पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

( Ra, La)

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Yogalakshmi - Raja  (Yogini, Yogi, Yoni/womb, Rakta/blood, Raktabeeja etc. )

Rajaka - Ratnadhaara (Rajaka, Rajata/silver, Raji, Rajju, Rati, Ratna/gem etc.)

Ratnapura - Rathabhrita(Ratnamaalaa, Ratha/chariot , rathantara etc.)

Rathaswana - Raakaa (Rathantara, Ramaa, Rambha, Rambhaa, Ravi, Rashmi, Rasa/taste, Raakaa etc.) 

Raakshasa - Raadhaa  (Raakshasa/demon, Raaga, Raajasuuya, Raajaa/king, Raatri/night, Raadhaa/Radha etc.)

Raapaana - Raavana (  Raama/Rama, Raameshwara/Rameshwar, Raavana/ Ravana etc. )

Raavaasana - Runda (Raashi/Rashi/constellation, Raasa, Raahu/Rahu, Rukmaangada, Rukmini, Ruchi etc.)

Rudra - Renukaa  (Rudra, Rudraaksha/Rudraksha, Ruru, Roopa/Rupa/form, Renukaa etc.)

Renukaa - Rochanaa (Revata, Revati, Revanta, Revaa, Raibhya, Raivata, Roga/disease etc. )

Rochamaana - Lakshmanaa ( Roma, Rohini, Rohita,  Lakshana/traits, Lakshmana etc. )

Lakshmi - Lava  ( Lakshmi, Lankaa/Lanka, Lambodara, Lalitaa/Lalita, Lava etc. )

Lavanga - Lumbhaka ( Lavana, Laangala, Likhita, Linga, Leelaa etc. )

Luuta - Louha (Lekha, Lekhaka/writer, Loka, Lokapaala, Lokaaloka, Lobha, Lomasha, Loha/iron, Lohit etc.)

 

 

Detailed story of King Rahugana and Jada Bharata

Fifth canto of Bhaagavata puraana contains a story of king Rahugana who is traveling in a palanquin to meet sage Kapila. By chance, he happens to employ a dull man named Bharata as one of the carriers of his palanquin. When the movement of palanquin becomes incoherent due to dull Bharata, the king scolds him and cuts a joke that so much load has been put on the shoulders of this frail man. Bharata answers that it is not I who is experiencing this load, it is the gross body only. He himself is not the body. On this, the king becomes attentive and asks that how he is saying this? When rice is put inside the water in a vessel and the vessel is heated from outside, surely the heat is experienced by rice also. Similarly, it should be the Atma which may be experiencing the joys and pains of the gross body. The answer given by Bharata is not much clear. It appears that Bharata told the king that Atma is one which is beyond the experience of sorrow and joy. One has to strive to experience that state of Atman. This story can be compared with a ritual performed on fifth day of a particular Soma yaaga. Water is put inside a vessel and a particular grass named Avakaa is put inside the water. When the priests sing a saama hymn, they touch this grass inside water. Avakaa grass has been stated to be symbolic of the state of no – speech. This state of no – speech may have been formed due to excess of joy in one’s penances. Avakaa can also be interpreted as that state which Bharata is talking about with the king.

            The word rahoo in the name rahoogana seems to be derived from ranhu. The movement of a chariot on the street is called rahnana. Or the chariot/ratha word itself is derived from the root rahi or rahna – movement. This movement of ratha can be of two types – movement of the human chariot which can move in horizontal direction only. God chariot can move up and down also. Most of our joys and sorrows are able to move us in horizontal direction only. When an experience is so powerful that it gives upward or downward movement also, then it goes beyond the category of human chariot. Perhaps then it comes under the category of divine chariot. May be, dull Bharata is trying to let king Rahoogana taste that divine experience.

First published : 7-5-2010 AD(Vaishaakha krishna navami, Vikrama samvat 2067)

