पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX ( Ra, La)
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ऋग्वेद की ऋचाओं में रैवत शब्द का नहीं, रेवत शब्द का प्रयोग हुआ है जहां व उदात्त है । रेवत शब्द के संदर्भ में ऋचाओं के निम्नलिखित पद उल्लेखनीय हैं - रे॒वद॒स्मभ्यं॑ पुर्वणीक दीदिहि - ऋ. १.७९.५ रे॒वद॒स्मे व्यु॑च्छ सूनृतावति - ऋ. १.९२.१४ रे॒वदु॑च्छन्तु सु॒दिना॑ उ॒षास॑: - ऋ. १.१२४.९-१० स नो॑ रे॒वत् स॑मिधा॒नः स्व॒स्तये॑ संदद॒स्वान् र॒यिम॒स्मासु॑ दीदिहि - ऋ. २.२.६ सुकेतव उषसो रेवदूषु: - ऋ. २.७.१०? अग्ने॑ द्यु॒मदु॒त रे॒वद् दि॑दीहि - ऋ. २.९.६ अम॑न्थिष्टां॒ भार॑ता रे॒वद॒ग्निं दे॒वश्र॑वा दे॒ववा॑तः सु॒दक्ष॑म् । अग्ने॒ वि प॑श्य बृह॒ताभि रा॒येषां नो॑ ने॒ता भ॑वता॒दनु॒ द्यून् ।। - ऋ. ३.२३.२ दृ॒षद्व॑त्यां॒ मानु॑ष आप॒यायां॒ सर॑स्वत्यां रे॒वद॑ग्ने दिदीहि - ऋ. ३.२३.४ स मर्तो॑ अग्ने स्वनीक रे॒वानम॑र्त्ये॒ य आ॑जु॒होति॑ ह॒व्यम् - ऋ. ७.१.२३ म॒हश्च॑ रा॒यो रे॒वत॑स्कृधी नः - ऋ. १०.२२.१५ रे॒वत् स॒निभ्यो॑ रे॒वती॒ व्यु॑च्छतु - ऋ. १०.३५.४ रे॒वत् स वयो॑ दधते सु॒वीरं॒ - ऋ. १०.७७.७ इन ऋचाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि रेवत् को प्रकट करने का, उसे चमकाने का कार्य अग्नि, उषा आदि का है । रेवत् स्वयं अग्नि का विशेषण भी है । मार्कण्डेय पुराण की कथा में रैवत पर्वत की उत्पत्ति तब होती है जब ऋतवाक् मुनि अपने शाप से रेवती नक्षत्र का भूमि पर पात करते हैं । वह नक्षत्र कुमुद पर्वत पर गिरता है और उससे रैवत पर्वत का जन्म होता है जो हिरण्मय है । फिर उस रैवत पर्वत से रेवती कन्या का जन्म होता है । ऋग्वेद १०.३५.४ में उल्लेख है कि रेवती सनियों से रेवत् को प्रकट करे( रे॒वत् स॒निभ्यो॑ रे॒वती॒ व्यु॑च्छतु) । सायणाचार्य द्वारा रेवत का अर्थ सार्वत्रिक रूप से धन किया गया है जो संतोषजनक नहीं है । सनि को ऐसा धन समझा जा सकता है जो सूर्य(सन) के कारण उत्पन्न धन है । इस सूर्य के धन से रेवत नामक चन्द्र - धन उत्पन्न करना है । ऋग्वेद १.७९.५ में कहा गया है कि 'रे॒वद॒स्मभ्यं॑ पुर्वणीक दीदिहि ।' ऋग्वेद १.९२.१४ में उषा के लिए कहा गया है - 'रे॒वद॒स्मे व्यु॑च्छ सूनृतावति' । ऋग्वेद १.१२४.९ - १० में कहा गया है - 'रे॒वदु॑च्छन्तु सु॒दिना॑ उ॒षास॑: ।' यह उल्लेखनीय है कि श्री जे.ए.गोवान ने अपनी वैबसाइटों में परिकल्पना की है कि जड पदार्थ में जो विद्युत विद्यमान है, जैसे इलेक्ट्रान नामक कण पर, वह सूर्य का अंश है । यह अंश जड पदार्थ की सममिति को पूरा करता है, उसे सममित बनाता है । लेकिन वैदिक साहित्य इससे भी आगे जाकर चन्द्रमा को भी सममिति में भागीदार बनाता है । वैदिक निघण्टु में रेव॑त्य: ( र अक्षर उदात्त) शब्द का वर्गीकरण नदी नामों में किया गया है । रैव॒तः ( त उदात्त ) का वर्गीकरण मेघ नामों में हुआ है । ऋग्वेद में प्रायः रेवत शब्द में व उदात्त है, जबकि रेवती में भी व उदात्त है । ऋग्वेद १०.८६.१३ में 'वृषा॑कपायि॒ रेव॑ति॒' में र उदात्त है । तैत्तिरीय संहिता १.५.८.२ में 'रेव॑ती(र उदात्त) रमध्वम्' की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि 'पशवो वै रेवती: ( व उदात्त) पशूनेवात्मन् रमयत । तैत्तिरीय संहिता २.३.७.