सायण

*दक्षिणा निनयन मन्त्रः ए॒तत् ते॑ अग्ने राध॒ ऐति॒ सोम॑च्युतं॒ तन्मि॒त्रस्य॑ प॒था न॑य॒र्तस्य॑ प॒था प्रेत॑ च॒न्द्रद॑क्षिणा य॒ज्ञस्य॑ प॒था सु॑वि॒ता नय॑न्तीर् ब्राह्म॒णम॒द्य रा॑ध्यास॒मृषि॑मार्षे॒यं पि॑तृ॒मन्तं॑ पैतृम॒त्य ँ सु॒धातु॑दक्षिणं॒ तै.सं. १.४.४३.२, ६.६.१.२

*आहवनीयोपस्थानम् -- उ॒भा वा॑मिन्द्राग्नी आहु॒वध्या॑ उ॒भा राध॑सः स॒ह मा॑द॒यध्यै॑। उ॒भा दा॒तारा॑वि॒षा ँ र॑यी॒णामु॒भा वाज॑स्य सा॒तये॑ हुवे वाम्। - तै.सं. १.५.५.१, १.१.१४.१

*सूर्योपस्थानादिमन्त्राः (अथाऽऽहवनीये समिधमादधाति) अग्ने॑ व्रतपते व्र॒तम॑चारिषं॒ तद॑शकं॒ तन्मे॑ऽराधि य॒ज्ञो ब॑भूव॒ स आ ब॑भूव॒ स प्र ज॑ज्ञे॒ स वा॑वृधे। - तै.सं. १.६.६.३

*पय॑स्वती॒रोष॑धयः पय॑स्वद्वी॒रुधां॒ पयः॑। अ॒पां पय॑सो॒ यत् पय॒स्तेन॒ मामि॑न्द्र॒ स ँ सृ॑ज। अग्ने॑ व्रतपते व्र॒तं च॑रिष्यामि॒ तच्छ॑केयं॒ तन्मे॑ राध्यताम् (इति अप आचामत्युपस्पृशति वा) तै.सं. १.५.१०.२

*प्र याभि॒र्यासि॑ दा॒श्वा ँस॒मच्छा॑ नि॒युद्भि॑र्वायवि॒ष्टये॑ दुरो॒णे। नि नो॑ र॒यि ँ सु॒भोज॑सं युवे॒ह नि वी॒रव॒द्गव्य॒मश्वि॑यं च॒ राधः॑॥ - तै.सं. २.२.१२.८

ऋग्वेद में राधः के गो-अश्व रूप का उल्लेख

*इडाप्राशित्रभक्षौ दे॒वा वै य॒ज्ञाद्रु॒द्रम॒न्तरा॑य॒न्त्स य॒ज्ञम॑विध्य॒त् तं दे॒वा अ॒भि सम॑गच्छन्त॒ कल्प॑तां न इ॒दमिति॒ ते॑ऽब्रुव॒न्त्स्वि॑ष्टं॒ वै न॑ इ॒दं भ॑विष्यति॒ यदि॒म ँ रा॑धयि॒ष्याम॒ इति॒ तत्स्वि॑ष्ट॒कृतः॑ स्विष्टकृ॒त्त्वं तै.सं. २.६.८.३

*लोष्टक्षेपादिकम् नि॒ष्क॒र्तार॑मध्व॒रस्य॒ प्रचे॑तसं॒ क्षय॑न्त॒ ँ राध॑से म॒हे। रा॒तिं भृगू॑णामु॒शिजं॑ क॒विक्र॑तुं पृ॒णक्षि॑ सान॒सि ँ र॒यिम्॥ - तै.सं. ४.२.७.३

(कर्षित क्षेत्र के बाहर पडे हुए लोष्टों का क्षेत्र के अन्दर प्रक्षेपण)। तुलनीय ऋग्वेद १०.७०.१३ में स्कन्न द्रप्स।

*छन्द इष्टकाः स यो॑जते अरु॒षो वि॒श्वभो॑जसा॒ स दु॑द्रव॒त् स्वा॑हुतः। सु॒ब्रह्मा॑ य॒ज्ञः सु॒शमी॒ वसू॑नां दे॒व ँ राधो॒ जना॑नाम्॥ - तै.सं. ४.४.४.४

स दुद्रवत् सः अग्निः राधः द्रावयतु - सायण

*उखायां अग्निचयनम् तस्मा॑दाहुस्त्रि॒वृद॒ग्निरिति॒ तं वा ए॒तं यज॑मान ए॒व चि॑न्वीत॒ यद॑स्या॒न्यश्चि॑नु॒याद्यत्तं दक्षि॒णाभि॒र्न रा॒धये॑द॒ग्निम॑स्य वृञ्जीत॒ योऽस्या॒ऽग्निं चि॑नु॒यात्तं दक्षि॑णाभी राधयेदग्निमे॒व तत्स्पृ॑णोति तै.सं. ५.६.९.३

*संवत्सरदीक्षाकालः तेषा॑म् पू॒र्व॒प॒क्षे सु॒त्या सं प॑द्यते पूर्वप॒क्षं मासा॑ अ॒भि सं प॑द्यन्ते॒ ते पू॑र्वप॒क्ष उत्ति॑ष्ठन्ति॒ तानु॒त्तिष्ठ॑त ओष॑धयो॒ वन॒स्पत॒योऽनूत्ति॑ष्ठन्ति॒ तान्क॑ल्या॒णी की॒र्तिरनूत्ति॑ष्ठ॒त्यरा॑त्सुरि॒मे यज॑माना॒ इति॒ तदनु॒ सर्वे॑ राध्नुवन्ति। - तै.सं. ७.४.८.३

*उप॑हूतो वा॒चस्पति॒रुपा॒स्मान् वा॒चस्पति॑र्ह्वयताम्। सं श्रु॒तेन॑ गमेमहि॒ मा श्रु॒तेन॒ वि रा॑धिषि॥ - शौ.अ. १.१.४

विराध का क्या अर्थ हो सकता है, इसका संकेत हमें तैत्तिरीय संहिता १.२.३.२ से मिलता है जहां सोम के पूर्त द्वारा विराध करने का निर्देश है। साहित्य में २ शब्द साथ-साथ आते हैं इष्ट और पूर्त। पुराणों का कथन है कि इष्ट से तात्पर्य अमर्त्य स्तर से तथा पूर्त से तात्पर्य मर्त्य स्तर पर भरण से है(द्र. इष्टापूर्त पर टिप्पणी)। अतः अथर्ववेद का यह मन्त्र यह कहता प्रतीत हो रहा है कि श्रुत का उपयोग हम पूर्त में, मर्त्य स्तर को पुष्ट बनाने में न करें।  

*भूमि॑ष्ट्वा॒ प्रति॑ गृह्णात्व॒न्तरि॑क्षमि॒दं म॒हत्। माहं प्रा॒णेन॒ मात्मना॒ मा प्र॒जया॑ प्रति॒गृह्य॒ वि रा॑धिषि॥ - शौ.अ. ३.२९.८

यह पूरा सूक्त इष्टापूर्त से सम्बन्धित है। इसमें लगता है कि यज्ञ से प्राप्त दक्षिणा(प्रतिग्रह) के विषय में कहा जा रहा है।