रहूगण

टिप्पणी :  राजा रहूगण की कथा भागवत पुराण के पांचवें स्कन्ध(५.१०+) में तथा नारद पुराण १.४८ - १.४९ में प्रकट होती है । कथा संक्षेप में इस प्रकार है कि सौवीरराज रहूगण शिबिका या पालकी में बैठकर इक्षुमती नदी के किनारे मोक्ष प्राप्ति की इच्छा से कपिल मुनि से मिलने जा रहे थे । उनकी शिबिका ढोने वालों को एक अतिरिक्त शिबिकावाहक की आवश्यकता का अनुभव हुआ । उन्होंने मोटे – ताजे पुरुष जड भरत को देखा और उसे शिबिकावाहक बना लिया । लेकिन जड भरत तो एक बार में इषुमात्र ही आगे बढते थे, जबकि अन्य शिबिकावाहक यथेच्छ आगे बढ जाते थे । इससे शिबिका का वहन अस्त – व्यस्त हो गया । इस पर सौवीरराज को क्रोध आया और उसने जड भरत का उपहास किया कि वह इतने अधिक बोझ को ढो रहा है और उसकी पिटाई या चिकित्सा करने की भी धमकी दी । इस पर जड भरत ने कहा कि वास्तव में वह शिबिका के बोझ का अनुभव नहीं कर रहा है । यह तो स्थूल देह ही है जो शिबिका के बोझ का अनुभव कर रही है । आत्मा को तो उस बोझ का कोई अनुभव नहीं हो रहा है । इस उत्तर पर सौवीरराज रहूगण को आश्चर्य हुआ । उसने भरत से पूछा कि यह कैसे हो सकता है । मान लिया जाए कि एक पात्र है जिसमें पानी भरा है । पानी के अन्दर चावल पडे हैं । यदि पात्र को बाहर से अग्नि द्वारा ताप दिया जाए तो उस ताप का अनुभव तो चावलों को होगा ही और वे पकेंगे । अतः यदि हमारी देह को किसी कष्ट का अनुभव होता है तो निश्चित् रूप से देह के अन्दर विद्यमान आत्मा को भी तो उस कष्ट का अनुभव होगा ही । भरत ने इसका क्या उत्तर दिया, यह रहस्यमय भाषा में है । भागवत पुराण में सौवीरराज रहूगण की कथा से पूर्व राजर्षि भरत की साधना के चरणों का वर्णन है । सबसे पहले राजर्षि भरत के पञ्चजनी नामक स्त्री से पांच पुत्र सुमति, राष्ट्रभृत्, सुदर्शन, आवरण और धूम्रकेतु उत्पन्न हुए । उसके पश्चात् भरत ने अपनी साधना आरम्भ की । भरत को एक मृगशावक प्राप्त हुआ जिसका जन्म तब हुआ था जब मृगी सिंह के भय से नदी में कूद गई थी । मृगी तो मर गई लेकिन मृगशावक बचा रह गया । भरत ने इस मृगशावक का पालन मनोयोग पूर्वक किया । चूंकि मृत्यु समय में भी भरत के मन में मृगशावक की चिन्ता थी, इस कारण भरत का जन्म मृग रूप में हुआ । मृग भरत को अपने पूर्व जन्म का ज्ञान बना रहा और उन्होंने कुछ समय पश्चात् अपनी मृग देह का त्याग कर दिया । अब भरत का जन्म एक ब्राह्मण कुल में हुआ । भरत को जन्म से ही जातिज्ञान था, अतः उन्होंने पिता की दी हुई विद्या का ग्रहण नहीं किया, अपितु जडवत् जीवन जीना उचित समझा । जड भरत और रहूगण की कथा के पश्चात् पुनः भरत वंश का वर्णन है । भरत के ज्येष्ठ पुत्र सुमति से आरम्भ करके उनके वंश में उद्गाता, प्रतिहर्ता, प्रस्तोता, उद्गीथ, प्रस्ताव आदि वंशजों का उल्लेख है जो राजर्षि गय पर समाप्त होता है ।

कथा की प्रतीकात्मकता

अनुमान है कि भागवत के छह स्कन्धों का तादात्म्य पृष्ठ्य षडह नाम से पुकारे जाने वाले छह दिवसीय सोमयाग से है । इस सोमयाग के पांचवें दिवस के मुख्य लक्षणों में से एक लक्षण यह है कि इस दिन महानाम्नी साम का गान होता है – विदा ए मघवन् विदा गातु इत्यादि । सामगान करते समय उद्गातृगण अपना हाथ एक जल से भरे पात्र में डाले रखते हैं । इस जल में अवका या शैवाल घास पडी रहती है और यह ऋत्विज अवका का स्पर्श करते रहते हैं । कहा गया है कि आपः या जल तो महानाम्नी है और अवका अवाक् स्थिति है । अवाक् स्थिति इस प्रकार से हो सकती है कि आनन्द का इतना अतिरेक हो जाए कि बोलना भी कठिन हो जाए । आपः को महानाम्नी कहा गया है । आपः आनन्द के सूचक हो सकते हैं । कहा गया है कि महामान की स्थिति को ही परोक्ष रूप में महानाम कह दिया गया है । इसका अर्थ यह हो सकता है कि आनन्द की स्थितियों का नामकरण कर दिया गया है । नाम भर लिया कि आनन्द का अतिरेक उभर कर सामने आ गया । लेकिन अवका को छूते रहना यह संकेत करता है कि साधक को इस आनन्द की स्थिति को भी पार करके उस स्थिति पर पहुंचना है जिसे कोई दुःख या सुख स्पर्श नहीं करता । यह अवका स्थिति की दूसरी व्याख्या हो सकती है । नारायण शब्द की व्याख्या करते समय सार्वत्रिक रूप से कहा जाता है – आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः । अयनं मम तत् पूर्वं ततो नारायणो ह्यहम् ।। (महाभारत शान्ति पर्व ३४१.४०) अर्थात् आपः तो नर की स्थिति, डा. फतहसिंह के अनुसार नृत्य की, आनन्द की स्थिति हैं । और जो इस आनन्द का अयन है, मूल है, वह नारायण है । अतः जब रहूगण – भरत संवाद में रहूगण कहता है कि देह पर पडे सुख – दुःख का अनुभव आत्मा को तो होता ही होगा, उस समय संभवतः भरत यही कहते हैं कि उस स्थिति का अनुभव करो जो सुख – दुःख से परे है । वही आत्मा है ।

