पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

( Ra, La)

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Yogalakshmi - Raja  (Yogini, Yogi, Yoni/womb, Rakta/blood, Raktabeeja etc. )

Rajaka - Ratnadhaara (Rajaka, Rajata/silver, Raji, Rajju, Rati, Ratna/gem etc.)

Ratnapura - Rathabhrita(Ratnamaalaa, Ratha/chariot , rathantara etc.)

Rathaswana - Raakaa (Rathantara, Ramaa, Rambha, Rambhaa, Ravi, Rashmi, Rasa/taste, Raakaa etc.) 

Raakshasa - Raadhaa  (Raakshasa/demon, Raaga, Raajasuuya, Raajaa/king, Raatri/night, Raadhaa/Radha etc.)

Raapaana - Raavana (  Raama/Rama, Raameshwara/Rameshwar, Raavana/ Ravana etc. )

Raavaasana - Runda (Raashi/Rashi/constellation, Raasa, Raahu/Rahu, Rukmaangada, Rukmini, Ruchi etc.)

Rudra - Renukaa  (Rudra, Rudraaksha/Rudraksha, Ruru, Roopa/Rupa/form, Renukaa etc.)

Renukaa - Rochanaa (Revata, Revati, Revanta, Revaa, Raibhya, Raivata, Roga/disease etc. )

Rochamaana - Lakshmanaa ( Roma, Rohini, Rohita,  Lakshana/traits, Lakshmana etc. )

Lakshmi - Lava  ( Lakshmi, Lankaa/Lanka, Lambodara, Lalitaa/Lalita, Lava etc. )

Lavanga - Lumbhaka ( Lavana, Laangala, Likhita, Linga, Leelaa etc. )

Luuta - Louha (Lekha, Lekhaka/writer, Loka, Lokapaala, Lokaaloka, Lobha, Lomasha, Loha/iron, Lohit etc.)

 

 

 

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ऋग्वेद की ऋचाओं में रैवत शब्द का नहीं, रेवत शब्द का प्रयोग हुआ है जहां व उदात्त है । रेवत शब्द के संदर्भ में ऋचाओं के निम्नलिखित पद उल्लेखनीय हैं -

रेवदस्मभ्यंपुर्वणीक दीदिहि - ऋ. १.७९.५

रेवदस्मे व्युच्छ सूनृतावति - ऋ. १.९२.१४

रेवदुच्छन्तु सुदिनाषास: - ऋ. १.१२४.९-१०

स नोरेवत् समिधानः स्वस्तयेसंददस्वान् रयिमस्मासुदीदिहि - ऋ. २.२.६

सुकेतव उषसो रेवदूषु: - ऋ. २.७.१०?

अग्नेद्युमदुत रेवद् दिदीहि - ऋ. २.९.६

अमन्थिष्टांभारता रेवदग्निं देवश्रवा देववातः सुदक्षम् । अग्नेवि पश्य बृहताभि रायेषां नो नेता भवतादनुद्यून् ।। - ऋ. ३.२३.२

दृषद्वत्यांमानुष आपयायांसरस्वत्यां रेवदग्ने दिदीहि - ऋ. ३.२३.४

स मर्तोअग्ने स्वनीक रेवानमर्त्येय आजुहोतिव्यम् - ऋ. ७.१.२३

हश्चरायो रेवतस्कृधी नः - ऋ. १०.२२.१५

रेवत् सनिभ्योरेवतीव्युच्छतु - ऋ. १०.३५.४

रेवत् स वयोदधते सुवीरं - ऋ. १०.७७.७

          इन ऋचाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि रेवत् को प्रकट करने का, उसे चमकाने का कार्य अग्नि, उषा आदि का है । रेवत् स्वयं अग्नि का विशेषण भी है । मार्कण्डेय पुराण की कथा में रैवत पर्वत की उत्पत्ति तब होती है जब ऋतवाक् मुनि अपने शाप से रेवती नक्षत्र का भूमि पर पात करते हैं । वह नक्षत्र कुमुद पर्वत पर गिरता है और उससे रैवत पर्वत का जन्म होता है जो हिरण्मय है । फिर उस रैवत पर्वत से रेवती कन्या का जन्म होता है ।

           ऋग्वेद १०.३५.४ में उल्लेख है कि रेवती सनियों से रेवत् को प्रकट करे( रेवत् सनिभ्योरेवतीव्युच्छतु) । सायणाचार्य द्वारा रेवत का अर्थ सार्वत्रिक रूप से धन किया गया है जो संतोषजनक नहीं है । सनि को ऐसा धन समझा जा सकता है जो सूर्य(सन) के कारण उत्पन्न धन है । इस सूर्य के धन से रेवत नामक चन्द्र - धन उत्पन्न करना है । ऋग्वेद १.७९.५ में कहा गया है कि 'रेवदस्मभ्यंपुर्वणीक दीदिहि ।' ऋग्वेद १.९२.१४ में उषा के लिए कहा गया है - 'रेवदस्मे व्युच्छ सूनृतावति' । ऋग्वेद १.१२४.९ - १० में कहा गया है - 'रेवदुच्छन्तु सुदिनाषास: ।' यह उल्लेखनीय है कि श्री जे.ए.गोवान ने अपनी वैबसाइटों में परिकल्पना की है कि जड पदार्थ में जो विद्युत विद्यमान है, जैसे इलेक्ट्रान नामक कण पर, वह सूर्य का अंश है । यह अंश जड पदार्थ की सममिति को पूरा करता है, उसे सममित बनाता है । लेकिन वैदिक साहित्य इससे भी आगे जाकर चन्द्रमा को भी सममिति में भागीदार बनाता है ।