*अजी॑जनो॒ हि व॑रुण स्वधाव॒न्नथ॑र्वाणं पि॒तरं दे॒वब॑न्धुम्। तस्मा॑ उ॒ राधः॑ कृणुहि सुप्रश॒स्तं सखा॑ नो असि पर॒मं च बन्धुः॑॥ - शौ.अ. ५.११.११

*या वि॒श्पत्नीन्द्र॒मसि॑ प्र॒तीची॑ स॒हस्र॑स्तुकामि॒यन्ती॑ दे॒वी। विष्णोः॑ पत्नि॒ तुभ्यं॑ रा॒ता ह॒वींषि॒ पतिं॑ देवि॒ राध॑से चोदयस्व॥(दे. सिनीवाली) - शौ.अ. ७.४८.३

*आर्ति॒रव॑र्ति॒र्निर्ऋ॑तिः॒ कुतो॒ नु पुरु॒षेऽम॑तिः। राद्धिः॒ समृ॑द्धि॒रव्यृ॑द्धिर्म॒तिरुदि॑तयः॒ कुतः॑॥ - शौ.अ. १०.२.१०

*गृहा॒ण ग्रावा॑णौ स॒कृतौ॑ वीर॒ हस्त॒ आ ते॑ दे॒वा य॒ज्ञिया॑ य॒ज्ञम॑गुः। त्रयो॒ वरा॑ यत॒मांस्त्वं वृ॑णी॒षे तास्ते॒ समृ॑द्धीरि॒ह रा॑धयामि॥ - शौ.अ. ११.१.१०

*तत॑श्चैनम॒न्येनोर॑सा॒ प्राशी॒र्येन॑ चै॒तं पूर्व॒ ऋष॑यः॒ प्राश्न॑न्। कृ॒ष्या न रा॑त्स्य॒सीत्ये॑नमाह। तं वा अ॒हं नार्वाञ्चं॒ न परा॑ञ्चं॒ न प्र॒त्यञ्च॑म्। पृ॒थि॒व्योर॑सा। तेनै॑नं॒ प्राशि॑षं॒ तेनै॑नमजीगमम्। ए॒ष वा ओ॑द॒नः सर्वा॑ङ्गः॒ सर्व॑परुः॒ सर्व॑तनूः। - शौ.अ. ११.४.१०

*राद्धिः॒ प्राप्तिः॒ समा॑प्ति॒र्व्याप्ति॒र्मह॑ एध॒तुः। अत्या॑प्ति॒रुच्छि॑ष्टे॒ भूति॒श्चाहि॑ता॒ निहि॑ता हि॒ता॥ - शौ.अ. ११.९.२२

*अ॒सं॒बा॒धं ब॑ध्य॒तो मा॑न॒वानां॒ यस्या॑ उ॒द्वतः॑ प्र॒वतः॑ स॒मं ब॒हु। नाना॑वीर्या॒ ओष॑धी॒र्या बिभ॑र्ति पृथि॒वी नः॑ प्रथतां॒ राध्य॑तां नः॥ - शौनकीय अथर्ववेद १२.१.२

*भुगि॑त्य॒भिग॑तः॒ शलि॑त्य॒पक्रा॑न्तः॒ फलि॑त्य॒भिष्ठि॑तः। दु॒न्दुभि॑माहनना॒भ्यां जरितरोथा॑मो दै॒व॥ - शौ.अ. २०.१३५.१

*को॒श॒बिले॑ रजनि॒ ग्रन्थे॑र्धा॒नमु॒पानहि॑ पा॒दम्। उत्त॑मां॒ जनि॑मां ज॒न्यानुत्त॑मां॒ जनी॒न् वर्त्म॑न्यात्॥ २

*अला॑बूनि पृ॒षात॑का॒न्यश्व॑त्थ॒पला॑शम्। पिपी॑लिका॒वट॒श्वसो॑ वि॒द्युत्स्वाप॑र्णश॒फो गोश॒फो जरित॒रोथामो॑ दै॒व॥३

*वीमे दे॒वा अ॑क्रंस॒ताध्व॒र्यो क्षि॒प्रं प्र॒चर॑। सु॒स॒त्यमिद् गवा॑म॒स्यसि॑ प्रखु॒दसि॑॥४

*प॒त्नी यदृ॑श्यते प॒त्नी यक्ष्य॑माणा जरित॒रोथामो॑ दै॒व। हो॒ता वि॑ष्टीमे॒न ज॑रित॒रोथामो॑ दै॒व॥ ५

*आदि॑त्या रु॒द्रा वस॑व॒स्त्वेनु॑ त इ॒दं राधः॒ प्रति॑ गृभ्णीह्यङ्गिरः। इ॒दं राधो॑ वि॒भु प्रभु॑ इ॒दं राधो॑ बृ॒हत्पृथु॑॥ देवा॑ दद॒त्वासु॑रं॒ तद्वो॑ अस्तु॒ सुचे॑तनम्। युष्माँ॑ अस्तु॒ दिवे॑दिवे प्र॒त्येव॑ गृभायत॥ - शौ.अ. २०.१३५.९

अथर्ववेद २०.१३५ सूक्त में एक से लेकर ५ मन्त्रों की संज्ञा प्रतिराध: है और उसके पश्चात् ६ से लेकर १० मन्त्रों की संज्ञा देवानीथ है । देवानीथ की विवेचना ऐतरेय ब्राह्मण ६.३५ में उपलब्ध है । देवानीथ आख्यान के अनुसार अङ्गिराओं ने, जिनका यज्ञ श्व:/कल पर आधारित है, आदित्यों के अद्य - आधारित यज्ञ में जाना स्वीकार कर लिया । आदित्यों ने अङ्गिराओं को (गौ रूपा पृथिवी की) दक्षिणा देनी चाही लेकिन अङ्गिराओं ने उस दक्षिणा को घोर या अशान्त प्रकृति का पाया । तब उन्होंने उस दक्षिणा को वापस कर शान्त प्रकृति की दक्षिणा को प्राप्त किया । इस शान्त प्रकृति की दक्षिणा को देवानीथ मन्त्रों में राध: नाम दिया गया है और अङ्गिराओं से कहा जा रहा है कि यह राध: विभु है, प्रभु है, बृहत् है, पृथु है । इसे आप ग्रहण करे ।

 

*दर्शपूर्णमासः। व्रतोपायनम् सोऽग्निमेवाभीक्षमाणो व्रतमुपैति अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम् इति। - - - अथ संस्थिते विसृजते अग्ने व्रतमचारिषं तदशकं तन्मेऽराधि इति। - श.ब्रा. १.१.१.२

*सामिधेन्यनुवचनम् एष एव प्रजापतिः सप्तदशः। सर्वं वै प्रजापतिः। तत्सर्वेणैव तं काममनपराधं राध्नोति यस्मै कामायेष्टिं निर्वपति। - शतपथ ब्राह्मण १.३.५.१०