     रहूगण शब्द की निरुक्ति के संदर्भ में रहि - गतौ धातु से रंह शब्द की रचना होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि रंह को पुराणों में परोक्ष रूप में रहू कह दिया गया है । ऋग्वेद २.१८.१ में सायणाचार्य रथ शब्द की निरुक्ति रंहणाद्रथ अर्थात् यज्ञ रूप में करते हैं । मनुष्य का रथ जब मार्ग पर चलता है तो उसे रंहण कहा जाता है । देवरथ संभवतः रोहण करता है । रंहण का अर्थ यह हो सकता है कि उसमें रोहण की सामर्थ्य नहीं है, वह केवल तिर्यक् गति में दिशाओं में भ्रमण कर सकता है, जबकि देवरथ में ऊर्ध्व – अधो दिशाओं में भ्रमण की भी सामर्थ्य होनी चाहिए । इतना ही नहीं, रंहण की सामर्थ्य भी स्वयं ही नहीं आ जाती । ऋग्वेद २.१८.१ का कथन है कि रथ इष्टियों, मतियों द्वारा ही रंह्य हो पाया ।  इस रंहण से एक विशेष प्रयोजन सिद्ध होता है, यह भागवत पुराण की कथा संकेत देती है । रहूगण को सौवीरराज कहा गया है । डा. फतहसिंह के अनुसार वीर स्थिति विज्ञानमय कोश की स्थिति होती है, एकान्तिक साधना की । लक्ष्मण वीरासन में साधना करते थे, ऐसा प्रसिद्ध है । सुवीर स्थिति वह होती है जहां स्थूल देह को वीर स्थिति के लाभ मिलने लगे हों । जैसे लक्ष्मण वीरासन में बैठकर चौकीदारी करते थे । स्थूल देह को तो निद्रा चाहिए ही, लेकिन विज्ञानमय कोश जाग्रत रहेगा, यह वीरासन हुआ । सुवीर स्थिति वह हो सकती है जहां स्थूल देह को भी निद्रा की आवश्यकता न रहे । जो सुवीर स्थिति का स्वामी है, वह सौवीरराज हुआ । लेकिन भागवत की कथा में जड भरत सौवीरराज को जड देह के बारे में शिक्षा दे रहे हैं कि सौवीरराज की जो शिबिका है, वह यह जड देह ही तो है जिसमें चैतन्य पुरुष सिर के रूप में बैठा हुआ है । अतः यह कहना कठिन है कि सौवीरराज को सुवीर स्थिति का ज्ञान हो चुका था । भरत शब्द से तात्पर्य उन स्थितियों से हो सकता है जो हमें आनन्द से भर देती हैं । जड भरत स्थिति वह हो सकती है जो स्थूल आनन्द प्रदान करती हो – जैसे स्वादिष्ट भोजन । भरत द्वारा मृगशावक का पालन करने के संदर्भ में मृगशावक स्थूल देह को किसी सूक्ष्म देह का, भाव शरीर का ज्ञान हो सकता है । साधना में कोई भी देहातीत अनुभव हो, वह मृगशावक कहलाएगा । उसकी सभी प्रकार से रक्षा करनी है । तभी राजसिक प्रकार का भरत सात्त्विक भरत, ब्राह्मण भरत बन पाएगा । यह विचित्र है कि सामगान की हिंकार, प्रस्ताव, उद्गीथ, प्रतिहार भक्तियों को भी भागवत पुराण में राजर्षि भरत के वंश में दिखाया गया है, ब्राह्मण भरत के वंश में नहीं ।