          वैदिक निघण्टु में रेवत्य: ( र अक्षर उदात्त) शब्द का वर्गीकरण नदी नामों में किया गया है । रैवतः ( त उदात्त ) का वर्गीकरण मेघ नामों में हुआ है । ऋग्वेद में प्रायः रेवत शब्द में व उदात्त है, जबकि रेवती में भी व उदात्त है । ऋग्वेद १०.८६.१३ में 'वृषाकपायिरेवति' में र उदात्त है । तैत्तिरीय संहिता १.५.८.२ में 'रेवती(र उदात्त) रमध्वम्' की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि 'पशवो वै रेवती: ( व उदात्त) पशूनेवात्मन् रमयत । तैत्तिरीय संहिता २.३.७.३ में उल्लेख आता है कि 'यदिन्द्राय रैवताय( त उदात्त) यदेव बृहस्पतेस्तेजस्तदेवावरुन्द्ध ।'

रेवती से सम्बन्धित मन्त्रों का विनियोग : ऐतरेय ब्राह्मण २.२० तथा आश्वलायन श्रौत सूत्र ५.१.१९ आदि के अनुसार

एमा अग्मन् रेवतीर्जीवधन्याअध्वर्यवः सादयता सखायः । नि बर्हिषिधत्तन सोम्यासोऽपां नप्त्रासंविदानासएना: ।। - ऋ. १०.३०.१४

इस ऋचा का विनियोग उस समय किया जाता है जब वेदी पर वसतीवरी और एकधना पात्रों के जलों को रखा जाता है । यह उल्लेखनीय है कि वसतीवरी के जल का उपयोग भविष्य के कल के यज्ञ के लिए होता है(अङ्गिरसों का यज्ञ, धीरे - धीरे प्रगति करने वाला), जबकि एकधना के जल का उपयोग आज ही पूरे होने वाले यज्ञ के लिए होता है (देवों का यज्ञ, त्वरित गति से प्रगति करने वाला ) । इससे संकेत मिलता है कि दोनों प्रकार के जलों में कोई विरोधाभास है जिसको दूर करने की आवश्यकता है । 'रेवतीर्न: सधमाद इन्द्रे सन्तु तुविवाजा' से भी संकेत मिलता है कि रेवती को अपने अनुकूल बनाना है(सधमाद) । पुराणों की कथाओं में शेषनाग - पत्नी रेवती दंशन भी करती है ) । आपोरेवती: क्षयथाहि वस्व: क्रतुंच भद्रं बि॑भृथामृतंच । रायश्चस्थ स्वत्यस्यपत्नी: सरस्वतीतद्गृते वयोधात् ।। ( ऋग्वेद १०.३०.१२) का विनियोग प्रातरनुवाक् में होता है (ऐतरेय ब्राह्मण २.१६, आश्वलायन श्रौत सूत्र ७.११.७) । आपः रेवती: क्या हो सकता है, इस संदर्भ में स्कन्द पुराण ६.११७ में अम्बारेवती की कथा का उल्लेख किया जा सकता है जिसमें शेषनाग - पत्नी अपने श्रेय के लिए अम्बा देवी की स्थापना करती है ।

          लक्ष्मीनारायण संहिता २.२४१.६१ में शेष की पत्नी के रूप में कुण्डलिनी का उल्लेख है । अतः कुण्डलिनी के संदर्भ में भी रेवती के चरित्र का अनुशीलन करने की आवश्यकता है ।  

 

वारवन्तीयं साम ।। इन्द्र: । गायत्री । इन्द्र: ।।

रेवतीर्न: सधमादइन्द्रेसन्तु तुविवाजा: । क्षुमन्तोयाभिर्मदेम ।।

आ घत्वावान् त्मनाप्त: स्तोतृभ्योधृष्णवियानः । ऋणोरक्षंन चक्र्यो: ।।

आ यद् दुव: शतक्रतवा कामंजरितॄ॒णाम् । ऋणोरक्षंन शचीभि: ।।

- ऋ. १.३०.१३-१५

 

२र                                                           

रेवतीर्नाऔहोहाइ ।। साधामाऽ२३४दाइ इन्द्राइसाऽ२३४हा तुतुविवाऽ३४

३र४र५                                                   

औहोवा इहाऽ२३४हाइ उहुवाऽ२३४जा: ।। क्षुमन्त: या'' भिर्मदाऽ३४

 

३र४र५                 ३र                     ५र        

औहोवा इहाऽ२३४हाइ औहोऽ३१२३४ मा हियाऽ६हा ।। श्री: ।।

२र                                          २र१            

त्वावाऔहोहाइ ।। त्मानायूऽ२३४क्ता: स्तोतृभ्योऽ२३४हाइ

                 ३र४र५                २३                  २१र

ष्णवीयाऽ३४ औहोवा इहाऽ२३४हाइ उहुवाऽ२३४ना: ऋणोर

                   ३र४र५                 ३र२

क्षा'' न्नचक्राऽ३४ औहोवा इहाऽ२३४हाइ औहोऽ३१२३४ यो:

५र                    २र                              

हिया६हा श्री: ।। आयद्दुवाऔहोहाइ ।। शातक्राऽ२३४ताउ

२र                                  ३र४र५                            

आकामाऽ२३४©हाइ जरितऽ३४ औहोवा इहाऽ२३४हाइ उहुवाऽ२३४णाम्

   २१र                     ३र४र५                 ३र२

ऋणोर क्षां न्नशचाऽ३४ औहोवा इहाऽ२३४हाइ औहोऽ३१२३४

        ५र            

भी: हियाऽ६हा होऽ५इ ।।डा।।

 

प्रथम प्रकाशन ३१-५-२००८ई.(ज्येष्ठ कृष्ण एकादशी, विक्रम संवत् २०६५)

 

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