सप्तदश का अर्थ वषट्कार से होता है जिसके ५ अवयव होते हैं आ/ओ श्रावय, अस्तु श्रौषट्, ये यजामहे, यज, वौषट्। यह कुल मिलकर १७ अक्षर बनते हैं जो वैदिक सृष्टि का मूल है। आ श्रावय के उच्चारण से पुरोवात उत्पन्न होती है, अस्तु श्रौषट् से अभ्र उत्पन्न होते हैं, ये यजामहे से स्तयित्नु/बादलों की गर्जन, यज से विद्युत और वौषट् से वर्षा। वौषट् के संदर्भ में कहा गया है असौ वै वौ, ऋतवो षट्। अर्थात् सूर्य का मर्त्य स्तर पर प्रतिस्थापन कर देना, ऋतुओं में स्थापित कर देना वौषट् है।

*अस्यामृधेद्धोत्रायां देवङ्गमायामिति। अस्यां राध्नोतु होत्रायां देवङ्गमायामित्येवैतदाह। आशास्तेऽयं यजमानोऽसाविति नाम गृह्णाति। तदेनं प्रत्यक्षमाशिषा सम्पादयति। - श.ब्रा. १.९.१.१२

*बृहदुपस्थानम् अथैन्द्राग्नी। उभा वामिन्द्राग्नी आहुवध्या उभा राधसः सह मादयध्यै। उभा दाताराविषा ँ रयीणाम्। उभा वाजस्य सातये हुवे वाम् इति। - श.ब्रा. २.३.४.१२

*स होवाच राध्नवान्मे स प्रजायां, य एतमादित्येभ्यश्चरुं निर्वपाद् इति। - श.ब्रा. ३.१.३.५

*ते वै द्विनामानो भवन्ति। एतऽउ हैवैतद् दध्रिरे। न वाऽएभिर्नामभिररात्स्म येषां नः सोममपाहार्षुः, हन्त द्वितीयानि नामानि करवामहाऽइति। ते द्वितीयानि नामान्यकुर्वत। तैरराध्नुवन्। - श.ब्रा. ३.६.२.२४

*राधांसीत्सम्पृञ्चानावसम्पृञ्चानौ तन्व इति। राधांस्येव सम्पृञ्चाथां मापि तनूरित्येवैतदाह। तौ ह यत् तनूरपि सम्पृञ्चीयाताम्। प्राग्निर्यजमानं दहेत्। - - -तद् राधांस्येव सम्पृञ्चाते, नापि तनूः। - श.ब्रा. ३.७.४.११

*निग्राभ्य प्रयोगः -- स उपसृजति श्वात्रा स्थ वृत्रतुरः इति। शिवा ह्यापः। - - -राधो गूर्त्ताऽअमृतस्य पत्नीः इति। अमृता ह्यापः। ता देवीर्देवत्रेमं यज्ञं नयत इति। - श.ब्रा. ३.९.४.१६

*गर्गत्रिरात्रमहीनम् तामवार्जन्ति। सा यद्यपुरुषाभिवीता प्राचीयात् तत्र विद्यात् अरात्सीदयं यजमानः, कल्याणं लोकमजैषीदिति। - - -श.ब्रा. ४.५.८.११

*तऽउत्तरस्य हविर्धानस्य जघन्यायां कूबर्यां सामाभिगायन्ति। सत्रस्य ऋद्धिः इति। राद्धिमेवैतदभ्युत्तिष्ठन्ति। - श.ब्रा. ४.६.९.११

*अथाध्वर्योः प्रतिगरः।अरात्सुरिमे यजमानाः भद्रमेभ्योऽभूदिति। - श.ब्रा. ४.६.९.१९

*प्रजापति द्वारा सृष्टि करने के पश्चात् विस्रस्त हो जाने पर ः- सोऽग्निमब्रवीत् त्वं मा सन्धेहीति। किं मे ततो भविष्यतीति। त्वया माऽऽचक्षान्तै। यो वै पुत्राणां राध्यते तेन पितरं पितामहं पुत्रं पौत्रमाचक्षते। - श.ब्रा. ६.१.२.१३

*इष्कर्तारमध्वरस्य प्रचेतसम् इति। अध्वरो वै यज्ञः। प्रकल्पयितारं यज्ञस्य प्रचेतसमित्येतत्। क्षयन्तं राधसो महः इति। - श.ब्रा. ७.३.१.३३

यथा लोके पुत्राणां मध्ये यो राध्यते विद्यया बलेन वा प्रसिद्धो भवति, तेन एव पुत्रेण पितृपितामहा व्यवहरन्ति, तस्यायं पिता पितामह इति, तस्यायं पुत्रः पौत्र इति सायण

*अष्टगार्हपत्येष्टकोपधानम् - - गार्हपत्यमुपदधाति। एतद्वै देवाः प्राप्य राद्ध्वेवामन्यन्त। तेऽब्रुवन् केनेदमरात्स्मेति। गार्हपत्येनैवेत्यब्रुवन्। गार्हपत्यं वै चित्वा समारुह्य प्रथमां चितिमपश्याम, प्रथमायै द्वितीयां, द्वितीयायै तृतीयां, तृतीयायै चतुर्थीं, चतुर्थ्यै पञ्चमीं, पञ्चम्या इदम् इति। तेऽब्रुवन् उप तज्जानीत, यथेयमस्मास्वेव राद्धिरसदिति। तेऽब्रुवन् चेतयध्वमिति चितिमिच्छतेति वाव तदब्रुवन् तदिच्छत यथेयमस्मास्वेव राद्धिरसदिति। - श.ब्रा. ८.१.३.१

*तेऽब्रुवन् मध्य एवोपददामहै । स नो मध्य उपहितः सर्वेषां भविष्यतीति। तं मध्य उपादधत। तदेतां राद्धिमात्मन्नदधत। - श.ब्रा. ८.६.३.४

*अथ पुनश्चितिमुपदधाति। एतद्वै देवा गार्हपत्यं चित्वा तस्मिन्राद्धिं नापश्यन्। योनिर्वै गार्हपत्या चितिः। एषो वै योने राद्धि यद्रेतः प्रजातिः। तस्यामेतस्यां योनौ रेतः प्रजातिं नापश्यन्। - - - - श.ब्रा. ८.६.३.८

*देविकाहवींषि अवभृथादुदेत्य, उदयनीयेन चरित्वा, अनूबन्ध्यस्य पशुपुरोडाशमनु देविकानां हवींषि निर्वपति। एतद्वै प्रजापतिः प्राप्य राध्वेवामन्यत। स दिक्षु प्रतिष्ठायेदं सर्वं दधद् विदधत् अतिष्ठत्। दधद् विदधद् अतिष्ठत् तस्माद्धाता। - श.ब्रा. ९.५.१.३५

*तदेतद् वसु चित्रं राधः। तदेष सविता विभक्ताभ्यः प्रजाभ्यो विभजति अप्योषधिभ्यः, अपि वनस्पतिभ्यः। भूय इव ह त्वेकाभ्यः प्रयच्छति, कनीय इवैकाभ्यः। तद् याभ्यो भूयः प्रयच्छति ता ज्योक्तमां जीवन्ति। याभ्यः कनीयः कनीयस्ताः। तदेतदृचाऽभ्युक्तम् विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधसः। सवितारं नृचक्षसम् इति। तदेतत्सर्वामायुर्दीर्घम्। - - - पश्यन्ती वाग्वदति। तदेतदेकशतविधेन वैवाऽऽप्तव्यम्, शतायुतया वा। य एवैकशतविधं विधत्ते। यो वा शतं वर्षाणि जीवति। - श.ब्रा. १०.२.६.५