          रहूगण की कथा में रहूगण का जड भरत से मिलन इक्षुमती नदी के किनारे होने का उल्लेख है । श्रीमती राधा ने इक्ष्वाकु के संदर्भ में संकेत दिया है कि इक्ष्वाकु शब्द इक्षु और वाक् का योग है, अथवा अपनी वाक् का ईक्षण करना है, यह पश्यन्ती वाक् है । इक्षु का यही तथ्य इक्षुमती नदी के बारे में भी ठीक बैठ सकता है । इक्षु से अगली स्थिति इषु की है । जड भरत इषुमात्र ही आगे बढता है । इषु का अर्थ हुआ लक्ष्य को ध्यान में रखकर ही आगे बढना ।

जहां पुराणों में सौवीरराज रहूगण का प्रसंग है, वहीं ऋग्वेद १.७४ से १.९३ सूक्तों का ऋषि गोतम राहूगण, अर्थात् रहूगण का पुत्र गोतम है । गोतम ऋषि की विशेषता यह है कि वह जिस कूप का निर्माण करता है, उसमें जल प्रकट हो जाता है जिससे अन्य सभी जन तृप्त होते हैं । इस कथन का तात्पर्य यह हो सकता है कि गोतम की स्थिति में साधना शुष्क नहीं रहती, अपितु आनन्द से युक्त हो जाती है । गो इन्द्रियों को भी कहते हैं । अतः गोतम इन्द्रियों द्वारा लभ्य परम सुख हो सकता है । गोतम स्थिति का निर्माण रहूगण से हुआ है । अतः यह कहा जा सकता है कि रंहण की, रहूगण की पराकाष्ठा यह है कि हमारी इन्द्रियों को मायातीत ज्ञान का, वास्तविक आनन्द का अनुभव होने लगे ।

पुराणों के माध्यम से रंहण को समझ लेने के पश्चात् वेद में रंहण को समझना भी संभव हो सकता है । ऋग्वेद १०.१७८ सूक्त का देवता तार्क्ष्य है । इस सूक्त में कहा गया है कि तार्क्ष्य (सुपर्ण या गरुड) सूर्य की ज्योति की भांति आपः से पांच कृष्टियों (इन्द्रियों?) का निर्माण करता है (?)। उसकी रंहि सहस्रसा और शतसा है । सहस्र शब्द का प्रयोग सामवेद के संकेत के रूप में और शत का प्रयोग यजुर्वेद के संकेत के रूप में होता है । ऋग्वेद ९.११०.३ के अनुसार पवमान जिस सूर्य को उत्पन्न करता है, वह गोजीर/गोजीव और पुरंधि द्वारा रंहमाण है । ऋग्वेद ९.६.८ के अनुसार यज्ञ की आत्मा रंह्य है । ऋग्वेद १०.१४७.४ में इन्द्र के रंह्य मद का उल्लेख है । इस ऋचा में कहा गया है कि जो इन्द्र के रंह्य मद का दर्शन करने में समर्थ हो जाता है, वही रायः नामक धन का दर्शन कर सकता है । इस ऋचा में भरत शब्द भी प्रकट हुआ है । पुराणों की कथा में भरत और रहूगण का जो संयोग दिया गया है, वह वेद में किस रूप में प्रकट हुआ है, यह अन्वेषणीय है । तैत्तिरीय संहिता १.३.१०.२ में पूष्णः रंह्यः अर्थात् पूषा से सम्बन्धित रंहणयोग्य है, ऐसा उल्लेख है ।

 

      पृष्ठ्य षडह सोमयाग के संदर्भ में पंचम अह को विषुवान् स्थिति की भांति कहा गया है । विषुवान् स्थिति वह होती है जहां सूर्य पृथिवी में सबसे अधिक ऊर्जा का समावेश कर पाता है । विषुवान् स्थिति के दोनों ओर विश्व और सर्व की स्थिति होती है । क्या विश्व और सर्व की स्थितियां क्रमशः गोतम और सौवीरराज रहूगण की स्थितियां हैं, यह अन्वेषणीय है । भागवत पुराण के पांचवें स्कन्ध के आरम्भ में प्रियव्रत पाता है कि सूर्य द्वारा तो पृथिवी का केवल आधा भाग ही प्रकाशित हो रहा है, अतः वह अपने रथ में बैठकर पृथिवी के चक्कर लगाता है जिससे सात महाद्वीपों का जन्म होता है । प्रियव्रत का पुत्र आग्नीध्र है । सोमयाग में आग्नीध्र नामक ऋत्विज में यह विशेषता होती है कि वह बहिर्मुखी भी हो सकता है, अन्तर्मुखी भी । डा. फतहसिंह का अनुमान है कि यह वेद की विश्व और सर्व की स्थिति है ।