३ में उल्लेख आता है कि 'यदिन्द्रा॑य रैव॒ताय॒( त उदात्त) यदे॒व बृह॒स्पते॒स्तेज॒स्तदे॒वाव॑रुन्द्ध ।' रेवती से सम्बन्धित मन्त्रों का विनियोग : ऐतरेय ब्राह्मण २.२० तथा आश्वलायन श्रौत सूत्र ५.१.१९ आदि के अनुसार एमा अ॑ग्मन् रे॒वती॑र्जी॒वध॑न्या॒ अध्व॑र्यवः सा॒दय॑ता सखायः । नि ब॒र्हिषि॑ धत्तन सोम्यासो॒ ऽपां नप्त्रा॑ संविदा॒नास॑ एना: ।। - ऋ. १०.३०.१४ इस ऋचा का विनियोग उस समय किया जाता है जब वेदी पर वसतीवरी और एकधना पात्रों के जलों को रखा जाता है । यह उल्लेखनीय है कि वसतीवरी के जल का उपयोग भविष्य के कल के यज्ञ के लिए होता है(अङ्गिरसों का यज्ञ, धीरे - धीरे प्रगति करने वाला), जबकि एकधना के जल का उपयोग आज ही पूरे होने वाले यज्ञ के लिए होता है (देवों का यज्ञ, त्वरित गति से प्रगति करने वाला ) । इससे संकेत मिलता है कि दोनों प्रकार के जलों में कोई विरोधाभास है जिसको दूर करने की आवश्यकता है । 'रेवतीर्न: सधमाद इन्द्रे सन्तु तुविवाजा' से भी संकेत मिलता है कि रेवती को अपने अनुकूल बनाना है(सधमाद) । पुराणों की कथाओं में शेषनाग - पत्नी रेवती दंशन भी करती है ) । आपो॑ रेवती॒: क्षय॑था॒ हि वस्व॒: क्रतुं॑ च भ॒द्रं बि॑भृ॒थामृतं॑ च । रा॒यश्च॒ स्थ स्व॑प॒त्यस्य॒ पत्नी॒: सर॑स्वती॒ तद्गृ॑ण॒ते वयो॑ धात् ।। ( ऋग्वेद १०.३०.१२) का विनियोग प्रातरनुवाक् में होता है (ऐतरेय ब्राह्मण २.१६, आश्वलायन श्रौत सूत्र ७.११.७) । आपः रेवती: क्या हो सकता है, इस संदर्भ में स्कन्द पुराण ६.११७ में अम्बारेवती की कथा का उल्लेख किया जा सकता है जिसमें शेषनाग - पत्नी अपने श्रेय के लिए अम्बा देवी की स्थापना करती है । लक्ष्मीनारायण संहिता २.२४१.६१ में शेष की पत्नी के रूप में कुण्डलिनी का उल्लेख है । अतः कुण्डलिनी के संदर्भ में भी रेवती के चरित्र का अनुशीलन करने की आवश्यकता है ।
वारवन्तीयं साम ।। इन्द्र: । गायत्री । इन्द्र: ।। रे॒वती॑र्न: सध॒माद॒ इन्द्रे॑ सन्तु तु॒विवा॑जा: । क्षु॒मन्तो॒ याभि॒र्मदे॑म ।। आ घ॒ त्वावा॒न् त्मना॒प्त: स्तो॒तृभ्यो॑ धृष्णविया॒नः । ऋ॒णोरक्षं॒ न च॒क्र्यो॑: ।। आ यद् दुव॑: शतक्रत॒वा कामं॑ जरितॄ॒णाम् । ऋ॒णोरक्षं॒ न शची॑भि: ।। - ऋ. १.३०.१३-१५
२र र र र १ २ ३ ५ २ १ ५ १ २ रेवतीर्नाऔहोहाइ ।। साधामाऽ२३४दाइ । इन्द्राइसाऽ२३४हा । तुतुविवाऽ३४ । ३र४र५ १ ३ ५ २ ३ ५ २ १ २ १ अ २ औहोवा । इहाऽ२३४हाइ । उहुवाऽ२३४जा: ।। क्षुमन्त: । या'' भिर्मदाऽ३४ ।
३र४र५ १ ३ ५ ३र २ ५र ५ औहोवा । इहाऽ२३४हाइ । औहोऽ३१२३४ । मा । एहियाऽ६हा ।। श्री: ।। २र र र र १ २ ३ ५ २र१ ५ आघत्वावाँऔहोहाइ ।। त्मानायूऽ२३४क्ता: । स्तोतृभ्योऽ२३४हाइ । १ र २ ३र४र५ १ ३ ५ २३ ५ २१र २ धृष्णवीयाऽ३४ । औहोवा । इहाऽ२३४हाइ । उहुवाऽ२३४ना: । ऋणोर । १ अ २ ३र४र५ १ ३ ५ ३र२ क्षा'' न्नचक्राऽ३४ । औहोवा । इहाऽ२३४हाइ । औहोऽ३१२३४ । यो: । ५र ५ २र र र १ २ ३ ५ एहिया६हा । श्री: ।। आयद्दुवाऔहोहाइ ।। शातक्राऽ२३४ताउ । २र १ ५ १ २ ३र४र५ १ ३ ५ २ ३ ५ आकामाऽ२३४©हाइ । जरितृऽ३४ । औहोवा । इहाऽ२३४हाइ । उहुवाऽ२३४णाम् २१र २ १ अ २ ३र४र५ १ ३ ५ ३र२ । ऋणोर । क्षां न्नशचाऽ३४ । औहोवा । इहाऽ२३४हाइ । औहोऽ३१२३४ । ५र ५ ४ भी: । एहियाऽ६हा । होऽ५इ ।।डा।।
प्रथम प्रकाशन – ३१-५-२००८ई.(ज्येष्ठ कृष्ण एकादशी, विक्रम संवत् २०६५)
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