*ब्रह्मन्नश्वं भन्त्स्यामि देवेभ्यः प्रजापतये तेन राध्यासम् इति ब्रह्माणमान्त्रयते। ब्रह्मण एवैनं प्रतिप्रोच्य बध्नाति। नार्तिमार्च्छति। तं बधान देवेभ्यः प्रजापतये तेन राध्नुहि इति ब्रह्मा प्रसौति। स्वयैवैनं देवतया समर्द्धयति। - श.ब्रा. १३.१.२.४

*देवी द्यावापृथिवी इति। मखस्य वामद्य शिरो राध्यासम् इति। यज्ञो वै मखः। यज्ञस्य वामद्य शिरो राध्यासम्। इत्येवैतदाह देवयजने पृथिव्याः इति। - श.ब्रा. १४.१.२.९

*स यो मनुष्याणां राद्धः समृद्धो भवति, अन्येषामधिपतिः सर्वैर्मानुष्यकैः कामैः संपन्नतमः। स मनुष्याणाम्परम आनन्दः। - श.ब्रा. १४.७.१.३२

*ब्रा॒ह्मणश्च॑ शू॒द्रश्च॑ चर्मक॒र्ते व्याय॑च्छेते(कलहं कुर्याताम्)। दैव्यो॒ वै वर्णो॑ ब्राह्म॒णः। अ॒सु॒र्यः॑ शू॒द्रः॑। इ॒मे॑ऽरात्सुरि॒मे सु॑भू॒तम॑क्र॒न्नित्य॑न्यत॒रो(इति ब्राह्मणः) ब्रू॑यात्। इ॒म उ॑द्वासीका॒रिण॑ इ॒मे दु॑र्भू॒तम॑क्र॒न्नित्य॑न्यत॒रः(शूद्रः)। यदेवै॒षा॑ँ सुकृ॒तं या राद्धि॑। तद॑न्यत॒रो॑ऽभिश्री॑णाति। यदे॒वैषां॑ दुष्कृ॒तं या रा॑द्धि। तद॑न्यत॒रोऽप॑हन्ति। ब्राह्मणः संज॑यति। - तै.ब्रा. १.२.६.७

*मि॒त्रस्या॑नूरा॒धाः। अ॒भ्यारोह॑त्प॒रस्ता॑द॒भ्यारू॑ढम॒वस्ता॑त्। - तै.ब्रा. १.५.१.३

*अन्वे॑षामरा॒त्स्मेति॑। तद॑नुरा॒धाः। - तै.ब्रा. १.५.२.८

*ऊ॒रू विशा॑खे। प्र॒ति॒ष्ठाऽनू॑रा॒धाः। - तै.ब्रा. १.५.२.२

*अ॒नू॒रा॒धाः प्र॑थ॒मम्। अ॒प॒भरणी॑रुत्त॒मम्। तानि॑ यमनक्ष॒त्राणि॑। - तै.ब्रा. १.५.२.७

*वपनमन्त्राः - - - शि॒वेना॒स्योप॑वर्तये। श॒ग्मेना॑स्या॒भिव॑र्तये। तदृ॒तं तत्स॒त्यम्। तद्व्र॒तं तच्छ॑केयम्। तेन॑ शकेयं॒ तेन॑ राध्यासम्। यद्घ॒र्मः प॒र्यव॑र्तयत्। अन्ता॑न्पृथि॒व्या दि॒वः। अ॒ग्निरीशा॑न॒ ओज॑सा। वरु॑णो धी॒तिभिः॑ स॒ह। इन्द्रो॑ म॒रुद्भिः॒ सखि॑भिः स॒ह। - - -अ॒ग्निस्ति॒ग्मेन॑ शो॒चिषा॑। तप॒ आक्रा॑न्तमु॒ष्णिहा॑। शिर॒स्तप॒स्याहि॑तम्। - - -तच्छ॑केयम्। तेन॑ शकेयं॒ तेन॑ राध्यासम्। यो अ॒स्याः पृ॑थि॒व्यास्त्व॒चि। नि॒व॒र्तय॒त्योष॑धीः। अ॒ग्निरीशा॑न॒ ओज॑सा।- - -तद्व्र॒तं तच्छ॑केय॒म्। तेन॑ शकेयं॒ तेन॑ राध्यासम्। एकं॒ मास॒मुद॑सृजत्। प॒र॒मे॒ष्ठी प्र॒जाभ्यः॑। तेना॑ऽऽभ्यो॒ मह॒ आव॑हत्। अ॒मृतं॒ मर्त्या॑भ्यः। प्र॒जामनु॒ प्रजा॑यसे। तदु॑ मे मर्त्या॒मृत॑म्। - - -तद्व्र॒तं तच्छ॑केयं तेन॑ शकेयं॒ तेन॑ राध्यासम्। - तैत्तिरीय ब्राह्मण १.५.५.२

*अग्निहोत्रम् यस्य॒ वै द्वौ पुण्यौ॑ गृ॒हे वस॑तः। यस्तयो॑र॒न्य ँ रा॒धय॑त्य॒न्यं न। उ॒भौ वा वसतावृ॑च्छ॒तीति॑। अ॒ग्निं वावाऽऽदि॒त्यः सा॒यं प्रवि॑शति। तस्मा॑द॒ग्निर्दू॒रान्नक्तं॑ ददृशे। उ॒भे हि तेज॑सी सं॒पद्ये॑ते। - - -तै.ब्रा. २.१.२.९

तैत्तिरीय ब्राह्मण के इस कथन का महत्त्व यह है कि वैदिक साहित्य में संवत्सर का निर्माण पृथिवी, सूर्य व चन्द्रमा की आपेक्षिक गतियों से होता है। अहोरात्र, जिसमें अग्निहोत्र सम्पन्न किया जाता है, पृथिवी द्वारा अपनी धुरी पर घूमने से होता है। अध्यात्म में पृथिवी, सूर्य व चन्द्रमा के प्रतीक वाक्, प्राण और मन हैं। जब यजु में कहा जा रहा है कि अग्निहोत्र कृत्य में अग्नि(पृथिवी की ज्योति) और आदित्य(सूर्य) दोनों का राधन करना आवश्यक है, तो इसका अर्थ होगा कि वाक् और प्राण, दोनों को रा के धारण/ग्रहण के लिए उपयुक्त बनाना है। मन का अभी उल्लेख यहां नहीं है। वह दर्शपूर्णमास तथा उसके पश्चात् के कृत्यों में आएगा। वह वेद मन्त्रों तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.७.९.७ में है। राधः को ग्रहण करने के पश्चात् वाक् का स्वरूप क्या होगा, इसका एक संकेत हमें तैत्तिरीय ब्राह्मण २.५.८.१२ से मिलता है जहां राधः का एक स्वरूप अर्क या सीर(भूमि का कर्षण करने वाला) है। वाक् का दूसरा रूपान्तर एकशतविधा वाला कहा गया है। जितनी अधिक संख्याओं वाली वाक् एक प्राणी ग्रहण करने में समर्थ होगा, उसकी आयु उतनी ही अधिक होगी।

*निष्टप्तायां स्रुचि हविष्पूरणं:- सर्वान्पूर्णानुन्नयति। सर्वे हि पुण्या राद्धाः। - तै.ब्रा. २.१.३.६

*भवा॑ मि॒त्रो न शेव्यो॑ घृ॒तासु॑तिः। विभू॑तद्युम्न एव॒या उ॑ स॒प्रथाः॑। अधा॑ ते विष्णो वि॒दुषा॑चि॒दृध्यः॑। स्तोमो य॒ज्ञस्य॒ राध्यो॑ ह॒विष्म॑तः। - तै.ब्रा. २.४.३.९

*इ॒मं कामं॑ मन्दया॒ गोभि॒रश्वैः॑। च॒न्द्रव॑ता॒ राध॑सा प॒प्रथ॑श्च। सु॒व॒र्यवो॑ म॒तिभि॒स्तुभ्यं॒ विप्राः॑। इन्द्रा॑य॒ वाहः॑ कुशि॒कासो॑ अक्रन्। - तै.ब्रा. २.५.४.१

*शुनः और सीर में सम्बन्ध:- इन्द्र॑स्य॒ राधः॒ प्रय॑तं पु॒रु त्मना॑। तद॑र्करू॒पं वि॒मिमा॑नमेति। द्वाद॑शारे॒ प्रति॑तिष्ठ॒तीद्वृषा॑। - तै.ब्रा. २.५.८.१२

इस यजु में कहा जा रहा प्रतीत होता है कि इन्द्र तो शुनः है, शून्य है, वह पृथिवी की क्रियाओं में प्रत्यक्ष रूप से भाग नहीं लेता। और उसका जो रूप पृथिवी का कर्षण करता है, सीर है, वह राधः का प्रयतन करके, उसे अर्क रूप देकर प्राप्त किया जा सकता है।

*पुरोडाशस्य पुरोनुवाक्या इन्द्रो॒ राजा॒ जग॑तश्चर्षणी॒नां। अधि॒क्षमि॒ विषु॑रूपं॒ यदस्ति॑। ततो॑ ददातु दा॒शुषे॒ वसू॑नि। चोद॒द्राध॑ उप॑स्तुतश्चिद॒र्वाक्। - तै.ब्रा. २.८.५.८

*ऋ॒ध्यास्म॑ ह॒व्यैर्नम॑सोप॒सद्य॑। मि॒त्रं दे॒वं मि॑त्र॒धेयं॑ नो अस्तु। अ॒नू॒रा॒धान्ह॒विषा॑ व॒र्धय॑न्तः। श॒तं जी॑वेम श॒रदः॒ सवी॑राः। चि॒त्रं नक्ष॑त्र॒मुद॑गात्पु॒रस्ता॑त्। अ॒नू॒रा॒धास॒ इति॒ यद्वद॑न्ति। तन्मि॒त्र ए॑ति प॒थिभि॑र्देव॒यानैः॑। हि॒र॒ण्ययै॒र्वित॑तैर॒न्तरि॑क्षे। - तै.ब्रा. ३.१.२.१

*मि॒त्रो वा अ॑कामयत। मि॒त्र॒धेय॑मे॒षु लो॒केष्व॒भिज॑येय॒मिति॑। स ए॒तं मि॒त्राया॑नूरा॒धेभ्य॑श्च॒रुं निर॑वपत्। ततो॒ वै स् मि॑त्र॒धेय॑मे॒षु लो॒केष्व॒भ्य॑जयत्। - तै.ब्रा. ३.१.५.१

*देव॑ बर्हि॒रित्याह। दे॒वेभ्य॑ ए॒वैन॑त्करोति। मा त्वा॒ऽन्वङ्मा ति॒र्यगित्या॒हाहि॑ ँसायै। पर्व॑ ते राध्यास॒मित्या॒हर्ध्यै॑ आ॒च्छे॒त्ता ते॒ मारि॑ष॒मित्या॑ह। - तै.ब्रा. ३.२.२.५

*वपापुरोडाशस्विष्टकृतां मैत्रावरुणवक्तृकाः पुरोनुवाक्याः - आ वृ॑त्रहणा वृत्र॒हभिः॒ शुष्मैः॑। इन्द्र॑ या॒तं नमो॑भिरग्ने अ॒र्वाक्। यु॒व ँ राधो॑भि॒रक॑वेभिरिन्द्र। अग्ने॑ अ॒स्मे भ॑वतमुत्त॒मेभिः॑। - तै.ब्रा. ३.६.८.१

*व्रतोपायनमन्त्रः अग्ने॑ व्रतपते व्र॒तं च॑रिष्यामि। तच्छ॑केयं॒ तन्मे॑ राध्यताम्। वायो॑ व्रतपत॒। आदि॑त्य व्रतपते। व्र॒तानां॑ व्रतपते व्र॒तं च॑रिष्यामि। तच्छ॑केयं॒ तन्मे॑ राध्यताम्। - तै.ब्रा. ३.७.४.७

*या जा॒ता ओष॑धयः। दे॒वेभ्य॑स्त्रियु॒गं पु॒रा। तासां॒ पर्व॑ राध्यासम्। प॒रि॒स्त॒रमा॒हर॑न्। - तै.ब्रा. ३.७.४.९

*प्र॒जाप॑तिर्वि॒श्वक॑र्मा। तस्य॒ मनो॑ दे॒वं य॒ज्ञेन॑ राध्यासम्। अ॒र्थे॒ गा अ॒स्य ज॑हितः। अ॒व॒सान॑पतेऽव॒सानं॑ मे विन्द। - तै.ब्रा. ३.७.९.७

*प्रजापतेर्वर्तनिमनुवर्तस्व। अनु वीरैरनुराध्याम गोभिः। अन्वश्वैरनु सर्वैरु पुष्टैः। अनु प्रजयाऽन्विन्द्रियेण।देवा नो यज्ञमृजुधा नयन्तु। - तै.ब्रा. ३.७.१०.२

*यदाह॑। ब्रह्म॒न्नश्वं॒ मेध्यं॑ भन्त्स्यामि दे॒वेभ्यः॑ प्र॒जाप॑तये॒ तेन॑ राध्यास॒मिति॑। ब्रह्म॒ वै ब्र॒ह्मा। ब्रह्म॑ण ए॒व दे॒वेभ्यः॑ प्र॒जाप॑तये प्रति॒प्रोच्याश्वं॒ मेध्यं॑ बध्नाति। न दे॒वता॑भ्य॒ आवृ॑श्च्यते। - तै.ब्रा. ३.८.३.१

*कथा भगवस् त्वम् अग्निहोत्रं जुहोषीति। स होवाच वाजसनेयस् सत्यम् इत्य् एव सम्राड् अहम् अग्निहोत्रं जुहोमि। - - -अग्निम् उपदिशन् वाचेदं सत्यम् इत्य् अदस् सत्यम् इत्य् आदित्यम्। - - - सुहुतं देवान् राधयानि इति हैव प्रशशंस। - जै.ब्रा. १.२३

*स होवाच बर्कुर् वार्ष्णो भूयिष्ठं श्रेष्ठं वित्तानाम् इत्य् एव सम्राड् अहम् अग्निहोत्रं जुहोमि। - - - - सुहुतं देवान् राधयानि इति हैव प्रशशंस। - जै.ब्रा. १.२४

*ते ऽब्रुवन्न् अरात्स्मानेन स्तोत्रेणेति। तस्माद् रथन्तरस्य स्तोत्रे रथघोषं कुर्वन्ति। - जै.ब्रा. १.१४३

*अथ हैके ऽभ्युदिताप्येव निलिल्यिरे। ते हावरां रात्रिं समेत्य तुष्टुवुर् इयं वाव सा या नः पूर्वात्यगाद् इति। ते ह रराधुः। ते य एवं विद्वांसः कुर्वन्ति राध्नुवन्त्य् एव। - जै. १.३४९

*ऋतवो वा अकामयन्त समानेन यज्ञेन समानीम् ऋद्धिम् ऋध्नुयामावान्नाद्यं रुन्धीमहि , पुनर्नवाः पुनर्नवा स्यामेति। - - - अथ शिशिर ऐक्षत येनैवेमे पूर्वा इष्ट्वारात्सुस् तेनो एवाहं यजा इति। - - जै.ब्रा. २.२११

*दिशो वा अकामयन्त समानेन यज्ञेन समानीम् ऋद्धिम् ऋध्नुयाम प्रतितिष्ठेमानन्तं स्वर्गं लोकं जयेमेति। - - - अथेयम् ऊर्ध्वा दिग् ऐक्षत येनैवेमाः पूर्वा इष्ट्वारात्सुस् तेनो एवाहं यजा इति। - जै.ब्रा. २.२१४

*सहस्रतमी गौ ते त्रयस्त्रिंशतं च त्रीणि च शतानि प्रथमे ऽहन् न ददुः। तेनास्मिन् लोके वसुभिर् अराध्नोत्। त्रयस्त्रिंशतं च त्रीणि च शतानि द्वितीये ऽहन् न ददुः। तेनास्मिन्न् अन्तरिक्षे लोके रुद्रैर् अराध्नुः। त्रयस्त्रिंशतं च त्रीणि च शतानि तृतीये ऩहन् न ददुः। तेनामुष्मिन् लोक आदित्यैर् अराध्नोत्। - जै.ब्रा. २.२५३

*ते त्रयस्त्रिंशतं च त्रीणि च शतानि प्रथमे ऽहन्न् अददुः। तेनास्मिन् लोके ऽग्निर् अरार्ध्नोत्। त्रयस्त्रिंशतं च त्रीणि च शतानि द्वितीये ऽहन्न् अददुः। तेनास्मिन्न् अन्तरिक्षलोके वायुर् अरार्ध्नोत्. त्रयस्त्रिंशतं च त्रीणि च शतानि तृतीये ऽहन्न् अददुः। तेनामुष्मिन् लोके आदित्यो अरार्ध्नोत्। - जै.ब्रा. २.२६४

*तयोर् ह वै ते ऽद्यान्यान् अराथुः। ते होत्तस्थुर् अरात्स्मेति। - जै.ब्रा. २.२९९

*तस्मात् सत्रिणो द्वादशे मास्य् अपि शिखाः प्रवपन्ते। गवां हि तर्ह्य् अनुरूपा भवन्ति। ता उदतिष्ठन्न् अरात्स्मेत्ये आप्त्वा सत्रम् आप्त्वा सर्वम् अन्नाद्यम्। - जै.ब्रा. २.३७४

*विश्वेभ्य एव तद् देवेभ्यो निवेदयन्ते - ऽरात्स्मेति। - जै.ब्रा. २.३९८

*अग्नेर् अपि पक्षं प्रति सत्रस्यर्द्ध्या स्तुवते। अग्नय एव तद् देवेभ्यो निवेदयन्ते ऽरात्स्मेति। - जै.ब्रा. २.४०१

*जघनेनौदुम्बरीम् अंगिरोभ्य एतद् देवेभ्यो निवेदयन्ते ऽरात्स्मेति। - जै.ब्रा. २.४०२

*ते मासाश् चर्तवश् चाब्रुवन् येन नः पिता प्रजापतिर् यज्ञेनेष्ट्वारात्सीत् तेन यजामहा इति। - जै.ब्रा. ३.३

*द्वादशाहे द्वितीयमहस्य आर्भव पवमानम्। साकमश्वं स्वर्ग्यं साम स्वर्गस्य लोकस्य समष्ट्यै। एवा ह्य असि वीरयुर् एवा शूर उत स्थिरः। एवा ते राध्यं मनः।(ऋग्वेद ८.९२.२८) इति भवति सत्यस्यैवर्द्ध्यै। एवा ह्य् असि वीरयुर् इत्य् एवेति भवति बृहतो रूपम्। बार्हतम् एतद् अहः। - - -जै.ब्रा. ३.३४

*सो ऽब्रवीद् इमा वै मे सद् अभूद् इति। त एव मासा अभवन्। ऋद्धिषि वा इति ते अर्धमासाः। अहम् अरात्सम् ओषम् इति यद् अहम् इति तान्य् अहान्य् अभवन्। यद् अरात्सम् इति ता रात्रयो, यद् ओषम् इति ता उषसः। - जै.ब्रा. ३.३८०

*दर्शपूर्णमासः। दीक्षणीयेष्टिः। - सप्तदश सामिधेनीरनुब्रूयात्। सप्तदशो वै प्रजापतिर्द्वादश मासाः पञ्चर्तवो हेमन्तशिशिरयोः समानेन तावान् संवत्सरः संवत्सरः प्रजापतिः। प्राजपत्यायतनाभिरेवाऽऽभी राध्नोति य एवं वेद। - ऐ.ब्रा. १.१

*यज्ञो वै देवेभ्य उदक्रामत् तमिष्टिभिः प्रैषमैच्छन्यदिष्टिभिः प्रैषमैच्छंस्तदिष्टीनामिष्टित्वं तमन्वविन्दन्। अनुवित्तयज्ञो राध्नोति य एवं वेद। - ऐ.ब्रा. १.२

*यस्तेजो ब्रह्मवर्चसमिच्छेत् प्रयाजाहुतिभिः प्राङ् स इयात्, तेजो वै ब्रह्मवर्चसं प्राची दिक्। - - यो अन्नाद्यमिच्छेत् प्रयाजाहुतिभिर्दक्षिणा स इयादन्नादो वा एषोऽन्नपतिर्यदग्निः। - - -यः पशूनिच्छेत् प्रयाजाहुतिभिः प्रत्यङ् स इयात् पशवो वा एते यदापः। - - -यः सोमपीथमिच्छेत् प्रयाजाहुतिभिरुद्ङ् स इयादुत्तरा ह वै सोमो राजा। - - -स्वर्ग्यैवोर्ध्वा दिक्सर्वासु दिक्षु राध्नोति। - ऐ.ब्रा. १.८

तुलनीय पुराणों में राधा का द्विभुज कृष्ण के वासस्थान गोलोक में वास

*अमुष्मिन् वा एतेन लोके राध्नुवन्ति नास्मिन्नित्याहुर्यत्प्रायणीयमिति प्रायणीयमिति निर्वपन्ति प्रायणीयमिति चरन्ति ऐ.ब्रा. १.११

*सोमाय क्रीताय प्रोह्यमाणायानुब्रू३हीत्याहाध्वर्युः(होतारम्)। - -  (होता द्वारा क्रीत सोम के लिए आठ ऋचाओं का पाठ)।ता एता अष्टावन्वाह रूपसमृद्धाः। एतद्वै यज्ञस्य समृद्धं यद्रूपसमृद्धं यत्कर्म क्रियमाणमृगभिवदति। - - ता द्वादश संपद्यन्ते, द्वादश वै मासाः संवत्सरः संवत्सरः प्रजापतिः। प्रजापत्यायतनाभिरेवाऽऽभी राध्नोति य एवं वेद। - ऐ.ब्रा. १.१३

*अग्नये मथ्यमानायानुब्रूहीत्याहाध्वर्युः। (होता द्वारा पाठ)। - - ता एतास्त्रयोदशान्वाह रूपसमृद्धाः। एतद्वै यज्ञस्य समृद्धं यद्रूपसमृद्धं यत्कर्म क्रियमाणमृगभिवदति। - - - ताः सप्तदश संपद्यन्ते, सप्तदशो वै प्रजापतिर्द्वादश मासाः पञ्चर्तवस्तावान् संवत्सरः, संवत्सरः प्रजापतिः, प्रजापत्यायतनाभिरेवाऽऽभी राध्नोति य एवं वेद ऐ.ब्रा. १.१६

*का राधद्धोत्राऽऽश्विना वामिति(ऋ. १.१२०) नव विच्छन्दसस्तदेतद्यज्ञस्यान्तस्त्यं विक्षुद्रमिव वा, अन्तस्त्यमणीय इव च स्थवीय इव च तस्मादेता विच्छन्दसो भवन्ति। एताभिर्हाश्विनोः कक्षीवान्प्रियं धामोपागच्छत् स परमं लोकमजयत्। - ऐ.ब्रा. १.२१

*अग्नये प्रणीयमानायानुब्रूहीत्याहाध्वर्युः।(होता द्वारा पाठ) - - - ता एता अष्टावन्वाह रूपसमृद्धा, एतद्वै यज्ञस्य समृद्धं यद्रूपसमृद्धं यत्कर्म क्रियमाणमृगभिवदति। - - ता द्वादश संपद्यन्ते, द्वादश वै मासाः संवत्सरः, संवत्सरः प्रजापतिः, प्रजापत्यायतनाभिरेवाऽऽभी राध्नोति य एवं वेद ऐ.ब्रा. १.२८

*हविर्धानाभ्यां प्रोह्यमाणाभ्यामनुब्रूहीत्याहाध्वर्युः। (होता द्वारा पाठ) - - - ता एता अष्टावन्वाह रूपसमृद्धा, एतद्वै यज्ञस्य समृद्धं यद्रूपसमृद्धं यत्कर्म क्रियमाणमृगभिवदति। - - ता द्वादश संपद्यन्ते, द्वादश वै मासाः संवत्सरः, संवत्सरः प्रजापतिः, प्रजापत्यायतनाभेरेवाऽऽभी राध्नोति य एवं वेद ऐ.ब्रा. १.२९

*अञ्ज्मो यूपमनुब्रूहीत्याहाध्वर्युः। (होता द्वारा पाठ) - - - - -ता एताः सप्तान्वाह रूपसमृद्धा, एतद्वै यज्ञस्य समृद्धं यद्रूपसमृद्धं, यत्कर्म क्रियमाणमृगभिवदति, - - - ता एकादश संपद्यन्त, एकादशाक्षरा वै त्रिष्टुप् त्रिष्टुबिन्द्रस्य वज्र इन्द्रायतानाभिरेवाऽऽभी राध्नोति य एवं वेद ऐ.ब्रा. २.२

*प्रातरनुवाक में ऋचाओं की संख्या का प्रसंग-- सप्ताऽऽग्नेयानि च्छन्दांस्यन्वाह सप्त वै देवलोकाः। सर्वेषु देवलोकेषु राध्नोति य एवं वेद। सप्तोषस्यानि च्छन्दांस्यन्वाह, सप्त वै ग्राम्याः पशवः। - - सप्ताऽऽश्विनानि च्छन्दांस्यन्वाह, सप्तधा वै वाग् अवद्त् - ऐ.ब्रा. २.१७

*यो वै यज्ञं हविष्पङ्क्तिं वेद हविष्पङ्क्तिना यज्ञेन राध्नोति धानाः करम्भः परिवापः पुरोळाशः पयस्येत्येष वै यज्ञो हविष्पङ्क्तिर्हविष्पङ्क्तिना यज्ञेन राध्नोति य एवं वेद। यो वै यज्ञमक्षरपङ्क्तिं वेदाक्षरपङ्क्तिना यज्ञेन राध्नोति सुमत्पद्वग्द इत्येष वै यज्ञोऽक्षरपङ्क्तिरक्षरपङ्क्तिना यज्ञेन राध्नोति य एवं वेद। यो वै यज्ञं नराशंसपङ्क्तिं वेद नराशंसपङ्क्तिना यज्ञेन राध्नोति द्विनाराशंसं प्रातःसवनं द्विनाराशंसं माध्यन्दिनं सवनं सकृन्नाराशंसं तृतीयसवनमेष वै यज्ञो नराशंसपङ्क्तिर्नराशंसपङ्क्तिना यज्ञेन राध्नोति य एवं वेद। - ऐ.ब्रा. २.२४

*चक्षूंषि वा एतानि सवनानां यत्तूष्णींशंसो भूरग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निरिति प्रातःसवनस्य चक्षुषी, इन्द्रो ज्योतिर्भुवो ज्योतिरिन्द्र इति माध्यन्दिनस्य सवनस्य चक्षुषी, सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः स्वः सूर्य इति तृतीयसवनस्य चक्षुषी। चक्षुष्मद्भिः सवनै राध्नोति, चक्षुष्मद्भिः सवनैः स्वर्गं लोकमेति य एवं वेद। - ऐ.ब्रा. २.३२

*वृत्रहत्या के पश्चात् इन्द्र के अदृश्य हो जाने पर-- तेऽब्रुवन्नभिषुणवामैव तथा वाव न आशिष्ठमागमिष्तीति तथेति - - - आगतेनेन्द्रेण यज्ञेन यजते, सेन्द्रेण यज्ञेन राध्नोति य एवं वेद। - ऐ.ब्रा. ३.१५

*गायत्री द्वारा ३ सवनों का आहरण करने के संदर्भ में गायत्री द्वारा तीन सवनों को धारण करना, माध्यन्दिन सवन के विस्रस्त हो जाने के कारण उसका पूर्व सवन के साथ न मिल पाना।तस्मिंस्त्रिष्टुभं छन्दसामदधुरिन्द्रं देवतानां, तेन तत्समावद्वीर्यमभवत् पूर्वेण सवनेनोभाभ्यां सवनाभ्यां समावद्वीर्याभ्यां समावज्जामीभ्यां राध्नोति य एवं वेद। इसी प्रकार तृतीय सवन का आशिर द्वारा पूरण। सर्वैः सवनैः समावद्वीर्यैः समावज्जामिभी राध्नोति य एवं वेद। - ऐ.ब्रा. ३.२७

*छन्दों द्वारा सोम प्राप्ति के प्रयास में अक्षर खोने तथा गायत्री द्वारा प्राप्त करने का संदर्भ :- ततो वा अष्टाक्षरा गायत्र्यभवदेकाक्षरा त्रिष्टुब् द्वादशाक्षरा जगती। सर्वैश्छन्दोभिः समावद्वीर्यैः समावज्जामिभी राध्नोति य एवं वेद। - ऐ.ब्रा. ३.२८

*च्छन्दसां वै यो रसोऽत्यक्षरत्, सोऽतिच्छन्दसमभ्यत्यक्षरत्, तदतिच्छन्दसोऽतिच्छन्दस्त्वं, सर्वेभ्यो वा एष च्छन्दोभ्य संनिर्मितो यत्षोळशी, तद् यदतिच्छन्दसः शंसति, सर्वेभ्य एवैनं तच्छन्दोभ्यः संनिर्मिमीते। सर्वेभ्यश्छन्दोभ्यः संनिर्मितेन षोळशिना राध्नोति य एवं वेद। - ऐ.ब्रा. ४.३

*अयं वै लोकः प्रथमा महानाम्न्यन्तरिक्षलोको द्वितीयाऽसौ लोकस्तृतीया, सर्वेभ्यो वा एष लोकेभ्यः संनिर्मितो यत्षोळशी, तद् यन्महानाम्नीनामुपसर्गानुपसृजति, सर्वेभ्य एवैनं तल्लोकेभ्यः संनिर्मिमीते। सर्वेभ्यो लोकेभ्यः संनिर्मितेन षोळशिना राध्नोति य एवं वेद। - ऐ.ब्रा. ४.४

*सर्वेभ्यः सवनेभ्यः संनिर्मितेन षोळशिना राध्नोति य एवं वेद ऐ.ब्रा. ४.४

*सर्वेभ्यश्छन्दोभ्यः संनिर्मितेन षोळशिना राध्नोति य एवं वेद ऐ.ब्रा. ४.४

*आजिधावनकथा। आश्विन् शस्त्र प्रशंसा तदाहुः सप्त सौर्याणि च्छन्दांसि शंसेद् यथैवाग्नेयं यथोषस्यं यथाश्विनम्, सप्त वै देवलोकाः, सर्वेषु देवलोकेषु राध्नोतीति। तत्तन्नादृत्यम्, त्रीण्येव शंसेत्, त्रयो वा इमे त्रिवृतो लोका ऐ.ब्रा. ४.९

*द्वादशाह उभये राध्नुवन्ति य एवं विद्वांसो यजन्ते च याजयन्ति च। - ऐ.ब्रा. ४.२५

*पृष्ठ्यषडह के अन्तर्गत प्रथम अह अग्निर्वै देवता प्रथममहर्वहति त्रिवृत्स्तोमो रथंतरं साम गायत्री छन्दः। यथादेवतमेनेन यथास्तोमं यथासाम यथाछन्दसं राध्नोति य एवं वेद। - ऐ.ब्रा. ४.२९

*इन्द्रो वै देवता द्वितीयमहर्वहति, पञ्चदशस्तोमो बृहत्साम त्रिष्टुप्छन्दः। यथादेवतमेनेन यथास्तोमं यथासाम यथा छन्दसं राध्नोति य एवं वेद। - ऐ.ब्रा. ४.३१

*विश्वे वै देवा देवतास्तृतीयमहर्वहन्ति, सप्तदशस्तोमो वैरूपं साम जगती छन्दः। यथादेवतमेनेन यथास्तोमं यथासाम यथाछन्दसं राध्नोति य एवं वेद। - ऐ.ब्रा. ५.१

*वाग्वै देवता चतुर्थमहर्वहत्येकविंशस्तोमो वैराजं सामानुष्टुप्छन्दो यथादेवतमेनेन यथास्तोमं यथासाम यथाछन्दसं राध्नोति य एवं वेद। - ऐ.ब्रा. ५.४

*गौर्वै देवता पञ्चममहर्वहति त्रिणवः स्तोमः शाक्वरं साम पङ्क्तिश्छन्दो यथादेवतमेनेन यथास्तोमं यथासाम यथाछन्दसं राध्नोति य एवं वेद। - ऐ.ब्रा. ५.६

*द्यौर्वै देवता षष्ठमहर्वहति त्रयस्त्रिंशः स्तोमो रैवतं सामातिच्छन्दाश्छन्दो यथादेवतमेनेन यथास्तोमं यथासाम यथाछन्दसं राध्नोति य एवं वेद। - ऐ.ब्रा. ५.१२

*अथ ब्रह्मोद्यं वदन्त्यग्निर्गृहपतिरिति हैक आहुः, सोऽस्य लोकस्य गृहपतिर्वायुर्गृहपतिरिति हैक आहुः, सोऽन्तरिक्षलोकस्य गृहपतिरसौ वै गृहपतिर्योऽसौ तप्त्येष पतिर्ऋतवो गृहाः। येषां वै गृहपतिं देवं विद्वान् गृहपतिर्भवति, राध्नोति स गृहपती, राध्नुवन्ति ते यजमानाः। - ऐ.ब्रा. ५.२५

*यो वा अग्निहोत्रं वैश्वदेवं षोळशकलं पशुषु प्रतिष्ठितं वेद, वैश्वदेवेनाग्निहोत्रेण षोळशकलेन पशुषु प्रतिष्ठितेन राध्नोति ऐ.ब्रा. ५.२६

*ते हाऽऽदित्यानङ्गिरसोऽयाजयंस्तेभ्यो याजयद्भ्य इमां पृथिवीं पूर्णां दक्षिणानामददुस्तानियं प्रतिगृहीताऽतपत्, तान्न्यवृञ्जन् सा सिंही भूत्वा विजृभन्ती जनानचरत्, तस्याः शोचत्या इमे प्रदराः प्रादीर्यन्त येऽस्या इमे प्रदराः, समेव हैव ततः पुरा। - - - -अथ योऽसौ तपतीँ३ एषोऽश्वः श्वेतो रूपं कृत्वाऽश्वाभिधान्यपिहितेनाऽऽत्मना प्रतिचक्रम इमं वो नयाम इति, स एष देवनीथोऽनूच्यते। आदित्या ह जरितरङ्गिरोभ्यो दक्षिणामनयन्। - - - - इदं राधः प्रतिगृभ्णीह्यङ्गिरः इति, प्रतिग्रहमेव तद्राधस ऐच्छन्। इदं राधो बृहत्पृथु। देवा ददत्वावरम्। तद्वो अस्तु सुचेतनम्। युष्मे अस्तु दिवे दिवे। प्रत्येव गृभायतेति, प्रत्येवैनमेतदजग्रभैषम्। - ऐ.ब्रा. ६.३५

*षष्ठम् अह एतानि वा अत्रोक्थानि नाभानेदिष्ठो वालखिल्या वृषाकपिरेवयामरुत् स यत्संशंसेदपैव स एतेषु कामं राध्नुयात्। - ऐ.ब्रा. ६.३६

*विश्वामित्र के पुत्रों का शुनःशेप/देवरात के अनुज बनने का संदर्भ - पुर ऐत्रा वीरवन्तो देवरातेन गाथिनाः। सर्वे राध्या- स्थ पुत्रा एष वः सद्विवाचनम्॥ - ऐ.ब्रा. ७.१८